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महिलाओं द्वारा अंगदान – त्याग या विवशता
संवेदनशील एवं प्रबुद्ध नागरिकों के लिए यह जानकारी चौंकाने वाली हो सकती है कि भारत में महिलाओं की जीवन रक्षक प्रत्यारोपण के लिए होने वाले अंगदान में भागीदारी 80% होती है। पुरुषों द्वारा इसका केवल एक चौथाई अर्थात् 20% अंगदान ही किया जाता है। विडंबना यह है कि अपने प्राण बचाने के लिए अंग प्राप्त करने वाले लोगों में 80% पुरुष होते है। इन आंकड़ों से आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जन्म से लेकर मृत्यु तक हर बात में महिलाओं के साथ भेदभाव और अत्याचार होता रहता है। यह अत्याचार समाज के लिए प्राचीन काल से ही एक सामान्य और स्वाभाविक बात रही है और समाज इस पर कोई विशेष महत्व नहीं देता रहा है।
आधुनिक मेडिकल क्रांति के प्रसार के कारण अनेक बीमारियों के लिए अंगदान प्रारंभ हुआ है। अंगदान की इस आधुनिक प्रक्रिया में भी भारतीय समाज की पुरातन पुरुषवादी सोच की मलिनता सम्मिलित हो गयी है। किडनी सहित कुछ अन्य अंगों के लिए पत्नी द्वारा अंगदान करना लगभग अनिवार्य हैं। इसमें उसकी सहमति मान कर चला जाता है। आवश्यकता पड़ने पर माता अथवा बेटी द्वारा भी अंगदान के प्रकरण अस्पताल में दिखाई पड़ते हैं। परिवार के पुरुष को अंग की आवश्यकता होने पर महिलाओं पर अंगदान करने के लिए मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दबाव भी बनाया जाता है। परन्तु महिलाओं को आवश्यकता पड़ने पर परिवार के पुरुषों द्वारा अंगदान करने में आनाकानी की जाती है और वे बाहर से इसकी व्यवस्था करने का प्रयास करते हैं। अनेक ज़रूरतमंद महिलाओं को तो भगवान भरोसे छोड़ दिया जाता है।
अभी हाल में मध्य प्रदेश में एक प्रकरण सामने आया है, जिसमें एक महिला अपने भाई को अंगदान करना चाहती थी। आश्चर्यजनक रूप से बिना कोई क़ानून होते हुए भी अस्पताल द्वारा उस महिला से उसके पति की लिखित सहमति प्रस्तुत करने के लिए कहा गया। पति ने सहमति देने से इंकार कर दिया। अस्पतालों में जहाँ शायद ही किसी अन्य क़ानूनों का पालन होता हो, वहाँ अस्पताल द्वारा कोई क़ानून न होते हुए भी पति की सहमति प्राप्त करने की इतनी हठधर्मिता करना केवल पुरुषवादी सोच का परिणाम है। परिवार की महिलाओं को अंगदान करने के लिये विवश किया जाता है परन्तु वह स्वयं अपनी इच्छा से किसी अन्य को अंगदान नहीं कर सकती है। जो महिला अपने भाई के लिये अंगदान करना चाहती थी उसके साहस की सराहना करनी होगी कि वह मध्य प्रदेश हाईकोर्ट में मामला लेकर गई। हाईकोर्ट ने उस अस्पताल को फटकार लगायी और तब जाकर वह महिला अपने भाई को अंगदान कर सकी।
अंगदान करना एक उच्च मानवीय कृत्य है। परन्तु महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध अंगदान करने के लिए विवश करना उचित नहीं है। साथ ही उसकी किसी अन्य को अंगदान करने पर रोक लगाने की कार्रवाई भी उचित नहीं है।
परिवार के पुरुषों को भी अंगदान करने के लिए आगे आना चाहिए। महिलाओं की तुलना में पुरुष भय के कारण परेशानियों से दूर रहना चाहते हैं और इसी लिए पुरुष के लिये परिवार नियोजन जैसे ऑपरेशन आसान है, परंतु वह महिलाओं के लिए अपेक्षाकृत कठिन परिवार नियोजन ऑपरेशन के लिए पत्नी को विवश करता है। सामाजिक और पारिवारिक सोच में सार्थक परिवर्तन लाया जाना आवश्यक है।
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एन. के. त्रिपाठी
एन के त्रिपाठी आई पी एस सेवा के मप्र काडर के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। उन्होंने प्रदेश मे फ़ील्ड और मुख्यालय दोनों स्थानों मे महत्वपूर्ण पदों पर सफलतापूर्वक कार्य किया। प्रदेश मे उनकी अन्तिम पदस्थापना परिवहन आयुक्त के रूप मे थी और उसके पश्चात वे प्रतिनियुक्ति पर केंद्र मे गये। वहाँ पर वे स्पेशल डीजी, सी आर पी एफ और डीजीपी, एन सी आर बी के पद पर रहे।
वर्तमान मे वे मालवांचल विश्वविद्यालय, इंदौर के कुलपति हैं। वे अभी अनेक गतिविधियों से जुड़े हुए है जिनमें खेल, साहित्यएवं एन जी ओ आदि है। पठन पाठन और देशा टन में उनकी विशेष रुचि है।