न्याय और कानून: कमजोर वर्ग और कानूनी सहायता के प्रावधान!

557

न्याय और कानून: कमजोर वर्ग और कानूनी सहायता के प्रावधान!

प्रत्येक अधिवक्ता को सरकार और अदालतों द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान कम से कम निस्वार्थ मामलों को लेने के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों के चयन का एक मापदंड भी बनाया जाना चाहिए। इसके लिए कानूनी सहायता को अभी भी भारत की नैदानिक कानूनी शिक्षा में शामिल किया जाना आवश्यक है। आजादी के साथ ही निर्धन और असहाय वर्ग के लिए कानूनी सहायता के प्रश्न पर निरंतर विचार मंथन चलता रहा। निर्धन वर्ग को मुफ्त और सुलभ कानूनी सहायता का विचार गहरा रहा था। इसी विचार ने समाज के वर्गों में गरीबों और वंचितों के लिए न्याय के मार्ग को प्रशस्त किया। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39 नीति निर्माताओं के इसी रुख की पुष्टि करता है। इसमें मुफ्त कानूनी सहायता शब्द का उल्लेख किया गया है। इसमें यह कहा गया है कि आर्थिक अथवा अन्य अक्षमता के कारण किसी भी नागरिक को न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित नहीं किया जा सकेगा। देश में कानूनी सहायता कार्यक्रमों के प्रबंधन और निगरानी के लिए सन् 1980 में एक राष्ट्रव्यापी समिति की स्थापना की गई। इस समिति का नेतृत्व न्यायमूर्ति पीएन भगवती ने किया जो उस समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थे।

संविधान में अनुच्छेद 39 क को शामिल किये जाने के कुछ वर्षों बाद सन् 1979 में हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य के चर्चित मामले में उच्चतम न्यायालय ने कानूनी सहायता और अनुच्छेद 39 क पर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मुफ्त कानूनी सेवा न्यायोचित, निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रक्रिया का अपरिहार्य अंग हैं। इसके बगैर आर्थिक या अन्य कठिनाइयों से पीड़ित कोई व्यक्ति न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित हो सकता है। इसलिए मुफ्त कानूनी सेवाओं का अधिकार किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के लिए प्राकृतिक न्याय के अंतर्गत न्यायिक प्रक्रिया का एक अनिवार्य घटक है। इसलिए इसे अनुच्छेद 21 के अंतर्गत दिए गए अधिकार में यह अवश्य सम्मिलित किया जाना चाहिए। इस प्रकरण के माध्यम से न्यायमूर्ति भगवती ने मुफ्त कानूनी सेवाओं के अधिकार को अनुच्छेद 21 का अनिवार्य अंग बना दिया। यह अनुच्छेद जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्रदान करता है। न्यायमूर्ति भगवती ने न्यायिक व्याख्या के माध्यम से राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांत को मौलिक अधिकार के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह एक महत्वपूर्ण फैसला था जिससे गरीब और दबे कुचले और असहाय लोगों को मुफ्त कानूनी सेवा उपलब्ध करवाने के मार्ग में बहुत मदद मिली। अंत में संसद द्वारा एक अलग कानून बनाया गया। इससे कानूनी सहायता कार्यक्रमों को एक वैधानिक आधार प्राप्त हुआ। यह कानून कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के रूप में पारित किया गया। यह कानून सन् 1995 से प्रभावी हुआ था।

इस अधिनियम का उद्देश्य कानूनी सेवा प्राधिकरणों के गठन है, जो समाज के कमजोर और असहाय वर्गों को मुफ्त और सक्षम कानूनी सेवाएं प्रदान करते हैं। साथ ही समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा देने वाली लोक अदालतों का आयोजन भी करते हैं। इस अधिनियम में कानूनी सहायता को नियंत्रित करने के लिए इसमें कानूनी सेवा, लोक अदालत, राज्य सरकार जैसे विभिन्न शब्दों को स्पष्ट और संक्षिप्त रूप से परिभाषित किया गया है। इस अधिनियम की धारा 2 (सी) स्पष्ट रूप से कानूनी सेवा को परिभाषित करती है। इसमें सभी प्रकार के कानूनी मुकदमे और किसी अदालत और संबंधित निकायों के समक्ष मामले को पेश करने के अवसर शामिल है।

इस अधिनियम में कानूनी सेवा योजनाएं जैसे मुफ्त कानूनी सहायता, कानूनी सलाह और जागरूकता योजनाएं भी धारा 2 (जी) के तहत परिभाषित की गई है। इसके अलावा अधिनियम अध्याय छः लोक अदालतों की शुरुआत और संरचना के लिए निर्धारित करता है। लोक अदालत एक ऐसी अदालत है जहां अदालत में या पूर्व-मुकदमेबाजी के स्तर पर लंबित विवादों/मामलों का सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटारा किया जाता है। लोक अदालतों में सेवारत/सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारियों के साथ-साथ राज्य/जिला प्राधिकरण या सर्वोच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति या उच्च न्यायालय कानूनी सेवा समिति द्वारा निर्दिष्ट क्षेत्र के अन्य व्यक्ति शामिल होते हैं।

अधिनियम का सबसे महत्वपूर्ण प्रावधानों में से एक धारा 12 है। यह धारा कानूनी सेवाएं देने के लिए मापदंड निर्धारित करती है। प्रत्येक व्यक्ति जिसे कोई मामला दायर करना या बचाव करना है, इस अधिनियम के तहत कानूनी सेवाओं का हकदार होगा। इस वर्ग में अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाति समुदाय का व्यक्ति, निर्धन व्यक्ति जिसकी वार्षिक आय उच्चतम न्यायालय में मामलों के लिए पचास हजार रुपए है और अन्य न्यायालयों में आय का स्तर राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा जो राज्यवार अलग-अलग होता है। इसमें वह व्यक्ति भी शामिल है जो मानवों के अवैध व्यापार से पीड़ित हैं अथवा भिक्षुक, महिला अथवा बच्चा है। व्यापक विनाष, जातीय दंगा, जातीय प्रताड़ना, बाढ़ सूखे, भूकम्प से प्रभावित व्यक्ति औद्योगिक कर्मकार भी इसमें सम्मिलित है। साथ ही सुरक्षात्मक अभिरक्षा सहित सभी प्रकार की अभिरक्षा में रखे व्यक्ति जैसे बाल अपराध, गृह तथा मानसिक अस्पताल में रखे गए व्यक्ति आदि। इसका अर्थ है कि हिरासत में रखा गया व्यक्ति चाहे वह अंडरट्रायल हो या दोषसिद्ध, वह निशुल्क कानूनी सहायता का हकदार है।

हर साल नौ नवंबर को कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रारंभ होने के उपलक्ष्य में कानूनी सेवा दिवस मनाया जाता है। अधिनियम के साथ राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (नालसा) को कानूनी सहायता के लिए सर्वोच्च निकाय के रूप में स्थापित किया गया। इस विचार को सन् 1987 में कानूनी सेवा प्राधिकरण अधिनियम के पारित होने और 1995 में नालसा की स्थापना के बाद इसे एक औपचारिक आधार दिया गया था। तब से यह उन लोगों के लिए आशा का प्रतीक बन गया है जिनके पास इसकी कमी है। लेकिन जैसा कि सरकारी सहायता में होता है, यह उतना आसान भी नहीं है। इंडिया जस्टिस रिपोर्ट, 2019 के अनुसार भारत के 130 करोड़ लोगों में से 80 प्रतिशत से अधिक लोग कानूनी सहायता के लिए पात्र हैं। हालांकि, 1995 के बाद से केवल डेढ़ करोड़ लोग ही इससे लाभान्वित हुए हैं। आवेदन प्राप्त होने के बाद एक वकील का चयन करने में सप्ताह या महीने और सहायता देने में भी लग सकते हैं।

नेशनल लाॅ यूनिवर्सिटी दिल्ली की रिपोर्ट में एक और चिंताजनक बात सामने आई है। यह रिपोर्ट प्रदान की गई कानूनी सहायता सेवाओं की गुणवत्ता पर भरोसा और भरोसे की कमी का संकेत देती है। उक्त रिपोर्ट के आंकड़े 18 राज्यों और 36 जिलों से एकत्र किए गए थे। प्राथमिक आंकड़ों 3,029 कानूनी सहायता लाभार्थियों, 609 न्यायिक अधिकारियों, 1,007 सूचीबद्ध कानूनी सहायता अधिवक्ताओं, 33 नियामकों/सचिवों और 3120 महिलाओं से एकत्र किए गए थे। सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि प्राप्तकर्ता मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं का चयन करते हैं क्योंकि उनके पास निजी वकील को नियुक्त करने के लिए धन की कमी होती है। इसके अतिरिक्त 22.6 प्रतिशत लाभार्थियों ने कहा कि वे दुसरी बार मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं का चयन नहीं करेंगे। सर्वेक्षण के अनुसार 60 प्रतिशत महिलाएं जो मुफ्त कानूनी सहायता सेवाओं के बारे में जानती थीं। उन्होंने निजी वकील का विकल्प चुना क्योंकि उनका अपने कानूनी सलाहकार पर अधिक विश्वास था। लगभग 75 प्रतिशत प्राप्तकर्ताओं ने कहा कि उन्होंने मुफ्त कानूनी सहायता को चुना क्योंकि उनके पास भुगतान किए गए निजी वकील को नियुक्त करने के लिए धन और संसाधनों की कमी थी। यदि उनके पास निजी वकीलों को नियुक्त करने का साधन होता, तो वे कानूनी सहायता सेवाओं के लिए कभी संपर्क नहीं करते।

प्रत्येक अधिवक्ता को सरकार और अदालतों द्वारा अपने कार्यकाल के दौरान कम से कम निस्वार्थ मामलों को लेने के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए। इसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों के चयन का एक मापदंड भी बनाया जाना चाहिए। इसके लिए कानूनी सहायता को अभी भी भारत की नैदानिक कानूनी शिक्षा में शामिल किया जाना आवश्यक है। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के अनुसार कानून स्कूलों में कानूनी सहायता केंद्र जनता के बीच कानूनी साक्षरता बढ़ाने और संबंधित सहायता प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह कई देषों में यह एक अच्छी तरह से स्थापित प्रथा है। उदाहरण के लिए अमेरिका में एक अध्ययन से पता चला है कि विश्वविद्यालय द्वारा संचालित कानूनी क्लीनिक प्रति वर्ष औसतन 104 मामलों को संभालते हैं। कानूनी सहायता के लिए लाॅ स्कूलों की भागीदारी में वृद्धि भी आवश्यक है।

यह भी आवश्यक है कि नालसा को आवंटित बजट के साथ-साथ प्रति व्यक्ति खर्च में वृद्धि भी की जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त कंपनियों के लिए भी यह प्रावधान किया जा सकता है कि वे कानूनी सहायता के लिए और सेवा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए पैनल वकीलों के मुआवजे को बढ़ाने के लिए अपनी काॅर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) निधियों को खर्च करें। आर्थिक संसाधन बढ़ाने पर ही कानूनी सहायता संस्कृति को पुनर्जीवित करने की दिषा में किया जा रहा प्रयास सार्थक हो सकेगा। भारत के नागरिकों का एक बढ़ा प्रतिशत अशिक्षित है। वह न तो कानूनी प्रक्रिया से वाकिफ है और न ही उसकी प्रणालियों से परीचित है। आम जनता अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग नहीं है। भारत में कई ऐसे लोग हैं जो कानूनी मदद इसलिए नहीं ले पाते हैं क्योंकि वे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं। ऐसे लोग अपने प्रकरणों में पसंद के वकील का चुनाव नहीं कर पाते हैं। वकीलों की फीस इतनी मोटी होती है कि वे उनकी सेवाएं नहीं ले पाते हैं। भारत में कानूनी सहायता प्रणाली अपेक्षाकृत अप्रभावी साबित हुई जिसके कई कारण हैं।

गत कुछ वर्षों में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण की फंड में पांच गुना की वृद्धि हुई है। केंद्रीय बजट के अनुसार जो राशि प्राधिकरण को दी जाती है उसमें विधि अधिकारियों, कानूनी सलाहकारों एवं परामर्शदाताओं और गरीबों (राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के माध्यम से) का हिस्सा होता है। लेकिन प्राधिकरण के सचिवालय एवं इसके प्रशासन और प्रबंधन पर कितना व्यय होता है, इसका आंकड़ा नहीं उपलब्ध नहीं है। यह एक चिंता का विषय है जिसका समुचित समाधान खोजना ही होगा, अन्यथा यह विगत अनुभवों के अनुसार कमजोर वर्ग को दी जाने वाली सहायता के रास्ते में एक बाधा बनकर सदैव खड़ा रहेगा।