Memoirs: कहानी वजन 120 से 81 किलो करने की!

अशोक बरोनिया के कुछ खट्टे मीठे अनुभव

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Memoirs: कहानी वजन 120 से 81 किलो करने की!

मैं जैसा अब हूँ, हमेशा से ऐसा नहीं था। 1992 में वन मुख्यालय, भोपाल पदस्थ हुआ तब उम्र 37  साल ही थी। लेकिन मेरे अधिकांश बाल सफेद हो चुके थे। एक तो अनाकर्षक चेहरा ऊपर से सफेद बाल साथ ही बढ़ता गंजापन। वास्तविक उम्र से काफी बड़ा दिखता था। हद तब हो गई जब मेरे सीसीएफ ने एक दिन बातों ही बातों में कहा कि “बरोनिया कब रिटायर हो रहे हो?”

 

सीसीएफ की बात सुनकर पहली बार मुझे अह्सास हुआ कि मैं समय से पहले बूढ़ा होता जा रहा हूँ। उस दिन घर लौटकर पत्नी को ध्यान से देखा और फिर अपने को आइने में, तो लगा कि हमारी उम्र में 20-25 वर्ष का अंतर छलकने लगा है। कहां वह खूबसूरत युवती और कहां मैं बुढ़ापे की ओर तेजी से बढ़ता शख्स। तब मैंने पहली बार तय किया कि अपने आपको बदलूंगा।

 

पहली बार अगले दिन बाल काले कर आफिस गया तो बड़ी शर्म महसूस होती रही। कुछ लोग तो मुंह फेरकर मुझपर हंसे भी। लेकिन मन मजबूत कर चुका था तो ऐसे लोगों को नजरअंदाज कर दिया।

 

बाल काले होने से, पहले की तुलना में कम उम्र का जरूर दिखने लगा लेकिन मैं खाने-पीने का शौकीन था तो वजन बढ़ता रहा। पैदल घूमना फिरना तो सर्विस में आने के बाद ही बंद कर चुका था। तो शरीर भी बेडौल होता गया। एक समय वजन 115 किलोग्राम तक पहुंच गया। बाल काले होने के बाद भी मेरी अनाकर्षकता बढ़ती जा रही थी। ऐसे में ही मुझे सांस लेने की भी तकलीफ होने लगी थी। थोड़ा चलता तो हांफने लगता। मुंबई अस्पताल जाना हुआ तो अपने को चेक करवाया। पता चला कि ब्रोंकाइटिस अस्थमा है। एक तो ढेरों विभिन्न आयटम खाना बंद करना पड़ा, ऊपर से महंगी दवाएं खाना शुरू करना पड़ा।

 

इन विकट स्थितियों के दौरान मैंने एक शासकीय चिकित्सक से अनुरोध किया कि मुझे मुंबई अस्पताल वाली दवाएं लिख दिया करें। चिकित्सक भी तैयार हो गया हो गया। घर पर दिखाता फीस देता तो खुशी-खुशी वे मेरी मुंबई अस्पताल वाली दवाएं लिख देते। लेकिन जब एक दिन उन्हें अस्पताल में दिखाया तो उन्होंने मुंबई अस्पताल वाली दवाएं लिखने से मना कर दिया क्योंकि अस्पताल में वे मुझसे फीस नहीं ले सकते थे।

 

अक्टूबर 1996 का माह था जब मैंने पैदल चलना शुरू किया। पहले दिन 100 मीटर ही पैदल चल पाया। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। रोज सबेरे उठता और इनहेलर जेब में रखकर पैदल घूमने निकल जाता। एक साल की कड़ी मशक्कत के बाद मेरी रोजाना 10 किलोमीटर पैदल चलने की आदत बन गई। इसी के साथ साथ वजन भी कम होता गया।

 

जनवरी 1998 में कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए आवेदन कर दिया। यह भी मैं पूर्व में अपने एक आलेख में लिख चुका हूँ। शरीर तो स्वस्थ होता जा रहा था लेकिन मन अभी भी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं था। कैलाश मानसरोवर यात्रा की तैयारी के दौरान मेरा आध्यात्म की ओर छुकाव हुआ। अब सबेरे घूमने जाता तो रास्ते भर मंथन करता कि आज आफिस में क्या काम करने हैं और शाम को घूमते समय सोचा करता कि दिनभर में कितना काम किया। इससे मेरा मन पूरी तरह से स्वस्थ रहने लगा। सेवानिवृत्ति के बाद भी सबेरे पैदल घूमते समय सोचता हूँ कि आज क्या लिखना है। फिर शाम को घूमते समय सोचता हूँ कि सबेरे वाला संकल्प पूरा किया या नहीं?

 

खैर, कैलाश मानसरोवर यात्रा के बाद मुझमें और अधिक सुधार आया। बाल काले करना, अच्छे से अच्छे कपड़े पहनना, शारीरिक श्रम करना, पैदल चलने के रूप में, शासकीय काम में पूरी तरह से रम जाना, ये सब क्रियाकलाप मेरी दिनचर्या में जुड़ते गए। मेरे अच्छे होते शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ने मेरी अनेक कमियों को ढक सा लिया। साथ ही मैंने नियमित रूप से जिम जाना भी शुरू किया। अब भी अनाकर्षक था लेकिन इस अनाकर्षकता की हीन भावना से अपने आपको उभार चुका था।

इस तरह सतत प्रयास और तीव्र इच्छाशक्ति के चलते मैं अपने आपमें, अपनी दिनचर्या में सकारात्मक बदलाव कर सका।

आज मैं लगभग सभी व्याधियों से मुक्त हूँ, दवाओं का सेवन न्यूनतम है, सभी चीजें जो कभी मेरे लिए प्रतिबंधित थीं अब आराम से खा पी लेता हूँ। वजन जो एक समय 120 किलोग्राम तक हो चुका था अब 81 किलोग्राम है। अपने अस्थमा, बीपी तथा यूरिक एसिड पर इस तरह केवल अपनी नियमित दिनचर्या के कारण नियंत्रण कर सका हूँ। कम खाना, अच्छा पढ़ना, अच्छा लिखना और खूब पैदल चलना, बस यही मेरे स्वस्थ रहने के आधार स्तंभ हैं। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ और स्वयं मानता भी हूँ कि जब उठो तभी सबेरा।