परिचर्चा भाग -2 : रक्षाबंधन की वर्तमान में प्रासंगिकता ?

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परिचर्चा भाग -2  : रक्षाबंधन की वर्तमान में प्रासंगिकता ?

हमने इस विषय पर विचार अमंत्रित किए हैं, विषय यूं तो एक पर्व त्यौहार पर केंद्रित है लेकिन हमें उम्मीद से कहीं ज्यादा पत्र / विचार प्राप्त हुए हैं – कुछ चुनिंदा पत्र / विचारो को हम प्रकाशित कर रहे हैं, सुविधा के लिए इन्हें चार भागो में धारावाहिक किश्त की तरह पोस्ट कर रहे हैं –

संयोजन -डॉ रुचि बागड़देव -ममता सक्सैना

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आधुनिक तकनीकी के विकास का असर रक्षाबंधन पर भी पड़ा है—–
रक्षाबन्धन एक हिन्दू त्यौहार है जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। 

राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी-कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है।आधुनिक तकनीकी के विकास का असर रक्षाबंधन पर भी पड़ा है.
आज के आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। बहुत सारे भारतीय आजकल विदेश में रहते हैं एवं उनके परिवार वाले (भाई एवं बहन) अभी भी भारत या अन्य देशों में हैं। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है इसके अतिरिक्त भारत में राखी के अवसर पर इस पर्व से सम्बन्धित एक एनीमेटेड सीडी भी आ गयी है जिसमें एक बहन द्वारा भाई को टीका करने व राखी बाँधने का चलचित्र है। यह सीडी राखी के अवसर पर अनेक बहनें दूर देश में रहने वाले अपने भाइयों को भेज सकती हैं।…….

इसमें अधिक आडम्बर और दिखावा जोड़ने की आवश्यकता नहीं

‘नब्बे वर्ष की उम्र हो गई कभी इस तरह का विचार ही नहीं आया कभी महसूस ही नहीं किया कि यह त्यौहार हम सब ने क्यों और कब से मनाना शुरू किया या कब से मनाया जाने लगा ।बहनें भाइयों को राखी बांधने लगी। भाई उन्हें उपहार देनें लगे। इतिहास मे प्रसंग आता हैं कि अच्छे भाव से अपनों की शक्ति के लिए मां, भाभियां, पंडित जीघ र की महिलायें कालवा बांध देती थीं तथा उसे बंधवाने वाला वाला उसकी बहुत इज्जत व मान के साथ हर बात मानता था। काला धागा बांह में बांध दादी कहती थी जा अंग्रेजों की बुरी नजर ना पड़ें। पता नहीं कब से इतिहास में सुना युद्ध, हमलों के पहले रक्षासूत्र बांधा जाता था और तिलक कर महिलाएं अपने पतियों की आरती उतार भेजा करती थी युद्ध में।राखी बाँधने का त्योहार का रुप अब बदल गया है और अब पंडित लोग उसके मुहूर्त भी निकालने लगे हैं तथा दो -दो दिन की तिथियाँ निकाल लेते हैं।हमारी समझ में तो हमें भाई- बहन के प्यार के आदान -प्रदान का त्योहार रक्षाबंधन को मानना ही ठीक होगा तथा इसमें अधिक आडम्बर और दिखावा जोड़ने की आवश्यकता नहीं है।

डॉ. कृष्ण चन्द्र सक्सेना,
रिटायर्ड प्रोफेसर मेडिकल कॉलेज,इंदौर

         

               रक्षाबंधन: एक अटूट डोर स्नेह की

  “स्नेहबंधन को सोने-चाँदी की राखी की दरकार नहीं हो”

त्यौहार प्रधान हमारे देश में रक्षाबंधन को भी हमने हमेशा एक त्यौहार के रूप में मनाया।भाईयों को बहनों की रक्षा का भार सौंपा गया तो कहीं पत्नी ने पति को सुरक्षा डोर के रूप में राखी बाँधी।
समय बदला है,पता नहीं कैसे त्योहारों की पवित्रता ,उनका निर्दोष स्वरूप जैसे
कहीं खोता जा रहा है।धर के घरेलू माहौल,आसपास वालियों के साथ मिलकर मनाये जाने वाले त्यौहार,बड़े-बड़े होटलों में व्यवसायिक रूप लिए बैठे हैं। ऐसे में कम से कम राखी जैसे स्नेहबंधन को सोने-चाँदी की राखी की दरकार नहीं होना चाहिए,ना ही घर आई बहन को क़ीमती तोहफ़े की ।सुख में ,दुख में दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़ खड़े रहें,भाई बहन का,बहन भाई का हरदम साथ दे,यही सच्चा रक्षाबंधहोगा।
बहन की मनुहार हो,प्रेम ही उपहार हो
ऐसा ही सीधा-सच्चा ये त्यौहार हो।

   नीहार गीते
 पूर्व प्राचार्य, गुजराती कन्या महाविद्यालय,इंदौर

“रिश्तों की रक्षा का सूत्र है रक्षाबंधन”

भारत विभिन्नता में एकता का परिचायक राष्ट्र है। यहाँ की सनातन संस्कृति अखिल ब्रह्माण्ड में परम वंदनीय है। इस राष्ट्र में प्रत्येक सम्बन्ध, रिश्ते, नाते का अपना महत्त्व है और महत्त्वपूर्ण तो यह भी है कि रिश्ते–नातों की परम आवश्यकता के लिए भी एक विधान सनातन संस्कृति में उपलब्ध है। जिस तरह माँ के लिए नवरात्रि, पिता के लिए शिव चतुर्दशी व्रत, पुत्र के लिए अहोही अष्टमी, पति के लिए करवाचौथ, पूर्वजों के लिए पितृ पक्ष इत्यादि उसी तरह बहन के सौभाग्य की कामना और उसकी रक्षा के लिए भारत में रक्षा बंधन पर्व मनाया जाता है।
शास्त्र कहते हैं – ‘येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:। इसका अर्थ है- जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबंधन से बहन अपने भाई को बांधती है, जो तुम्हारी रक्षा करेगा।
रक्षाबंधन का पर्व न केवल यह शिक्षा देता है कि अपनी बहन की रक्षा करो, बल्कि जगत की समस्त बहनों को अपनी ओर से कोई परेशानी या असुरक्षा न हो, यह भी संकल्प देता है। इस परम सौभाग्यशाली पर्व के उल्लास में लोकमंगल शामिल है। हर घर के सौभाग्य का कारक उस घर की बहन-बेटी होती है, और यदि वह सुरक्षित है तो फिर जगत में अनिष्ट असंभव है। साहित्य कामायनी में हमें रक्षा का बंधन हमारी भाषा से करना होगा क्योंकि आज उसे हमारे वचनबद्ध होने की आवश्यकता है। यदि हमने अपनी भाषा से रक्षा बन्धन बनवाया तो हम पूरी ज़िम्मेदारी और जवाबदारी के साथ अपनी भाषा की रक्षा का प्रण लें, उसी भाषा से हमारा परिवार, परिवेश, परिजन, परम्परा और संस्कृति सुरक्षित रहेगी, हम सब लोग सुरक्षित रहेंगे। यही आज की आवश्यकता भी है।

डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’,इंदौर
राष्ट्रीय अध्यक्ष, मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत

“रक्षा बंधन से मैं तुम्हें बांधता हूँ, जो तुम्हारी रक्षा करेगा”

टी,बहन माँ.बुआआदि स्वरूप में स्त्री अपने अंतस में एक कोना सदैव अपने प्रिय भाई के लिए रखती है।सगा हो, दूर का हो या व्यवहार (मुँह बोला ) भाई-बहन का स्नेह समयानुसार प्रगाढ़ होता जाता है। इस पवित्र रिश्तेंको रक्षाबंधन के रूप में महत्त्वपूर्ण माना गया है। स्नेह,लाड़, दुलार, ममत्व के इस त्यौहार की भारत वर्ष मेंसनातन परम्परा रही है। वामन पुराण, भविष्य पुराण,विष्णु पुराण आदि स्थानों पर रक्षाबंधन के पर्व की महत्ता को इस प्रकार दर्शाया है–

येन बद्धों बलि राजादानवेन्द्रो महाबलः।तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल :।(जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्रराजा बलि को बांधा गया था।उसी रक्षा बंधन से मैं तुम्हें बांधता हूँ, जो तुम्हारी रक्षा करेगा।हे रक्षे! (रक्षासूत्र) तुमचलायमानन हो,चलायमान न हो।

शास्त्रों में देवीलक्ष्मी – राजाबलि इन्द्र और शयी, कृष्ण-द्रोपती,यमराज और यमुना आदि के रक्षाबंधन पर्व की कथाएँ प्रचलित है।स्नेह के इस पर्व पर बहन-भाई की धन-दौलत,अभाव को भूल कर सिर्फ रक्षा सूत्र से अपने वर्षभर का प्यार अपने भाई को दे जाती है। देश हो, परदेस हो रक्षा बंधन का त्यौहार भागती- दौड़ती भरी जिन्दगी में आनंद के
कुछ पल ले आता है।


डॉ. प्रणव देवेन्द्र श्रोत्रिय
शिक्षाविद ,लेखक
इंदौर

गे पढ़िए शेष भाग -3 में—————–

परिचर्चा: रक्षाबंधन की वर्तमान में प्रासंगिकता ?

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