फादर्स-डे विशेष:सिनेमा के परदे पर भी पापा की अहमियत कभी कम नहीं हुई!

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फादर्स-डे विशेष:सिनेमा के परदे पर भी पापा की अहमियत कभी कम नहीं हुई!

 

हिंदी फिल्म जगत में पारिवारिक और सामाजिक फिल्में सदा से बनती और पसंद की जाती रही हैं। ऐसे में पिता सहित परिवार के तमाम सदस्यों की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। बहुत सी फिल्मों में पुत्र को पिता की मौत का बदला लेते हुए दिखाया गया और कुछ फिल्में ऐसी भी बनीं जिनमें पिता पुत्र का रिश्ता एक नए रूप में सामने आया। इसलिए कि हमारे देश में रिश्तों को बहुत महत्व दिया जाता है। यह बात हमारी फिल्मों में भी झलकती है। ‘मुगल-ए-आजम’ में जहां अकबर और सलीम के रिश्तों की उहापोह दिखाई गई तो ‘रुस्तम सोहराब’ में भी लगभग वही मसाला था। वहीं फिल्म ‘क्रिश’ में एक पुत्र अपने वैज्ञानिक पिता और उसके अविष्कार को मानवता के खिलाफ उपयोग किए जाने से रोकता नजर आया।

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आम जनजीवन में हम रिश्तों से बंधे रहते हैं और जब पर्दे पर हम रिश्तों की खींचतान देखते हैं तो हमें वह खुद पर गुजरता महसूस होता है। यही वजह है कि राजेश खन्ना अभिनीत अवतार और अमिताभ बच्चन अभिनीत ‘बागबान’ की कहानी को कई पिता अपनी कहानी समझते हैं। पिता पुत्र के रिश्तों पर बनी कुछ फिल्मों में विवाहेत्तर संबंधों और उससे उत्पन्न संतान के रिश्तों का ताना बाना बुना गया। शबाना आजमी और नसीरुद्दीन शाह की मासूम और शाहरुख खान की ‘मैं हूं ना’ इसका उदाहरण हैं। ‘कभी खुशी कभी गम’ पिता के अहंकार की वजह से परिवार का बिखराव बताती है तो ‘आ अब लौट चलें’ में बेटा परदेस में बसे पिता को अपनी मां के पास वापस ले आता है। इनमें मसाला है पर सब कुछ आसपास घटता प्रतीत होता है।

हिंदी फिल्मों में पिता के साथ पुत्री के संबंधों के बजाय पुत्र के साथ संबंधों को अधिक महत्व दिया गया है। शायद इसका कारण हमारा पुरुष प्रधान समाज है। सुनील दत्त की ‘दर्द का रिश्ता’ और ‘शायद’ ऐसी ही कुछ गिनी चुनी फिल्मों में पिता पुत्री के रिश्ते दिखाए गए हैं। पिता पुत्र पर बनी कुछ फिल्मों की कहानी गले नहीं उतरी। लेकिन, फिल्में खूब चलीं। लावारिस, शक्ति, परवरिश, त्रिशूल आदि में उस दौर के एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन का जादू सर चढ़ कर बोलता था। लेकिन, फिल्मों में पिता पुत्र के रिश्तों में स्वाभाविकता नहीं नजर आई। अलबत्ता लगभग हर फिल्म में अमिताभ अपने बाप से नाराज ही दिखाई दिए। भरपूर मसाले के साथ भूतनाथ भी चल गई जिसमें पिता की आत्मा तक पुत्र से नफरत करती है।

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बाप-बेटे के बीच तनाव पर बनी फिल्में भी काफी हद तक सराही गई। राज कपूर की ‘आवारा’ इस विषय पर मील का पत्थर थी जिसमें उनके पिता की भूमिका वास्तविक जिन्दगी में उनके ही पिता पृथ्वीराज कपूर ने निभाई। बाद में इसे पलट कर उनके बेटे रणधीर ने ‘धरम करम’ बनाई जिसमें राज कपूर ने उनके पिता की भूमिका निभाई। ‘बॉबी’ में भी बाप और बेटे में प्यार को लेकर तकरार का मसाला भरा गया था। इसमें प्राण ने ऋषि कपूर के पिता की भूमिका राज कपूर के अंदाज में निभाई। प्राण ने ऐसी ही एक भूमिका शराबी में अमिताभ के बाप बनकर निभाई थी।

‘गांधी माई फादर’ में महात्मा गांधी का उनके बेटे हरिलाल के साथ तनावपूर्ण रिश्ता जहां बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है वहीं ‘काश’ फिल्म में बीमार बेटे और पिता का दर्द भरा रिश्ता विषम परिस्थितियों में भी संतान के लिए मोह बताता है। ‘कयामत से कयामत तक’ में पिता बेटे की प्यार में दीवानगी से परेशान होता है। वहीं ‘सूर्यवंशम’ में अनपढ़ बेटे को पिता अपनी संपत्ति से बेदखल कर देता है। जबकि, ‘काश’ में अपने बीमार बेटे के लिए एक पिता अपना करियर और बीबी सब कुछ छोड़ देता है। महमूद की ‘कुँवारा बाप’ भी बाप बेटे के रिश्तों पर आधारित एक सफल फिल्म थी जिसमें महमूद और उनके पोलियो पीड़ित बेटे ने अपनी निजी जिंदगी को पेश किया था। बाप-बेटे के रिश्ते पर बनी हॉलीवुड की सफलतम फिल्म ‘रॉकी-2’ पर हमारे यहां बॉक्सर और दारा सिंह की ‘रुस्तम’ बनी। ‘क्रेमर वर्सेस क्रेमर’ पर देवानंद ‘आनंद और आनंद’ जैसी फिल्में बना चुके हैं। जबकि, ‘बाप नम्बरी बेटा दस नम्बरी’ जैसी फिल्मों की चर्चा ही बेमानी है।

 

‘दंगल’ का पिता कुश्ती में नकार दिए जाने के बाद अपनी बेटियों को अपनी खोई प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए उनकी सेहत के लिए हानिकारक बन जाने के बावजूद आखिर एक सफल पिता होने का दायित्व निभाता है। फिल्मों के कथानक ने ही नहीं गानों ने भी पिता के रिश्ते को लोकप्रियता प्रदान की। बाबुल की दुआएं लेती जा, मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राज दुलारा और ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा’ ऐसे ही गीत हैं जो पिता की महिमा मंडित करते हैं। हिंदी फिल्मों की एक और खासियत हैं कि कालांतर में यहां कुछ कलाकार ऐसे हुए हैं जो पिता की भूमिका के लिए एकदम फिट बैठते थे। मनमोहन कृष्ण और नजीर हुसैन हमेशा टेसूएं बहाते हीरो-हीरोइन की माँ के फोटो के आगे बस एक ही डायलॉग मारते दिखाई देते थे आज तेरी माँ जिन्दा होती।

नाना पलसीकर बीमार और गरीब बाप से आगे नहीं बढ़ सके, तो बेटे या बेटी पर सख्ती दिखाने वाले अकडू बाप की भूमिकाएं केएन सिंह, कमल कपूर और राज मेहरा के लिए आरक्षित थी। मजाकिया बाप की भूमिकाओं में डेविड और ओमप्रकाश खूब रंग भरते थे। भले ही हिन्दी फिल्मों में पिता की भूमिका पर बनी फिल्में खूब बनी और चली। लेकिन, एक बात आज तक खलती है कि हिंदी सिनेमा ने एक अदद ‘मदर इंडिया’ तो जरूर दी, लेकिन फादर इंडिया आज तक नहीं दे पाया। अलबत्ता ‘मदर इंडिया’ के निर्माता निर्देशक महबूब खान ‘सन ऑफ इंडिया’ बनाकर अपनी लूटिया जरूर डूबा ली।