Jyotiraditya vs Yadvendra: गुना में जातीय समीकरणों में उलझा ज्योतिरादित्य-यादवेंद्र के बीच मुकाबला

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Jyotiraditya vs Yadvendra: गुना में जातीय समीकरणों में उलझा ज्योतिरादित्य-यादवेंद्र के बीच मुकाबला

* दिनेश निगम ‘त्यागी’ की ग्राउंड रिपोर्ट

केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के कारण हाई प्रोफाइल गुना-शिवपुरी लोकसभा सीट में कड़ा मुकाबला देखने को मिल सकता है। चुनाव पर इसलिए भी सबकी नजर है क्योंकि महल घराने के सिंधिया 2019 में लगभग सवा लाख वोटों के अंतर से चुनाव हार गए थे। तब वे कांग्रेस में थे, अब भाजपा प्रत्याशी हैं। पिछली बार उन्हें उनके ही सहयोगी रहे केपी सिंह यादव ने भाजपा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़कर हराया था। इस बार कांग्रेस ने क्षेत्र के ही चर्चित यादव परिवार के सदस्य राव यादवेंद्र सिंह को मैदान में उतारा है। ज्योतिरादित्य और यादवेंद्र की लड़ाई को क्षेत्र के जातीय समीकरणों ने उलझा दिया है। इसकी वजह से सिंधिया की राह ज्यादा आसान नहीं है।

सिंधिया को उनकी ही शैली में जवाब की कोशिश
– प्रदेश की गुना-शिवपुरी लोकसभा सीट में कांग्रेस ने भाजपा के ज्योतिरादित्य सिंधिया को उनकी ही शैली में जवाब देने की कोशिश की है। 2019 के चुनाव में वे कांग्रेस से भाजपा में गए और अपने ही सहयोगी केपी सिंह यादव से चुनाव हार गए थे। इस बार सिंधिया भाजपा में हैं और पार्टी ने केपी का टिकट काटकर उन्हें ही टिकट दे दिया है। कांग्रेस ने भी नहले पर दहला जड़ते हुए क्षेत्र में भाजपा के कद्दावर नेता रहे स्व राव देशराज सिंह यादव के बेटे राव यादवेंद्र सिंह को मैदान में उतार दिया है। क्षेत्र में यादव मतदाताओं की तादाद ज्यादा है। केपी सिंह यादव का टिकट काटे जाने के कारण उनमें नाराजगी भी है। क्षेत्रीय समीकरणों के कारण जाटव, गुर्जर और लोधी मतदाताओं का भी भाजपा खासकर सिंधिया से मोह भंग हुआ है। क्षेत्र में सबसे ज्यादा मौजूद ये समाज यदि नहीं सधे तो सिंधिया मुश्किल में आ सकते हैं। हालांकि चुनाव में पलड़ा उनका ही भारी दिख रहा है।

 इसलिए फंसा दिखता है गुना का चुनाव
– गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र में हमेशा महल घराने अर्थात सिंधिया परिवार का दबदबा रहा है। अपवाद के तौर पर पिछला चुनाव छोड़ दें तो इस परिवार का कोई सदस्य यहां से चुनाव नहीं हारा। लेकिन 2019 का चुनाव हारने के बाद सिंधिया लंबे समय तक क्षेत्र के लोगों से गुस्सा दिखाई पड़े। विधानसभा चुनाव में भी उनके समर्थक उस तादाद में नहीं जीते, जैसी जीत कांग्रेस में रहकर 2018 में मिली थी। इसकी वजह से काफी समय तक ये क्षेत्र उपेक्षित रहा। अब भाजपा ने अपने उस सांसद केपी सिंह यादव का  टिकट काट दिया जिसने पहली बार सिंधिया परिवार के सदस्य को हराने का कीर्तिमान रचा था। ऐसे में भले मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव हैं लेकिन यादव समाज कांग्रेस के राव यादवेंद्र सिंह यादव के पाले में जा सकता है। अन्य जातियों में लोधी समाज पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की उपेक्षा के कारण नाराज तो है ही, इनका यादव समाज के साथ अघोषित समझौता जैसा हुआ है। पिछौर में यादव समाज ने प्रीतम लोधी को वोट देकर जिताया है, अब लोकसभा चुनाव में लोधी समाज की अहसान चुकाने की बारी है। गुर्जर और जाटव समाज अब एकतरफा नहीं,बंटा नजर आ रहा है। इससे गुना सीट का चुनाव फंसा दिखता है।

गुना- शिवपुरी में सभी तरह के मुद्दों का असर
– जहां तक चुनावी मुद्दों का सवाल है तो गुना-शिवपुरी संसदीय क्षेत्र में सभी तरह के मुद्दों का असर है। लोग राष्ट्रीय मुद्दों और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लहर से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। ज्योतिरादित्य की हार के बाद यह क्षेत्र उपेक्षित जैसा रहा। प्रदेश की सरकार ने भी खास ध्यान नहीं दिया। इसकी वजह से लोगों में नाराजगी दिखती है। चंबल-ग्वालियर अंचल का होने से यहां जातीय राजनीति का असर है। यह चुनाव को प्रभावित करेंगे। सिंधिया परिवार ने क्षेत्र के लिए विकास के काफी काम किए हैं। इनका असर भी चुनाव में देखने को मिल रहा है।

 विधानसभा सीटों के लिहाज से भाजपा भारी
– गुना लोकसभा सीट के तहत तीन जिलों गुना, अशोक नगर और शिवपुरी की विधानसभा सीटें आती हैं। इनमें गुना जिले की बमोरी, गुना, शिवपुरी जिले की पिछोर, कोलारस, शिवपुरी और अशोक नगर जिले की मुंगावली, चंदेरी और अशोक नगर विधानसभा सीटें शामिल हैं। विधानसभा चुनाव नतीजों की दृष्टि से पूरे लोकसभा क्षेत्र में भाजपा भारी दिखती है। भाजपा के पास 6 सीटें हैं तो कांग्रेस के पास सिर्फ दो। भाजपा ने 6 सीटें कुल 2 लाख 9 हजार 529 वोटों के अंतर से जीती हैं जबकि कांग्रेस की जीत का अंतर महज 23 हजार 169 रहा है। इस तरह भाजपा 1 लाख 86 हजार 360 वोटों की बढ़त पर है। कांग्रेस के लिए इसे कवर कर आगे पहुंचना बेहद कठिन है। पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में बढ़त ली थी लेकिन लोकसभा में ज्योतिरादित्य चुनाव हार गए थे। इसलिए मतदाताओं के मूड को पढ़ना आसान नहीं है।

 तीन जिलों को मिला कर बनी गुना लोकसभा सीट
– गुना लोकसभा सीट का भौगोलिक क्षेत्र तीन जिलों में फैला है। इसके तहत आने वाली 8 विधानसभा सीटें तीन जिलों गुना, अशोक नगर और शिवपुरी के अंतर्गत आती हैं। इस सीट के राजनीतिक मिजाज की बात करें तो यहां सिंधिया परिवार का ही दबदबा रहा है। 1998 तक इस सीट से राजमाता विजयाराजे सिंधिया भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ती और जीतती रहीं। इसके बाद उनके बेटे माधवराव सिंधिया ग्वालियर छोड़कर गुना से चुनाव लड़ने आ गए तो यह सीट कांग्रेसी हो गई। 1998 का लोकसभा चुनाव यहां से माधवराव सिंधिया जीते। इसके बाद उनका निधन हो गया तो उनकी राजनीतिक विरासत ज्योतिरादित्य ने संभाली। कांग्रेस के टिकट पर उन्होंने 2004, 2009 और 2014 का लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता। 2019 में पहली बार उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। उन्हें उनके ही सहयोगी केपी सिंह यादव ने भाजपा में जाकर चुनाव हरा दिया। इसके बाद ज्योतिरादित्य भाजपा में आ गए और यह चुनाव भाजपा के  टिकट पर लड़ रहे हैं।

 यादव, जाटव, लोधी, गुर्जर समाज निर्णायक
– गुना लोकसभा क्षेत्र में चार जातियों यादव, लोधी, जाटव और गुर्जर समाज का दबदबा है। क्षेत्र में जाटव समाज के मतदाता लगभग तीन लाख और यादव समाज ढाई लाख के आसपास बताया जाता है। इसके बाद लोधी और गुर्जर मतदाताओं की तादाद है। ये भी लगभग डेढ़-डेढ़ लाख है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन सभी जातियों के मतदाता एकजुट हो गए थे। इसकी वजह से ज्योतिरादत्य सिंधिया 1 लाख 25 हजार 549 वोटों के अंतर से चुनाव हार गए थे। इस बार भी ये मतदाता किसी का भी खेल बिगाड़ने का माद्दा रखते हैं। यादवों की ज्यादा तादाद में कांग्रेस के पक्ष में जाना तय है जबकि गुर्जर और जाटव मतदाता का ज्यादा हिस्सा भाजपा के पक्ष में जा सकता है। इनके अलावा क्षेत्र में वैश्य, ब्राह्मण और क्षत्रिय सहित अन्य समाज भी हैं। इनके प्रभाव में अन्य मतदाता भी रहते हैं। ये भी चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।