Justice and Law: लैंगिक न्याय, कानून और न्यायालय

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Justice and Law: लैंगिक न्याय, कानून और न्यायालय

यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जिस सर्वोच्च न्यायालय पर महिलाओं को न्याय दिलाने की जवाबदारी है, वहीं न्यायाधीशों के मामले में महिलाओं के साथ न्याय नहीं हो पा रहा। देश की सर्वोच्च न्यायालय में कुल स्वीकृत शक्ति में से केवल तीन महिला न्यायाधीश हैं। इसीलिए यह कहा जाता है कि उच्च न्यायपालिका में स्वयं महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। इसमें भी सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस किया जा रहा है।

लैंगिक न्याय एक बुनियादी मानव अधिकार के रूप में महिलाओं को सम्मानजनक जीवन और स्वतंत्रता प्राप्त करने का प्रयास करता है। इसमें घर पर, कार्यस्थल पर और व्यापक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समुदायों में महिलाओं और पुरूषों के बीच शक्ति और जिम्मेदारी का बंटवारा शामिल है। लैंगिक न्याय विकास, गरीबी में कमी के लिए अपरिहार्य है और मानव प्रगति को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 भारतीय महिलाओं को समानता के अधिकार और यौन भेदभाव से मुक्ति की गारंटी देते हैं। महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन के लिए भारत भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक सहमतिदाता है। कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न को संबोधित करना सुप्रीम कोर्ट ने विशाखा और अन्य बनाम राजस्थान राज्य 1997 मामले में एक ऐतिहासिक फैसले में ‘विशाखा दिशा निर्देश’ दिए। इस फैसले ने कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम का आधार बनाया, 2013 (यौन उत्पीड़न अधिनियम) को जन्म दिया।

पंजाब का स्वैच्छिक स्वास्थ्य संघ बनाम भारत संघ, 2013 के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भधारण पूर्व और प्रसव पूर्व निदान तकनीक (लिंग चयन निषेध) अधिनियम, 1994 के प्रभावी कार्यान्वयन के लिए दिशा निर्देश जारी किए। शायरा बानो बनाम भारत संघ और अन्य प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय ने 3ः2 के बहुमत वाले फैसले में तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक करार दिया। लेकिन, न्यायिक हस्तक्षेप की अपनी सीमाएं है। न्यायालय के फैसलों में एक प्रकार का संवैधानिक नैतिकता और प्रथागत नैतिकता के बीच संघर्ष विद्यमान दिखाई देता है। अनिवार्यता का सिद्धांत अदालतों को एक धर्म की आवश्यक और गैर-आवश्यक प्रथाओं को निर्धारित करने की जिम्मेदारी लेने की अनुमति देता है। यह अक्सर धार्मिक विश्वासों और विश्वास के साथ टकराव पैदा करता है। विवादास्पद मुद्दों को संबोधित करने से न्यायिक अतिरेक भी हो सकता है। इसका एक उदाहरण राजेश शर्मा बनाम यूपी राज्य, 2017 में दिया गया फैसला है। इस प्रकरण में बाद में परिवार कल्याण समितियों के गठन के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय को अपने निर्देशों को संशोधित करना पड़ा था।

न्यायपालिका में भी यह असमानता दृष्टिगोचर होती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि जिस सर्वोच्च न्यायालय पर महिलाओं को न्याय दिलाने की जवाबदारी है वहीं न्यायाधीशों के मामले में महिलाओं के साथ न्याय नहीं हो पा रहा है। देश की सर्वोच्च अदालत की कुल स्वीकृत शक्ति में से केवल तीन महिला न्यायाधीश है। यह 8.8 प्रतिशत है। इसलिए यह कहा जाता है कि उच्च न्यायपालिका स्वयं में महिलाओं का उचित प्रतिनिधित्व नहीं है। इसमें सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को महसूस किया जाता है। परम्पराओं और विश्वासों में उन कठोरताओं को दूर करने की जरुरत है, जो जागरूकता और शिक्षा के माध्यम से ही सामाजिक स्तर पर प्राप्त की जा सकती है। भारत में लैंगिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शिक्षा की कमी, विकास की कमी, गरीबी, कानूनों के अनुचित प्रवर्तन, महिलाओं में जागरूकता की कमी, गहरी जड़ें जमाने वाली पितृसत्ता आदि की समस्याओं को दूर करने की तत्काल आवश्यकता है। सुकन्या समृद्धि योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओं के रूप में सरकारी हस्तक्षेप सही दिश में कदम हैं, जो देश की हर महिला को सम्मानजनक जीवन दे सकते है।

विश्व आर्थिक मंच के द्वारा जारी वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट अनुसार भारत 91/100 लिंगानुपात के साथ 112वें स्थान पर है। उल्लेखनीय है कि वार्षिक रूप से जारी होने वाली इस रिपोर्ट में भारत पिछले दो वर्षों से 108वें स्थान पर बना हुआ था। महिला और पुरुष समाज के मूल आधार है। समाज में लैंगिक असमानता सोच-समझकर बनाई गई एक खाई है, जिससे समानता के स्तर को प्राप्त करने का सफर बहुत मुश्किल हो जाता है। लैंगिक असमानता के विभिन्न क्षेत्रों की बात करें तो इसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र के साथ विधिक, वैज्ञानिक क्षेत्र, मनोरंजन क्षेत्र, चिकित्सा क्षेत्र और खेल क्षेत्र प्रमुख हैं। लैंगिक असमानता की इस खाई को दूर करने में हमें अभी मीलों चलना होगा।

हाल ही में सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधिपति एनवी रमन्ना ने कुछ समय पूर्व ही एक समारोह में कहा था कि न्यायपालिका में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त होना चाहिए। इसके अलावा देशभर के लाॅ काॅलेजों में भी महिलाओं को इतना ही आरक्षण मिलना चाहिए। ये महिलाओं का अधिकार है। भारत के संविधान लागू होने के बाद 26 जनवरी 1950 को देश के पहले मुख्य न्यायाधीश बने। उनके साथ कुल पांच जजों की नियुक्ति हुई थी। तब से अब तक सर्वोच्च न्यायालय में 256 जज नियुक्त हो चुके हैं। इनमें सिर्फ 11 महिला जज हैं। फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 33 है। इनमें केवल 4 महिलाएं न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी, न्यायमूर्ति बीवी नागरत्रा, न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी और न्यायमूर्ति हिमा कोहली सर्वोच्च न्यायालय में महिला जज हैं।

वैश्विक लैंगिक अंतराल रिपोर्ट, 2020 के अनुसार, महिला स्वास्थ्य एवं उत्तरजीविता तथा आर्थिक भागीदारी के मामले में भारत सूची में निम्न स्थान प्राप्त करने वाले पांच देशों में शामिल हैं। राजनीतिक सशक्तिकरण और भागीदारी में अन्य बिंदुओं की अपेक्षा भारत का प्रदर्शन (18वां स्थान) बेहतर रहा है। लेकिन भारतीय राजनीति में आज भी महिलाओं की सक्रिय भागीदारी बहुत ही कम है। आंकड़ों के अनुसार केवल 14 प्रतिशत महिलाएं ही संसद तक पहुंच पाती हैं जो विश्व में 122वां स्थान है। रिपोर्ट के अनुसार भारत के इस बेहतर प्रदर्शन का कारण यह है कि भारतीय राजनीति में पिछले 50 में से 20 वर्षों में अनेक महिलाएं राजनीतिक शीर्षस्थ पदों पर रही है।

महिलाएं दुनिया की कुल आबादी का करीब-करीब आधा हिस्सा हैं और इसी कारण से लैंगिक विभेद के व्यापक और दूरगामी असर होते हैं, जिनका समाज के हर स्तंभ पर असर दिखता है। समानता एक सुंदर और सुरक्षित समाज की वह नींव है जिस पर विकास रूपी इमारत बनाई जा सकती है। आखिर क्यों यह किसी भी समाज और राष्ट्र के लिये एक आवश्यक तत्व बन गया है! क्या बदलते समाज में यह प्रासंगिक है। लैंगिक समानता का सीधा सा अर्थ समाज में महिला तथा पुरुष के समान अधिकार, दायित्व तथा रोजगार के अवसरों के परिप्रेक्ष्य में है। इसी तथ्य के मद्देनजर सितंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की उच्च स्तरीय बैठक में एजेंडा 2030 के अंतर्गत 17 सतत विकास लक्ष्यों को रखा गया, जिसे भारत सहित 193 देशों ने स्वीकार किया। इन लक्ष्यों में सतत विकास लक्ष्य 5 के अंतर्गत लैंगिक समानता के विषय को भी शामिल किया गया है। स्पष्ट है कि हमारे समाज के विकास के लिए लैंगिक समानता अति आवश्यक है। महिला और पुरुष समाज के मूल आधार हैं। समाज में लैंगिक असमानता सोच-समझकर बनाई गई एक खाई है, जिससे समानता के स्तर को प्राप्त करने का सफर बहुत मुश्किल हो जाता है।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं