कानून और न्याय:आखिर ‘समान नागरिक संहिता’ पर इतना विवाद क्यों उठा!

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कानून और न्याय:आखिर ‘समान नागरिक संहिता’ पर इतना विवाद क्यों उठा!

 

समान नागरिक संहिता (यूसीसी) विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है। अब नियमावली बनने के बाद इसे राज्य में लागू कर दिया जाएगा। चूंकि यह संविधान की समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए बिल अनुमोदन के लिए राज्यपाल से राष्ट्रपति को भेजा गया था। उत्तराखंड विधानसभा से समान नागरिक संहिता बिल पास होने के बाद इसे राजभवन भेजा गया था। इस पर राष्ट्रपति भवन को फैसला लेना था। अब राष्ट्रपति से मुहर लगने के बाद समान नागरिक संहिता राज्य में कानून लागू हो जाएगा।

पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार के साथ-साथ कुछ राज्यों ने समान नागरिक संहिता के कार्यान्वयन की दिशा में कुछ प्रयास किए हैं। हाल ही में, उत्तराखंड समान नागरिक संहिता को लागू करने वाला स्वतंत्र भारत का पहला राज्य बन गया है। इस विधेयक में उत्तराखंड के सभी निवासियों (अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर) के लिए उनके धर्म या आस्था की परवाह किए बिना विवाह, तलाक, संपत्ति की की विरासत और लिव-इन संबंधों पर सामान्य नियमों का प्रस्ताव है। उत्तराखंड का यह विधान संविधान के अनुच्छेद 44 (राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत) से उपजा है, जो राज्य को भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करने का निर्देश देता है।

एक समान नागरिक संहिता विवाह, विरासत, तलाक, गोद लेने आदि जैसे व्यक्तिगत मामलों के लिए एक सामान्य कानून को संदर्भित करता है, जो सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होता है। इसका उद्देश्य विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों को बदलना है जो वर्तमान में विभिन्न धार्मिक समुदायों के भीतर व्यक्तिगत मामलों को नियंत्रित करते हैं। साथ ही विभिन्न धर्मों और समुदायों पर आधारित असमान कानूनी प्रणालियों को समाप्त करके सामाजिक सद्भाव, लैंगिक समानता और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देना है। इस तरह की संहिता न केवल समुदायों के बीच बल्कि एक समुदाय के भीतर भी कानूनों की एकरूपता सुनिष्चित करने का प्रयास करती है।

विधेयक की धारा-2 में कहा गया कि इस संहिता में निहित कुछ भी भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के साथ पठित अनुच्छेद 366 के खंड (25) के अर्थ के भीतर किसी भी अनुसूचित जनजाति के सदस्यों और उन व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूह पर लागू नहीं होगा जिनके प्रथागत अधिकार भारत के संविधान के भाग 21 के तहत संरक्षित हैं। विधेयक समारोह के साठ दिनों के भीतर विवाह के पंजीकरण को अनिवार्य करता है। यह प्रावधान उत्तराखंड के सभी निवासियों पर लागू होता है, चाहे वे राज्य के भीतर या बाहर शादी कर रहे हों। विवाहों का पंजीकरण न होने से यह अमान्य नहीं होगा, लेकिन संबंधित पक्षों को दस हजार की राशि के जुर्माने का सामना करना पड़ सकता है। जानबूझकर गलत जानकारी देने पर पच्चीस हजार की राषि का जुर्माना और तीन महीने की जेल की सजा होगी। साथ ही अदालत के आदेष के बिना किसी भी विवाह को भंग नहीं किया जा सकता है अन्यथा इसमें तीन साल तक की जेल हो सकती है।

राज्य के अधिकार क्षेत्र के भीतर किसी भी लिव-इन रिलेशनशिप को अनिवार्य रूप से पंजीकृत करना होगा, भले ही संबंधित पुरूष और महिला उत्तराखंड के निवासी हों अथवा नहीं। अपने लिव-इन पार्टनर द्वारा छोड़ी गई महिलाएं सक्षम अदालत के माध्यम से भरण-पोषण का दावा कर सकती है। ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों को वैध माना जाएगा। यह विधेयक एलजीबीटीक्यूआई समुदाय के सदस्यों को इसके दायरे से बाहर करता है और केवल विषमलैंगिक संबंधों पर लागू होता है।

विधेयक की धारा-4 में कहा गया है कि नई शादी के किसी भी पक्ष के पास शादी के समय दूसरा जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिए। इस प्रकार, यह द्विविवाह या बहुविवाह को प्रतिबंधित करता है। इस विधेयक ने अवैध बच्चों की अवधारणा को समाप्त कर दिया है। नया कानून अमान्य विवाहों के साथ-साथ लिव-इन संबंधों से पैदा हुए बच्चों को कानूनी मान्यता प्रदान करता है। इस विधेयक ने मुस्लिम समुदाय में प्रचलित कुछ विवाह प्रथाओं पर प्रतिबंध लगा दिया है, जैसे कि निकाह-हलाला और तीन तलाक, उनके नाम का उल्लेख किए बिना। उदाहरण के लिए, विधेयक की धारा 30 (1) के अनुसार, व्यक्ति अब बिना किसी पूर्व शर्त के अपने तलाकशुदा जीवनसाथी से पुनर्विवाह करने के हकदार हैं, जिससे निकाह-हलाला की प्रथा समाप्त हो जाती है।

तलाक के संबंध में पुरूषों और महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं। तलाक के आधारों में व्यभिचार, क्रूरता, त्याग, दूसरे धर्म में परिवर्तन, मानसिक विकार आदि शामिल हैं। यह विवाह के अपरिवर्तनीय टूटने को मान्यता नहीं देता है, जो एक ऐसी स्थिति को संदर्भित करता है जहां पति-पत्नी के बीच संबंध इस हद तक बिगड़ गए हैं कि इसे ठीक या बहाल नहीं किया जा सकता है। महिलाओं को केवल दो परिस्थितियों में विधेयक के तहत तलाक लेने का विषेष अधिकार यदि पति को बलात्कार या किसी प्रकार के अप्राकृतिक यौन अपराध का दोषी पाया गया है। यदि पति की एक से अधिक पत्नियां हैं, तलाक के मामले में, पांच साल की उम्र तक के बच्चे की कस्टडी मां के पास रहती है।

आलोचकों को डर है कि विधेयक अल्पसंख्यक समुदायों को असमान रूप से प्रभावित कर सकता है। इनकी पारंपरिक प्रथाओं और सांस्कृतिक पहचान की अवहेलना की जा सकती है। यह अद्वितीय रीति-रिवाजों और धार्मिक स्वतंत्रता के संरक्षण के बारे में चिंता पैदा कर सकता है। संवैधानिक चुनौतियां कुछ कानूनी विषेषज्ञों का तर्क है कि विधेयक कुछ संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है, विषेष रूप से धार्मिक स्वतंत्रता और कानून के समक्ष समानता से संबंधित। इससे कानूनी चुनौतियां और कार्यान्वयन में देरी हो सकती है। सामाजिक तनाव विधेयक को लागू करने से विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक तनाव बढ़ सकता है। खासकर अगर अल्पसंख्यक अधिकारों के बारे में चिंताओं को पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया जा सकता है।

समाज के कुछ वर्गों ने उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक के बारे में निम्नलिखित चिंताएं जताई हैं। निजता के अधिकार का उल्लंघन लिव-इन संबंधों के अनिवार्य पंजीकरण के प्रावधान निजता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत गरिमा के साथ जीने के अधिकार का उल्लंघन कर सकते हैं। समलैंगिक अधिकार-समान नागरिक संहिता से समलैंगिक संबंधों का बहिष्कार समलैंगिक अधिकारों और कानून के तहत समानता के बारे में चिंताओं को उजागर करता है। विषेश रूप से लिव-इन संबंधों को एक पुरूष और एक महिला के बीच होने के रूप में परिभाषित करके, समान नागरिक संहिता, समलैंगिक व्यक्तियों और संबंधों के खिलाफ भेदभाव को कायम रख सकता है।

कुछ आलोचकों का तर्क है कि विधेयक कुछ संवैधानिक अधिकारों, विशेष रूप से धार्मिक स्वतंत्रता और कानून के समक्ष समानता का उल्लंघन कर सकता है। इन चिंताओं से भविष्य में कानूनी चुनौतियां पैदा हो सकती है। आगे की बातचीत और परामर्श धार्मिक समुदायों, कानूनी विषेषज्ञों और नागरिक समाज संगठनों सहित सभी हितधारकों के साथ परामर्श, विधेयक के संबंध में चिंताओं को समझने और हल करने में मदद कर सकता है। उत्तराखंड समान नागरिक संहिता की सफलता व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता को बढ़ावा देने और अपने बहुलवादी समाज की विविध सांस्कृतिक और धार्मिक पहचानों का सम्मान करने के बीच संतुलन बनाने की इसकी क्षमता पर निर्भर करेगी। निगरानी और मूल्यांकन जैसे-जैसे समान नागरिक संहिता को लागू किया जाता है, इसके कार्यान्वयन की निगरानी करने और समाज पर इसके प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए एक तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। इससे आवश्यक समायोजन करने और इसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया को सुगम बनाने में मदद मिलेगी। यह प्रतीत होता है कि राजनीतिक नेताओं को विधेयक के कार्यान्वयन से जुड़ी जटिलताओं और चुनौतियों से निपटने के लिए नेतृत्व और मजबूत इच्छाशक्ति आवश्यक है।

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विनय झैलावत

लेखक : पूर्व असिस्टेंट सॉलिसिटर जनरल एवं इंदौर हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता हैं