गुरुदक्षिणा (लघुकथा)

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गुरुदक्षिणा (लघुकथा)

गोविंद प्रसाद जी विगत कई वर्षों से निजी विद्यालय में अध्यापन करवा रहे।अतुल उनका प्रिय विद्यार्थी था।पढ़ने -लिखने में मेधावी था ,हर गतिविधि में बढ़चढ़ कर भाग लेता। कक्षा 08 के बाद वह एक कुम्हार के यहाँ काम करने लगा। यह बात पता चलते ही गोविंद प्रसाद जी ने उसे बुलाने एक छात्र को भेजा।
अतुल ने कहा-“गुरुदेव प्रणाम।’
“तुमने पढ़ाई क्यो छोड़ दी?”
“गुरुदेव पिताजी बीमार है, घर की जिम्मेदारी ही आ गई है।मेरे पास इतने रुपए नहीं की मैं आगे पढ़ पाऊं।”
“कल से रोज सुबह स्कूल आओ,दोपहर में काम कर लिया करो,फीस की चिंता ना करो।”
“जैसी आपकी आज्ञा।”
अतुल अब पहले से ज्यादा मेहनती हो गया।पढ़ाई के साथ काम भी करता और हमेशा अच्छे अंको से उत्तीर्ण होता रहा।
प्रतियोगी परीक्षा के बाद वह एक बड़ा अधिकारी बन गया।
गोविंद प्रसाद जी अतुल तरक्की देखकर गौरवान्वित हुए। हर गुरुपूर्णिमा पर फोन आता “गुरुदेव सादर प्रणाम।”
“खुश रहो अतुल”,बातचीत में स्नेहवश उन्होंने पूछ लिया-“गुरु दक्षिणा में क्या दोगे??”
“गुरुदेव जो बन पड़ेगा वह करूंगा।”कुछ दिन बाद
गोविंद प्रसाद जी का निधन हो गया। घर में गुरुमाता सुचित्रा अकेली रह गई। एक दिन बड़ी- सी गाड़ी उनके घर के सामने आकर खड़ी होती है।
ड्राइवर ने कहा-“माँजी आपको साहब ने बुलाया है।””तुम्हारे साहब कौन है?”
“माँजी अतुल शर्मा”
ठीक है कहकर वह गाड़ी में बैठ गई। घर के मुख्य द्वार पर अतुल उसकी पत्नी सोनाली और बच्चे अंकित ,नीता स्वागत में खड़े थे। “आपका स्वागत है, सभी ने प्रणाम किया। सोनाली- माँजी को एक कमरे में ले गई जहाँ गुरुदेव गोविंद जी का चित्र लगा था। “आज से आप यही रहेगी अपने बेटे ,बहु और परिवार के साथ।”

  डॉ. प्रणव देवेन्द्र श्रोत्रिय
शिक्षाविद ,लेखक
इंदौर।