Silver Screen :सिनेमा में ‘पानी’ कोई मुद्दा नहीं, जिस पर फिल्म बने! 

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Silver Screen :सिनेमा में ‘पानी’ कोई मुद्दा नहीं, जिस पर फिल्म बने! 

सिनेमा किसी भी मुद्दे को प्रभावी ढंग से लोगों तक अपनी बात पहुंचाने का सबसे सशक्त माध्यम है। लोग इसे परदे पर देखकर उससे सीधे जुड़ते हैं और इसका सीधा असर उनके जहन पर पड़ता है। देखा जाए तो सामाजिक मुद्दों को लेकर बॉलीवुड शुरू से ही सजग रहा है। फिल्मों के शुरुआती काल से 80 के दशक तक सामाजिक मुद्दों पर कई गंभीर फिल्में बनी। राज कपूर, ख्वाजा अहमद अब्बास, रित्विक घटक और उसके बाद श्याम बेनेगल जैसे विख्यात फिल्मकारों ने अपनी कई फिल्मों का ताना-बाना सामाजिक मुद्दों से ही चुना! मगर 80 के दशक के बाद ऐसे कई मुद्दे हाशिए पर चले गए। सामाजिक मुद्दों पर फिल्में बननी कम हो गई, यही कारण है कि पानी की किल्लत पर भी फ़िल्में नहीं बनी। आज जब देश के सामने पानी की समस्या विकराल रूप ले रही है, कोई भी फिल्मकार इस विषय पर फिल्म बनाने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं! शायद इसलिए कि इसे फ्लॉप आइडिया माना जाता है।

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1971 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने पानी से जुड़ी फिल्म ‘दो बूंद पानी’ बनाई थी। यह फिल्म राजस्थान में बन रहे गंगा सागर कनाल प्रोजेक्ट की पृष्ठभूमि में आधारित थी। इसमें अपना योगदान देने के लिए एक सूखाग्रस्त गांव से नायक जलाल आगा अपना परिवार छोड़कर आ जाता है कि यह प्रोजेक्ट राजस्थान के रेगिस्तान की तकदीर बदल देगा। कनाल प्रोजेक्ट तैयार हो जाता है, राजस्थान को पानी मिल जाता है, पर नायक को समाज के कारण अपना परिवार खोना पड़ता है। इस फिल्म को राष्ट्रीय अखंडता के लिए पुरस्कार भी मिला। लेकिन, 1971 के बाद से फिर पानी की समस्या पर कोई फिल्म नहीं बनी! आमिर खान ने 2001 में ‘लगान’ जरूर बनाई! लेकिन, ये बारिश की कमी से किसानों को होने वाली परेशानी और अंग्रेज सरकार द्वारा वसूले जाने वाले लगान पर आधारित थी। अपने सशक्त कथानक के कारण फिल्म हिट रही, पर इसमें जल संकट जैसा मुद्दा दब गया। 2013 और 2014 में पानी के मुद्दे पर ‘कौन कितने पानी में’ और ‘जल’ जरूर आई थी। ‘जल’ को कच्छ के रण में फिल्माया गया था। ये बक्का नाम के एक ऐसे युवक की कहानी थी, जिसके पास दैवीय शक्ति है। इसके दम पर वो रेगिस्तान में भी पानी खोज सकता है। इस फिल्म को विदेशी भाषा की ऑस्कर अवॉर्ड फिल्मों में भारत की तरफ से भेजा भी गया था। 2005 में दीपा मेहता ने ‘वाटर’ नाम फिल्म जरूर बनाई, पर इसका पानी वास्ता नहीं था। यह फिल्म 1938 में स्थापित वाराणसी में एक आश्रम में विधवाओं के जीवन पर बनी थी।

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शेखर कपूर ने 2010 के कान्स फिल्म समारोह में ‘पानी’ बनाने का ऐलान किया था। ‘पानी’ की थीम काफी हटकर है। इसमें भविष्य के ऐसे दौर की कल्पना की गई है, जहां पानी पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा है और आम लोग इसकी एक-एक बूंद के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तब यह बात सामने आई थी कि ‘स्लमडाॅग मिलिनेयर’ के निर्देशक डैनी बॉयल ‘पानी’ से बतौर निर्माता जुड़ेंगे। ऋतिक रोशन मुख्य भूमिका में होंगे और संगीत एआर रहमान देंगे। फिर 2013 में सुनने में आया कि यह फिल्म ‘यशराज फिल्म्स’ के बैनर पर बनेगी और सुशांत सिंह अहम किरदार में होंगे। इसके बाद ये आइडिया आता-जाता रहा, पर ‘पानी’ पर फिल्म नहीं बन सकी। 2013 में शेखर कपूर ने इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया, जिसमें अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत लीड रोल में नजर आने वाले थे। पर, कुछ वजहों से ये प्रोजेक्ट बंद कर दिया गया। कहा जाता है कि इस प्रोजेक्ट के बंद होने से सुशांत बुरी तरह टूट से गए थे।

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फिल्म का मूल भाव है कि जब कुआं सूख जाएगा, तब हम पानी की कीमत समझेंगे? इस फिल्म की कहानी 2040 के कालखंड जोड़कर बुनी गई है, जब मुंबई के एक क्षेत्र में पानी नहीं होता और दूसरे में पानी होता है। ऐसे में पानी के लिए जंग छिड़ती है। इसी जंग में प्रेम पनपता है। फिल्म में सुशांत सिंह राजपूत, आयशा कपूर और अनुष्का शर्मा को लिया गया था। इसका पोस्टर भी जारी हुआ, जिसमें एक आदमी मुंह में घड़ा लगाए दिखाया गया, लेकिन घड़े में एक बूँद भी पानी नहीं होता! शेखर कपूर ने अपने इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के बारे में एक इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने इसे एक ‘आध्यात्मिक कहानी’ के साथ एक ‘ड्रामेटिक स्क्रिप्ट’ करार देते हुए कहा था कि ‘पानी’ की कहानी एक लव स्टोरी के साथ कई रिश्तों के बारे में है। पानी की समस्या पर बनी एक फिल्म है ‘कड़वी हवा’ जिसकी कहानी दो ज्वलंत मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक है जलवायु में बदलाव के कारण बढ़ता जलस्तर और सूखे की समस्या! फिल्म में सूखाग्रस्त बुंदेलखंड दिखाया गया है। सूखे की समस्या के कारण यहां के किसान कर्ज में डूबे हैं। किसानों की बेबसी और सूखी जमीन की हकीकत दिखाती फिल्म ‘कड़वी हवा’ में संजय मिश्रा ने बेहतरीन अभिनय किया है।

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ऐसी ही एक फिल्म ‘कौन कितने पानी में’ दो गांवों ‘ऊपरी’ और ‘बैरी’ की कहानी है। ऊपरी गाँव ऊंची जाति वालों का है और बैरी गाँव में पिछड़ी जाति के लोग रहते हैं। लेकिन, वे जागरूक हैं और पानी को सहेजते हैं। एक ऐसा समय आता है, जब ऊंची जाति वालों के गाँव में पानी की किल्लत आती है। जबकि, पिछड़ी जाति वालों के गाँव में पानी बहुलता से रहता है। इस पानी के लिए ऊंची जाति वाले बैरी गाँव से छल करके पानी जुगाड़ लेते हैं। फिल्म का निष्कर्ष है कि यदि पानी को सहेजा नहीं गया तो इस किल्लत से हमें निपटना पड़ेगा। देखा गया है कि पानी की सबसे ज्यादा किल्लत गरीबों को ही चुकानी पड़ती है। अमीर तो पानी खरीदकर पी लेते हैं, लेकिन गरीब पानी खरीदकर किसे पिएं!  पानी की किल्लत पर कई डॉक्यूमेंट्री भी बन चुकी है। इनमें से एक है ‘थर्स्टी सिटी।’ 2013 में बनी इस फिल्म में दिल्ली में पानी की किल्लत और पानी के लिए श्रमिकों के संघर्ष को कैमरे में कैद किया गया है। पानी की किल्लत पर फ़िल्में बनाने वाले निर्देशकों को इस पर काम करने का विचार तब आया, जब उन्होंने अपनी आँखों से इस समस्या को देखा और महसूस किया!

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मानव अस्तित्व से जुड़ी इस गंभीर समस्या को समझते हुए शेखर कपूर फिल्म बनाने का साहस कर रहे हैं, यह अच्छी बात है। इससे यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि संगीन विषयों पर सार्थक फिल्में बनाने वाले दूसरे निर्देशक भी आगे आएंगे। वे पानी की समस्या को रूपहले पर्दे पर उकेरकर पानी का कर्ज उतारेंगे और अपना सामाजिक दायित्व पूरा करेंगे। देव आनंद की बहुचर्चित फिल्म ‘गाइड’ और आमिर खान की ‘लगान’ में जब परदे पर पानी की बूंदे आसमान से बरसती हैं तो खुशी से सिर्फ पात्र ही उल्लसित नहीं होते, दर्शकों के मन में भी पानी की जीवनदायिनी अहमियत का अहसास होता है। किंतु, जब परदे से गांव ही गायब हो गए, तो भला खेत और पानी की बूंदों की अहमियत ही कहां बची! फिल्म ‘अनोखी रात’ का गीत … ओह रे ताल मिले नदी के जल में, नदी मिले सागर में, सागर मिले कौन से जल में’ हमारे जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करता लगता है। फिल्म ही नहीं, गीतों में भी पानी की चर्चा मुहावरे के रूप में सुनी जाती है। लेकिन, यह सवाल फिर भी जिंदा है कि क्या हिन्दी सिनेमा में कभी पानी की वास्तविक समस्या दिखेगी!

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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