कानून और न्याय: चुनावी बॉन्ड तथा इनकी कानूनी वैधता का सवाल!

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कानून और न्याय: चुनावी बॉन्ड तथा इनकी कानूनी वैधता का सवाल!

 

इन दिनों भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की एक संविधान पीठ द्वारा ‘एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफार्म’ द्वारा दायर एक याचिका में इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड या चुनावी बाॅन्ड योजना की कानूनी वैधता से जुड़े मामले की सुनवाई की जा रही है। इस मामले में चुनावी बांड योजना का मार्ग प्रशस्त करने वाले वित्त अधिनियम 2017 द्वारा पेश किए संशोधनों को चुनौती देने वाली याचिकाओं का समूह शामिल है। उक्त याचिकाएं 2017 में दायर की गई थीं। याचिकाकर्ताओं ने आग्रह किया है कि इस मामले की सुनवाई आगामी आम चुनावों से पहले की जाए। वित्त अधिनियम 2017 ने इलेक्ट्रोरल बॉण्ड के लिए रास्ता बनाने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, कंपनी अधिनियम, आयकर अधिनियम, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम में संशोधन पेश किए थे।

जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29 सी में किए गए 2017 के संशोधन के आधार पर दानकर्ता भुगतान के इलेक्ट्रॉनिक तरीकों का उपयोग करके और केवाईसी आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद निर्दिष्ट बैंकों और शाखाओं में चुनावी बॉन्ड खरीद सकता है। हालांकि, राजनीतिक दलों को भारत के चुनाव आयोग को इन बाॅन्डों के स्त्रोत का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं है। बाॅन्ड को विभिन्न राशि के गुणकों में किसी भी मूल्य पर खरीदा जा सकता है। बाॅन्ड में दानकर्ता का नाम नहीं होगा। बॉन्ड जारी होने की तारीख से 15 दिनों के लिए वैध होगा। इस अवधि के भीतर भुगतानकर्ता राजनीतिक दल को इसे भुनाना होगा। आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 13ए के तहत आयकर से छूट के उद्देश्य से बाॅन्ड के अंकित मूल्य को एक पात्र राजनीतिक दल द्वारा प्राप्त स्वैच्छिक गोपनीय योगदान के माध्यम से आय के रूप में माना जाएगा। ये याचिका राजनीतिक दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और गैर सरकारी संगठन काॅमन काॅज और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा दायर की गई हैं।

उनके द्वारा इस योजना को एक अस्पष्ट फंडिंग सिस्टम, जो किसी भी प्राधिकरण द्वारा अनियंत्रित है, उसके रूप में चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ताओं ने यह आशंका व्यक्त की कि कंपनी अधिनियम 2013 में संशोधन से नीतिगत विचारों में राज्य के लोगों की जरूरतों और अधिकारों पर निजी काॅर्पोरेट हितों को प्राथमिकता मिलेगी। मार्च 2019 में भारत के चुनाव आयोग ने हलफनामा दायर किया था। इस हलफनामा में कहा गया था कि गुमनाम इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड योजना प्रतिगामी कदम है। क्योंकि, इसका राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। लेकिन फिर भी सन् 2021 में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ राज्यों में विधानसभा चुनावों से पहले इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड जारी करने पर रोक लगाने से इंकार कर दिया था।

इस मामले पर सुनवाई शुरू होने से एक दिन पहले 30 अक्टूबर को भारत के अटाॅर्नी जनरल आर.वेंकटरमणी ने इस योजना का समर्थन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय से कहा कि ये योजना राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदों में साफ धन के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है। साथ ही अटाॅर्नी जनरल ने शीर्ष अदालत के सामने तर्क दिया कि नागरिकों को उचित प्रतिबंधों के अधीन हुए बिना कुछ भी और सब कुछ जानने का सामान्य अधिकार नहीं हो सकता है। इस बात का सन्दर्भ उस तर्क से जुड़ा हुआ है, जिसके तहत ये मांग की जा रही है कि राजनीतिक पार्टियों को ये जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए कि उन्हें कितना धन चंदे के रूप में किस से मिला है। इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड योजना की गुमनामी एक नागरिक के जानने के अधिकार का उल्लंघन करती है। इस अधिकार को सर्वोच्च न्यायालय के पिछले फैसलों ने संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू माना है। सर्वोच्च न्यायालय के सामने उठाई गई एक चिंता यह भी है कि एफसीआरए में संषोधन किया गया है ताकि भारत में सहायक कंपनियों के साथ विदेषी कंपनियों को भारतीय राजनीतिक दलों को फंड देने की अनुमति दी जा सके।

चुनाव निगरानी संस्था एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिफाॅम्र्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2016-17 और 2021-22 के बीच पांच वर्षों में कुल सात राष्ट्रीय दलों और 24 क्षेत्रीय दलों को चुनावी बाॅन्ड से कुल 9,188 करोड़ रूपए मिले। इस 9,188 करोड़ रूपये में से अकेले भारतीय जनता पार्टी की हिस्सेदारी लगभग 5272 करोड़ रूपये थी। यानी कुल इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड के जरिए दिए गए चंदे का करीब 58 फीसदी बीजेपी को मिला। इसी अवधि में कांग्रेस को इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड से करीब 952 करोड़ रूपये मिले, जबकि तृणमूल कांग्रेस को 767 करोड़ रूपये मिले। एडीआर की रिपोर्ट मुताबिक वित्त वर्ष 2017-18 और वित्त वर्ष 2021-22 के बीच राष्ट्रीय पार्टियों को इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड के जरिये मिलने वाले चंदे में 743% की बढ़ोतरी हुई। वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि में राष्ट्रीय पार्टियों को मिलने वाला काॅर्पोरेट चंदा केवल 48% फीसदी बढ़ा। एडीआर ने अपने विश्लेषण में पाया कि इन पांच सालों में से वर्ष 2019-20 (जो लोकसभा चुनाव का वर्ष था) में सबसे ज्यादा 3,439 करोड़ रूपये का चंदा इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड के जरिये आया। इसी तरह वर्ष 2021-22 में (जिसमें 11 विधानसभा चुनाव हुए) राजनीतिक पार्टियों को इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड के जरिये करीब 2,664 करोड़ रूपये का चंदा मिला।

साल 2019 में सर्वोच्च न्यायालय के सामने दायर एक हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा था कि इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता को खत्म कर देंगे और इनका इस्तेमाल भारतीय राजनीति को प्रभावित करने के लिए विदेषी काॅर्पोरेट शक्तियों को आमंत्रण देने जैसा होगा। चुनाव आयोग ने यह भी कहा था कि कई प्रमुख कानूनों में किए गए संशोधनों की वजह से ऐसी शेल कंपनियों के खुल जाने की संभावना बढ़ जाएगी, जिन्हें सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने के इकलौते मकसद से बनाया जाएगा। इस याचिका के मुताबिक, भारतीय रिजर्व बैंक ने बार-बार चेतावनी दी थी कि इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड का इस्तेमाल काले धन के प्रसार, मनी लाॅन्ड्रिंग और सीमा पार जालसाजी को बढ़ाने के लिए हो सकता है। इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड को एक अपारदर्शी वित्तीय उपकरण कहते हुए रिजर्व बैंक ने कहा था कि चूंकि ये बाॅन्ड मुद्रा की तरह कई बार हाथ बदलते हैं, इसलिए उनकी गुमनामी का फायदा मनी-लाॅन्ड्रिंग के लिए किया जा सकता है।

सरकार का कहना है कि इलेक्ट्रोरल बाॅन्ड राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा देते हैं। सरकार के मुताबिक ये योजना पारदर्शी है और इसके जरिए काले धन की अदला-बदली नहीं होती। केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को कई मौकों पर बताया है कि धन प्राप्त करने का तरीका बिल्कुल पारदर्शी है और इसके जरिये किसी भी काले या बेहिसाब धन को हासिल करना संभव नहीं है। यह कहते हुए कि यह योजना स्वच्छ धन के योगदान और टैक्स दायित्वों के पालन को बढ़ावा देती है, अटाॅर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने कहा है कि इस मसले को सार्वजनिक और संसदीय बहस के दायरे में छोड़ दिया जाना चाहिए।

राजनीतिक दल उनको इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए मिले चंदे का हिसाब चुनाव आयोग को दे रहे हैं। यह हिसाब-किताब आयोग सर्वोच्च न्यायालय को सौंपेगा। संविधान पीठ ने दो नवंबर को हुई सुनवाई के दौरान यह हिसाब मांगा था। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद राजनीतिक दल खुद को चंदे के रूप में मिले इलेक्ट्रोरल बॉण्ड का हिसाब देने लगे हैं। चुनाव आयोग 19 नवंबर तक सभी पार्टियों से मिली जानकारी सीलबंद लिफाफे में कोर्ट को सौंपेगा। बीजेपी और कांग्रेस ने भी अपना ताजा हिसाब जमा कर दिया है। सीपीआई (एम) का कहना है कि हमें कोई बाॅन्ड नहीं मिला है। हमने ही सर्वोच्च न्यायालय में इस स्कीम को भेदभाव पूर्ण बताते हुए चुनौती दी है। अतः सीपीआई (एम) द्वारा इस बारे में कोई हिसाब प्रस्तुत नहीं किया गया है। दिलचस्प यह देखना होगा कि आने वाले चुनाव से पहले इस मामले पर अगर उच्चतम न्यायालय द्वारा अगर फैसला आ जाता है तो उक्त फैसले का 2024 के आम चुनाव पर क्या असर होगा।