Jhuth Bole Kauva Kaate: आतंकी-अपराधी का कैसा Human Rights

Jhuth Bole Kauva Kaate: आतंकी-अपराधी का कैसा Human Rights

भारत के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (स्व.) जनरल बिपिन रावत का यह कहना कि ‘आतंकी की हत्‍या मानवाधिकार उल्‍लंघन कैसे हो सकता है?’ या, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मानना कि मानवाधिकार आम इंसानों के होते हैं, अपराधियों और आतंकियों के नहीं; निश्चय ही इस बारे में भी मानवाधिकारों की सही-गलत पुरजोर पैरवी करने वालों को सोचना होगा। ये लोग आज दिनभर, हमेशा की तरह देश-दुनिया में मानवाधिकारों पर बड़ी-बड़ी बातें करेंगे। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस जो है।

Jhuth Bole Kauva Kaate: आतंकी-अपराधी का कैसा Human Rights

संयुक्त राष्ट्र ने 1950 में दस दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस घोषित किया था जिसका उद्देश्य विश्वभर के लोगों को मानवाधिकारों के महत्व के प्रति जागरूक करना और इसके पालन के प्रति सजग रहने का संदेश देना है। ये हर मनुष्य का वो मौलिक अधिकार है जिसके बिना वह अधूरा है, जैसे जिंदगी, स्वतंत्रता, समानता, शिक्षा, रोजगार इत्यादि।

भारत में 28 सितम्बर 1993 को मानवाधिकार कानून लागू किया गया और 12 अक्टूबर 1993 को सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) का गठन किया। आयोग मानवाधिकारों के हनन से जुड़े मामलों पर संज्ञान लेता है, इसकी जांच करता है तथा पीड़ितों के लिए मुआवजे की सिफारिश करता है। इसके साथ ही आयोग मानवाधिकारों का उल्लंघन करने वाले लोक सेवकों के खिलाफ कानूनी उपाय भी करता है।

भारत के संविधान में भी मानव अधिकारों को पर्याप्त मान्यता देते हुए मानवाधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र को प्रत्याभूत किया गया और राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अन्तर्गत लोक कल्याणकारी राज्य के निर्माण के दृष्टिकोण से तथा मौलिक अधिकारों के रूप में प्रतिष्ठापूर्ण और गरिमामय माहौल में जीवन जीने का अधिकार प्रदान करने की गारंटी दी गई।

Jhuth Bole Kauva Kaate: आतंकी-अपराधी का कैसा Human Rights

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों एनएचआरसी के स्थापना दिवस समारोह को संबोधित करते हुए कहा, ‘मानवाधिकार का बहुत ज्यादा हनन तब होता है, जब उसे राजनीतिक रंग से देखा जाता है, राजनीतिक चश्मे से देखा जाता है, राजनीतिक नफा-नुकसान के तराजू से तौला जाता है’ और ‘इस तरह का सलेक्टिव व्यवहार लोकतंत्र के लिए भी उतना ही नुकसानदायक होता है।

’ आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि हाल के वर्षों में कुछ लोग मानवाधिकारों की व्याख्या अपने-अपने तरीके से, अपने-अपने हितों को देखकर करने लगे हैं। एक ही प्रकार की किसी घटना में कुछ लोगों को मानवाधिकार का
हनन दिखता है और वैसी ही किसी दूसरी घटना में उन्हीं लोगों को मानवाधिकार का हनन नहीं दिखता।

Jhuth Bole Kauva Kaate: आतंकी-अपराधी का कैसा Human Rights

आयोग के अध्यक्ष रिटायर्ड जस्टिस अरुण कुमार मिश्रा ने भी इस अवसर पर कहा कि ‘मानवाधिकारों के संरक्षक’ व्यक्ति और स्वयंसेवी संस्थाएं मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले ही उठाते रह गए और उन्होंने राजनीतिक हिंसा व आतंकवाद की कड़ी निंदा नहीं की या करने को लेकर उदासीन रह गए, तो इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा।

अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया द्वारा बीजिंग ओलंपिक गेम्स का डिप्लोमेटिक बहिष्कार करने के ताजा फैसलों से इस बात को समझना आसान है। ये बहिष्कार चीन में मानवाधिकारों के हनन को लेकर किया गया है। माना जा रहा है कि, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बाद कई और देश भी बीजिंग ओलंपिक का डिप्लोमेटिक बहिष्कार सकते हैं।

बताया जाता है कि ये कदम अल्पसंख्यक उइगर मुस्लिमों पर अत्याचार रोकने के लिए चीन पर दबाव बढ़ाने के लिए उठाया गया कदम है। इसके उलट, पिछले कई दशकों से चीन उइगर मुसलमानों पर आतंकवाद और अलगाववाद के आरोप लगाता रहा है।

इन आरोपों की आंड़ में चीन उनका शारीरिक उत्‍पीड़न, जबरन नजरबंदी, जांच, निगरानी कर रहा है। इतना ही नहीं, चीन ने इस समुदाय के ज्‍यादातर लोगों को गुलाम बना रखा है या नजरबंद कर रखा है। खबर तो ये भी है कि चीन में कैद उइगर मुसलमानों के जबरन किडनी और लिवर निकालकर बेचे जा रहे हैं। इस कालाबाजारी से चीन 75 अरब रुपए सालाना कमा रहा है।

एनएचआरसी के अनुसार, उसने एक दिसंबर 2020 से इस साल 30 नवंबर तक मानवाधिकार उल्लंघन के 1,02,441 मामले दर्ज किए। इसमें थाना-पुलिस, प्रशासन और सेना-सुरक्षा बलों की कथित/वास्तविक संलिप्तता से लेकर घरेलू हिंसा तक शामिल है।

यह सच्चाई है कि पुलिस आरोपी को गिरफ्तार करके थाने में कड़ी पूछताछ के नाम पर अक्सर प्रताड़ित करती है। कई बार पुलिस अभिरक्षा मे आरोपी की मौत तक हो जाती है, जो कि मानवाधिकारों का सरेआम उल्लंघन है। गृह मंत्रालय द्वारा बुधवार को राज्यसभा को उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन वित्तीय वर्षों में इस 31 अक्टूबर तक एनएचआरसी द्वारा हर साल दर्ज कराए गए मानवाधिकार उल्लंघन के लगभग 40% मामले उत्तर प्रदेश के थे।

बोले तो, शांति व्यवस्था कायम रखना व लोगों की सुरक्षा पुलिस का दायित्व है। भारत में जवानों की संख्या पर्याप्त नहीं है, जरूरी प्रशिक्षण भी नहीं है और उनके हथियार भी दोयम दर्जे के हैं। वे 24 घंटे डूयूटी देते हैं। पुलिस कभी-कभी ज्यादती करती है, लेकिन उसमें भी पुलिस की मजबूरी होती है, क्योंकि कोई भी अपराधी पकड़े जाने के बाद अपना अपराध आसानी से नहीं कबूलता है।

पुलिस के ऊपर एक तरफ अपराध नियंत्रण का दबाव रहता है तो दूसरी तरफ मानवाधिकारों का उल्लंघन न हो, यह भी देखना होता है। ऐसे में कुछ पथभ्रष्ट पुलिसकर्मी भी होते हैं जिनके दुराचरण से विभाग की
बदनामी होती है। नेता पुलिस ऑपरेशन में दखलंदाजी कर अकसर उन्हें जटिल बना देते हैं। मामलों की स्वतंत्र जांच के अभाव में अपराधी छूट जाते हैं। काम करने की खराब स्थितियों और अपराधियों के छूट जाने से पुलिसिया ढांचे में शॉर्टकट अपनाने का प्रचलन बढ़ा है।

झूठ बोले कौआ काटे

नवंबर, 2007 में फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरी में हुए धमाकों में 15 लोगों की जान गई थी और इससे दोगुने लोग घायल हुए थे। उसी वर्ष मई में गोरखपुर में भी बम धमाके हुए थे और दिसंबर में रामपुर के सीआरपीएफ कैंप पर भी हमला हुआ था, जिसमें सात जवानों की जान गई थी।

ये सब भीषण आतंकी घटनाएं थीं। इन आतंकी घटनाओं को लेकर कुछ लोग गिरफ्तार भी किए गए थे, लेकिन जब 2012 में अखिलेश सत्ता में आए तो उन्होंने इन संदिग्ध आतंकियों के मुकदमे वापस लेने की पहल की। पहले स्थानीय अदालतों ने उनकी इस पहल पर पानी फेरा, फिर हाईकोर्ट
ने।

बोले तो, इस खतरनाक पहल के बारे में पहले से अंदेशा था, क्योंकि सपा ने अपने घोषणापत्र में कहा था कि आतंकवाद के आरोप में जेल में बंद ‘निर्दोष’ लोगों पर चल रहे मुकदमे वापस लिए जाएंगे। पता नहीं सपा को कैसे पता चला कि जिन तत्वों को आतंकी घटनाओं के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया वे निर्दोष हैं?

जैसे भी पता चला हो, यह गनीमत रही कि अदालतों ने सजगता दिखाई, अन्यथा कथित निर्दोष आतंकी छूट जाते। अखिलेश यादव बतौर मुख्यमंत्री जिन आतंकियों के मुकदमे वापस लेना चाहते थे, उनमें से अनेक को बाद में उम्रकैद से लेकर फांसी तक की सजा हुई।

तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में युवा महिला पशु चिकित्सक के वीभत्स बलात्कार के बाद निर्ममतापूर्ण हत्या करने वाले सभी चारों अपराधियों को पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मार गिराया गया। यही अंजाम, कानपुर के बिकरू कांड में 8 पुलिसवालों की हत्या के मुख्य अभियुक्त विकास दुबे का भी हुआ। मानवाधिकार के अलमबरदारों ने खूब हाय-तौबा भी की। लेकिन ऐसे लोग भूल जाते हैं कि जिनको इन अपराधियों ने मार डाला या आबरु लूट ली, उनका/उनके परिवार का भी तो मानवाधिकार बनता है।

योगी सरकार की क्राइम के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति के कारण उप्र में ‘ऑपरेशन लंगड़ा’ ने इस बीच खूब सुर्खियां बटोरी हैं। ज़्यादातर मामलों में पुलिस की गोली अपराधी के पैरों में लग रही है अर्थात्, ज़िंदा तो रहेगा लेकिन अपाहिज की तरह। उप्र पुलिस का दावा है कि मार्च 2017 से लेकर अगस्त 2021 तक राज्य भर में कुल 8559 एनकाउंटर हुए हैं जिनमें 3349 अपराधियों को गोली मारकर घायल किया गया। इन मुठभेड़ों में 146 लोगों की मौत भी हुई जबकि इस दौरान 13 पुलिसकर्मी भी मारे गए। क़रीब 12 सौ पुलिसकर्मी घायल भी हुए।

झूठ बोले कौआ काटे, न्यायिक व्यवस्था के जरिये ही न्याय होना चाहिए। आरोपितों को खुद को निर्दोष साबित करने का पर्याप्त मौका भी मिलना चाहिए। क्योंकि, हमारी न्याय व्यवस्था ऐसा ही कहती है। फास्ट ट्रैक कोर्ट, कठोर कानून, सख्त सजा जैसी बातें तो बरसों से लोगबाग सुन रहे हैं।

कई तथाकथित एक्टिविस्ट आतंकियों/अपराधियों के मानवाधिकार की बात करने लगते हैं, उनको फांसी की सजा व उनके एनकाउंटर का विरोध करने लगते हैं। जब सामने से सुरक्षाबलों/पुलिस पर अंधाधुंध गोलियां चल रहीं हों तो ऐसे में जवान आखिर क्या करें? मानवाधिकार के बारे में सोचकर शहीद हो जाएं या फिर ऐसे आतंकवादियों/अपराधियों को खत्म करके देश की जनता की सुरक्षा करें? और जब कई मासूमों की हत्या करने वाले या उसका षड़यंत्र करने वाले आतंकवादी/अपराधी न्यायालय में पेश किये जाएं तो जज उनको फांसी की सजा न दें तो क्या उनका सम्मान समारोह करें?

Jhuth Bole Kauva Kaate: आतंकी-अपराधी का कैसा Human Rights

सीएम योगी आदित्यनाथ का मानना है कि कुछ लोग मानवाधिकार उल्लंघन के नाम पर गलत लोगों को संरक्षण देते हैं। जो लोग खुद मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं, वो मानवाधिकारों की बात करते हैं। योगी साफगोई से कहते हैं कि अपराधी या तो जेल में होंगे या फिर यमराज के पास।

पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने तो संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने भाषण में कहा था कि सबसे पहले तो हम सबको ये स्वीकारना होगा कि आतंकवाद मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन है, क्योंकि वो
निर्दोष लोगों को निशाना बनाता है, बेगुनाहों को मारता है, वो किसी व्यक्ति या देश का ही नहीं मानवता का अपराधी है।‘

बोले तो, मानवाधिकार की वकालत करने वाले तो यह कहेंगे ही कि मुल्जिमों से लेकर मुजरिमों तक, सभी के मानवाधिकार हैं। लेकिन क्या कोई यह भी बताएगा कि मानवाधिकार मानवों के लिए बनाये गए हैं या हैवानों के लिए? क्या जो लड़कियां जिंदा जला दी गईं, उनके कोई मानवाधिकार नहीं थे?

जिन्हें रौंद दिया गया, कुचल दिया गया, जिंदा शरीर में से अंग खींचकर बाहर फेंक दिए गए, हवस का शिकार बनाया गया, उनके मानवाधिकार नहीं थे? शाहीन बाग जैसे धरने हों, या किसान आंदोलन; रोड ब्लॉक होने से जनता के मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ क्या?

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झूठ बोले कौआ काटे, सीडीएस जनरल बिपिन रावत आतंकियों के लिए मानवाधिकार की पैरवी करने वालों के सख़्त खिलाफ थे। टाइम्‍स नाउ के एक कार्यक्रम में जनरल रावत ने कहा था, “अभी तक यह होता रहा कि बड़ी संख्‍या में लोकल्‍स आतंकियों को जानते हैं, वे कहां से ऑपरेट करते हैं, ये जानते हैं। सिर्फ बंदूक के डर से वे सूचनाएं नहीं देते थे। लेकिन अब वे अलग सोच के साथ आगे आ रहे हैं कि या तो हम उनकी (आतंकियों की) हत्‍या कर देंगे या ऐसा इंतजाम करेंगे कि वे मारे जाएं।”

उन्‍होंने कहा था कि “अब यह आतंकियों के लिए संदेश है या यह खुफिया एजेंसियों का कोई दांव है, पता नहीं मगर ऐसा है तो मैं कहूंगा कि बड़ा अच्‍छा दांव है। आपको आतंकियों के मन में डर बैठाना होगा कि इससे पहले आप हमारी हत्‍या करो, हम आपकी हत्‍या कर देंगे।” उन्होंने साफ कहा था कि आतंकी की हत्‍या मानवाधिकार उल्‍लंघन कैसे हो सकता है? अगर आपके इलाके में कोई आतंकी ऑपरेट कर रहा है तो आप उसकी हत्‍या क्‍यों नहीं करेंगे? सैल्यूट जनरल बिपिन रावत! देश आपको कभी नहीं भूलेगा।