बंगाल और दिली के बीच टकराव देश के संघीय ढाँचे पर इस दशक की सबसे बुरी दुर्घटना है ,दिल्ली की और से बंगाल पर प्रभुत्व जमाने के लिए की गयी कोशिश के फलस्वरूप ये नौबत आयी है और अब इसी के बहाने बंगाल सरकार को गिराने की कोशिश भी हो सकती है .बंगाल की मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी का अनशन इसे कौन सी दिशा में ले जाएगा ये देखना अब जरूरी हो गया है .
उत्तर प्रदेश में अपने पांव उखड़ते देख केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा बीते एक साल से बंगाल में अपनी जमीन तलाश रही है किन्तु तृण मूल कांग्रेस को समूल उखाड़ फेंकना उसे आसान नहीं लग रहा इसलिए केंद्र ने सीबीआई के बहाने बंगाल और ममता को निशाने पर लिया है .सवाल ये है की जब राज्य सरकार ने अपने विधिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सीबीआई की मान्यता और सहमति वापस ले ली थी तो केंद्र को जबरन राज्य में सीबीआई भेजने की क्या जरूरत थी ?
सीबीआई संघीय जांच एजेंसी है लेकिन उसे दिल्ली पुलिस स्टेब्लिशमेंट एक्ट के तहत राज्यों से मान्यता और सहमति लेकर ही काम करना होता है..बंगाल के मामले में इस प्रावधान की अनदेखी की गयी यदि बहुत जरूरी था तो सीबीआई को राज्य सर्कार से बातचीत करना चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया .इस मुद्दे को लेकर अब या तो सीबीआई देश की सबसे बड़ी अदालत में जाएगी या देश की सबसे बड़ी अदालत खुद संज्ञान लेकर कोई कार्रवाई कर सकती है .
सवाल ये है जब देश साथ दिन बाद जनता की अदालत में जा ही रहा है तब इस तरह के टकराव के पीछे केंद्र की मंशा क्या है ?क्या भाजपा तरीन मूल कांग्रेस से मैदान में निबटने में अपने आप को कमजोर पा रही है जो दंद -फंद का सहारा ले रही है ?बंगाल किसी जमाने में वामपंथ का गढ़ था लेकिन उसे ममता ने नेस्तनाबूद किया और अब भाजपा उसी तर्ज पर ममता के गढ़ को ध्वस्त करने के लिए गलत रास्ते चुन रही है .इस सबके पीछे भाजपा की हताशा साफ़ झलकती है .
टकराव के इस नए मैदान में तृणमूल कांग्रेस भी भयभीत है इसीलिए शायद ममता बनर्जी ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष सहित तमाम भाजपा नेताओं को सभाओं और विमान उतारने की अनुमति न देकर अलोकतांत्रिक काम किया .ममता को भाजपा से जनता की अदालत में ही बात करना चाहिए थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ .टकराव की ये राजनीति केवल बंगाल को ही नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए घातक है .
केंद्र और राज्यों में टकराव की हालांकि ये पहली घटना नहीं है. तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का शासनकाल ऐसी अनेक घटनाउओं का साक्षी रह चुका है,दुर्भाग्य ये है की इतिहास को फिर दोहराया जा रहा है ,इसीलिए इस टकराव को मैंने दुःस्वप्न कहा .भाजपा की ये जिम्मेदारी है की वो देश को उन रास्तों पर दोबारा न धकेले जहां से उसे वापस लाने में लंबा समय लगा था
सीबीआई के मुद्दे पर ममता के पीछे खड़े विपक्षी दलों की विवशता भी देश के सामने है.अधिकाँश विपक्षी दल केंद्र के खिलाफ एकजुटता दिखने के एवज में केंद्र की दादागीरी का सामना कर चुके हैं.चाहे बसपा हो या सपा सभी के पीछे सीबीआई को दौड़ाया गया ,ठीक वैसे ही जैसे किसी पालतू श्वान को अपने पड़ौसी के पीछे दौड़ाया जाता है .सीबीआई ने हाल के कुछ वर्षों में अपनी साख लगातार कम की है.भाजपा जिस सीबीआई को काङ्रेस का तोता कहती है,उसी सीबीआई को भाजपा ने सत्ता में आने के बाद अपना पालतू श्वान बना डाला .
भ्र्ष्टाचार के मामलों की जांच से किसी को इंकार नहीं हो सकता लेकिन जब ये मामले राजनितिक नजरिये से टाइमिंग तय कर हाथ में लिए जाते हैं तब टकराव पैदा होता है .बंगाल में यही तो हुआ है .सारदा चित-फंद घोटाला नया नहीं है लेकिन जिस ढंग से उस मामले को हाथ में लिया गया है उससे साफ़ जाहिर है की अमित शाह,और जोगी जैसों को बंगाल में घुसने से रोकने के लिए बंगाल सरकार द्वारा की गयी कार्रवाई के बाद सीबीआई का इस्तेमाल किया गया
आने वाले दिन इसी घटनाक्रम के कारण बहुत भारी पड़ने वाले हैं.देश का संघीय ढांचा कमजोर न हो,टकराव न बढ़े इसके लिए साझा प्रयासों की जरूरत है किन्तु दुर्भाग्य ये है की किसी भी दल में अब वे लोग नहीं रहे जो ऐसी विकट स्थिति में साथ बैठकर कोई समाधान निकाल सकते .राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक पर इस मामले में भरोसा नहीं किया जा सकता .केवल बड़ी अदालत है जो ये काम कर सकती है लेकिन उसकी भी सीमाएं हैं यदि उसकी भी अनदेखी की गयी तो देश का भगवान ही मालिक है