“लोकतंत्र” रूपी चांद पर भद्दा काला दाग है “आपातकाल”…

“लोकतंत्र” रूपी चांद पर भद्दा काला दाग है “आपातकाल”…

सत्ता जब सेवक की जगह शासक को तानाशाह बना दे, तो इसकी गवाही लिए गए फैसलों के रूप में इतिहास में दर्ज हो जाती है। भारतीय लोकतंत्र में एक ऐसी ही शख्सियत रही हैं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी। जिनके अच्छे फैसले लोकतंत्र का उजला पक्ष माने जाते हैं, तो जिनका तानाशाही भरा आपातकाल लागू करने का फैसला लोकतंत्र का काला अध्याय बन इतिहास में दर्ज है। 25 जून 1975 वही तारीख थी, जब तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी थी। आपातकाल लागू करने के पीछे था हाईकोर्ट का वह फैसला, जिससे इंदिरा गांधी बौखला गई थी। मामला 1971 में हुए लोकसभा चुनाव का था, जिसमें इंदिरा ने अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी राज नारायण को पराजित किया था। लेकिन चुनाव परिणाम आने के चार साल बाद राज नारायण ने हाईकोर्ट में चुनाव परिणाम को चुनौती दी।

12 जून 1975 को इंदिरा गांधी को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दोषी पाया था और छह साल के लिए पद से बेदखल कर दिया था। इंदिरा गांधी पर वोटरों को घूस देना, सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल, सरकारी संसाधनों का गलत इस्तेमाल जैसे 14 आरोप सिद्ध हुए लेकिन आदतन इंदिरा गांधी ने उन्हें स्वीकार न करके न्यायपालिका का उपहास किया। जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा ने यह फैसला सुनाया था। अपील करने पर 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश बरकरार रखा। 25 जून 1975 को जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के न चाहते हुए भी इस्तीफा देने तक देश भर में रोज प्रदर्शन करने का आह्वान किया था। और जयप्रकाश नारायण का यह आह्वान जन-जन की आवाज न बन पाए, इसके चलते 25 जून 1975 को ही राष्ट्रपति के अध्यादेश पास करने के बाद सरकार ने आपातकाल लागू कर दिया‌ था। यह आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक करीब 21 महीने की अवधि में लोकतंत्र रूपी चांद पर भद्दा काला दाग बन गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित लगा दिया गया। इंदिरा के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर पुरुष नसबंदी अभियान चलाया गया। जयप्रकाश नारायण ने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा था।

ऐसे फैसलों को व्यक्तिगत राजनैतिक निष्ठा के नजरिए के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। न ही ऐसे फैसलों को कोई भी तर्कसंगत ठहरा सकता है। हालांकि इंदिरा ने खुद के फैसले को तर्कसंगत ठहराते हुए आकाशवाणी पर प्रसारित अपने संदेश में कहा था, “जब से मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील क़दम उठाए हैं, तभी से मेरे ख़िलाफ़ गहरी साजिश रची जा रही थी।” आपातकाल लागू होते ही आंतरिक सुरक्षा क़ानून (मीसा) के तहत राजनीतिक विरोधियों की गिरफ़्तारी की गई, इनमें जयप्रकाश नारायण, जॉर्ज फ़र्नांडिस, घनश्याम तिवाड़ी और अटल बिहारी वाजपेयी सहित देश में विपक्ष के सभी महत्वपूर्ण नेता शामिल थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबन्धित कर दिया गया क्योंकि माना गया कि यह संगठन विपक्षी नेताओं का करीबी है तथा इसका बड़ा संगठनात्मक आधार सरकार के विरुद्ध विरोध प्रदर्शन करने की सम्भावना रखता था। पुलिस इस संगठन पर टूट पड़ी और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को कैद कर दिया गया। आरएसएस ने प्रतिबंध को चुनौती दी और हजारों स्वयंसेवकों ने प्रतिबंध के खिलाफ और मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ सत्याग्रह में भाग लिया। सभी विपक्षी दलों के नेताओं और सरकार के अन्य स्पष्ट आलोचकों के गिरफ्तार किये जाने और सलाखों के पीछे भेज दिये जाने के बाद पूरा भारत सदमे की स्थिति में था।

आपातकाल की घोषणा के कुछ ही समय बाद, सिख नेतृत्व ने अमृतसर में बैठकों का आयोजन किया जहां उन्होंने “कांग्रेस की फासीवादी प्रवृत्ति” का विरोध करने का संकल्प किया। देश में पहले जनविरोध का आयोजन अकाली दल ने किया था जिसे “लोकतंत्र की रक्षा का अभियान” के रूप में जाना जाता है। इसे 9 जुलाई को अमृतसर में शुरू किया गया था।आपातकाल की विभीषिका ने अंततः इंदिरा को सत्ता से उखाड़ फेंका। आपातकाल लागू करने के लगभग डेढ़ साल बाद विरोध की लहर तेज़ होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। संजय गांधी चुनाव हार गए। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जाँच के लिए शाह आयोग गठित किया। हालाँकि नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण 1979 में सरकार गिर गई। उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे। इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई लेकिन चली सिर्फ़ पाँच महीने। उनके नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया।

आपातकाल के समय का सर्वाधिक विवादास्पद फैसला सितम्बर 1976 में संजय गाँधी ने देश भर में अनिवार्य पुरुष नसबंदी का आदेश दिया आ। इस पुरुष नसबंदी के पीछे सरकार की मंशा देश की आबादी को नियंत्रित करना था। इसके अंतर्गत लोगों की इच्छा के विरुद्ध नसबंदी कराई गयी। कार्यक्रम के कार्यान्वयन में संजय गांधी की भूमिका की सटीक सीमा विवादित है, कुछ लेखकों ने गांधी को उनके आधिकारिकता के लिए सीधे जिम्मेदार ठहराया है। और अन्य लेखकों ने उन अधिकारियों को दोषी ठहराते हुए जिन्होंने स्वयं गांधी के बजाय कार्यक्रम को लागू किया था। रुखसाना सुल्ताना एक समाजवादी थीं जो संजय गांधी के करीबी सहयोगियों में से एक होने के लिए जानी जाती थीं और उन्हें पुरानी दिल्ली के मुस्लिम क्षेत्रों में संजय गांधी के नसबंदी अभियान के नेतृत्व में बहुत कुख्यातता मिली थी। 18 जनवरी 1977 को इन्दिरा गांधी ने लोकसभा भंग करते हुए घोषणा की कि मार्च में लोकसभा के लिए आम चुनाव होंगे। सभी राजनैतिक बन्दियों को रिहा कर दिया गया। 23 मार्च 1977 को आपातकाल समाप्त हो गया। 16-20 मार्च को लोकसभा के चुनाव सम्पन्न। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई।

यह आपातकाल विकट त्रासदी साबित हुआ। हालांकि 1980 में कांग्रेस को फिर सत्ता में वापसी का मौका मिला और इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन यह पारी अमृतसर में स्वर्ण मंदिर में फौज के प्रवेश और सिख सुरक्षाकर्मियों द्वारा हमला कर इंदिरा गांधी की हत्या जैसे दुर्भाग्यपूर्ण पलों की साक्षी बनी। इंदिरा गांधी की प्रधानमंत्री के बतौर कितनी भी उपलब्धियां रहीं हों, लेकिन आपातकाल का फैसला कर लोकतंत्र का गला घोंट इंदिरा ने खुद को इतिहास पर्यंत कटघरे में खड़ा कर लिया। वाकई आपातकाल लोकतंत्र रूपी चांद पर काला भद्दा दाग था, है और रहेगा…।

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कौशल किशोर चतुर्वेदी

कौशल किशोर चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के जाने-माने पत्रकार हैं। इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में लंबा अनुभव है। फिलहाल भोपाल और इंदौर से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र एलएन स्टार में कार्यकारी संपादक हैं। इससे पहले एसीएन भारत न्यूज चैनल के स्टेट हेड रहे हैं।

इससे पहले स्वराज एक्सप्रेस (नेशनल चैनल) में विशेष संवाददाता, ईटीवी में संवाददाता,न्यूज 360 में पॉलिटिकल एडीटर, पत्रिका में राजनैतिक संवाददाता, दैनिक भास्कर में प्रशासनिक संवाददाता, दैनिक जागरण में संवाददाता, लोकमत समाचार में इंदौर ब्यूरो चीफ, एलएन स्टार में विशेष संवाददाता के बतौर कार्य कर चुके हैं। इनके अलावा भी नई दुनिया, नवभारत, चौथा संसार सहित विभिन्न समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन किया है।