लँगड़े लोकतंत्र के तगड़े लोग

1846
JAY RAM SUKLA

हमारे मिर्चीबाबा, लुआठबाबा, लूंड़ाबाबा, घंटाबाबा जैसे बाबाओं, रकम-रकम की साध्वियों ने हम जैसे बेवकूफ नासमझों को यह अच्छे से बता दिया कि- हमारे बिना तुम्हारा लोकतंत्र लँगड़ा है। चुनाव के एवरेस्ट को चढना है तो हमें भजना पड़ेगा। तभी पंगु चढ पाएगा गिरिवर गहन। चढाई चढ़ने के लिए.. ये जो अतिरिक्त ऊर्जा लगती है वो हमारे आशीर्वाद से मिलेगी।

एक बार नेताजी से पूछा ..आप गुन्डों को संरक्षण क्यों देते हो, और वोट के लिये बाबाओं के चरणों में क्यों लोटते हैं? ये तो लोकतंत्र के साथ दगाबाजी हुई! नेताजी ने जवाब देने की बजाय उल्टे कहा.. जा के संविधान बनाने वालों से पूछो कि क्या ये गुन्डे या बाबालोग और उनके पीछे चलने वाले ढोरडंगर वोट नहीं होते? मैंने जवाब दिया कि बात ये नहीं ..बात ये है कि गुन्डों और धरम संप्रदाय चलाने वाले बाबालोगों का सपोर्ट लेकर आप क्या लोकतंत्र की सुचिता को दूषित नहीं करते। नेताजी बिफरे .ये सुचिता-फुचिता क्या होती है।

सौ की सीधी बात ये कि चुनाव जीतने के लिए वोट चाहिए.. और ये वोट धर्मात्मा ने दिया या अधर्मी ने,चोर ने दिया या साहु ने, ईमानदार ने दिया या बेईमान ने कोई मायने नहीं रखता। एक वोट से सरकार गिर जाती है, एक वोट से विधायिकी, सांसदी चली जाती है। हमें किसी पागल कुत्ते ने काटा है कि तुम्हारी इस सुचिता को ओढते बिछाते फिरू..। और फिर गुन्डा कौन…? तुम जैसे बुद्धिभक्षी तय करेंगे,  जिनके पास बूथ तक जाकर वोट डालने का वक्त नहीं..।

नेताजी फिर आध्यात्मिक अंदाज में बोले.. प्यारेलाल राजनीति से निरपेक्ष तुम जैसे बुद्धिभक्षी माफ करना बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी सजा यही है कि गुंडे मवाली ही तुमपर राज करें। अरे शुक्र करो। अभी तो हम जैसे कुछ लोग बचे हैं,जो जहाँ तहाँ से वोटों का जुगाड़ पानी करके राजनीति चला रहे हैं,उस दिन की कल्पना करो जब नमक में दाल मिली होगी, अभी तो ये सब दाल में नमक के बराबर है।

नेताजी की बातें दिमाग खोल देने वाली हैं। सही पूछें तो वो कहीं गलत नहीं हैं। हम देखते हैं कि समाज के कैनवास में स्याह रंग तेजी से चढता जा रहा है। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जार्ज फर्नांडिस की वह बहचर्चित फोटो स्मृति पटल पर उभर आई। जार्ज हथकड़ी लगे हाथ को उठाए समर्थकों का अभिवादन स्वीकार कर रहे थे। ये फोटो चुनाव में इतनी हिट हुई कि जार्ज 77 का चुनाव रेकार्ड मतों से जीते। जार्ज राजनीतिक बंदी थे। इंदिरा सरकार ने उनपर बडौदा डायनामाइट केस चलाया था। जार्ज अपराधी नहीं, दूसरी स्वतंत्रता के क्रांतिकारी थे।

लेकिन इस हथकड़ी ने चुनाव की राजनीति में एक नया कल्ट पैदा कर दिया। हथकड़ी लगी इस तस्वीर ने चुनाव में अपराध का ग्लोरीफिकेशन कर दिया। इसे हम अपने न्यायतंत्र की महत्ता कहें या बिडम्बना कि कोई भी तबतक अपराधी नहीं कहा जा सकता जब तक कि अदालत में यह साबित न हो जाए कि उसने अपराध किया है। ये सही बात भी है और संविधान सम्मत नैसर्गिक न्याय भी।

फर्ज करिए भरी भीड़ में कोई गुंडा कतल करता है वह भी हजारों आँखों के सामने पर आप उसे तबतक कतिल नहीं कह सकते जब तक कि अदालत में यह बात सिद्ध न हो जाए। इसका सबसे ज्यादा फायदा गैंगेस्टरों ने उठाया। राजनीति में आकर ये बाहुबली बन गए। यूपी बिहार के ऐसे कई बाहुबलियों ने जार्ज स्टाइल में हथकडी,आड़ाबेड़ी की तस्वीरों के साथ निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते।

मुझे याद है कि सतना से भी एक ऐसे ही उम्मीदवार उतरे थे जिनके चुनावी पोस्टर में सलाखें के पीछे हथकडी के साथ उम्मीदवार की फोटो थी। विधानसभा का  चुनाव तो वे हार गए पर चर्चा राष्ट्रव्यापी हुई। बाद में एक  राजनीतिक दल से चुनाव लड़े और दो पूर्व मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक छुट्टी करते हुए लोकसभा पहुंचे।

अटलजी ने बड़ी बेबाक बात कही थी जब एक वोट से उनकी सरकार गिरी थी। सरकार संख्याबल से चलती है..।  सच भी है बहुमत की संख्या यह नहीं देखती कि कौन हरिचंद्र है और कौन चांडाल। बहुमत की लालसा और येनकेनप्रकारेण चुनाव को अपने हक में करने के लिए वे सब हथकड़िए उम्मीदवार मेनस्ट्रीम की राजनीति में शामिल हो गए। राजनीति में अपराधीकरण का जो ये सिलसिला शुरू हुआ अबतक जारी है।

एडीआर नाम की संस्था हर चुनाव के बाद विधानसभा और लोकसभा में प्रवेश पाए अपराधियों की सूची जारी करती है। चुनाव आयोग भी ऐसे आँकडे़ जुटाता है। किस उम्मीदवार पर कौन सा जुर्म लगा है वह सार्वजनिक भी करता है। पर पब्लिक उन्ही में से किसी को चुनती है।

यानी कि धनबल और बाहुबल के बिना अपना लोकतंत्र लँगडा है। इसके लंगडे पाँव को और मजबूत करने के लिए राजनीतिक दल बाबाओं की शरण में जाने लगे हैं। राजनीति के चतुर खिलाड़ियों को मालूम है कि बाबाओं के पीछे ये ढोरडंगर के माफिक जो भीड़ है वह भी वोट है।

इस लिहाज से ये बाबालोग भी बड़ेकाम के हैं। इनके पाँव लगने में भला हर्ज ही क्या..सो बाबाओं की भी चटक गई कई विधानसभा तो कई लोकसभा पहुंच गए। कुलमिलाकर इतना घालमेल हो गया कि समाज के कैनवास में श्वेत श्याम रंग आपस में घुलकर धूसर हो गए। अब इन दो रंगों को कोई मसीहा, कोई पैगम्बर, कोई देवदूतइ अलगकर सकता है पर उसे राजनीति के कंटकाकीर्ण पथ से ही चलकर आना होगा।

Author profile
Jayram shukla
जयराम शुक्ल