Silver Screen:परदे पर जब रंग बिखरे तो कुछ जरूर बदला!

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Silver Screen:परदे पर जब रंग बिखरे तो कुछ जरूर बदला!

फ़िल्म इतिहास के पन्नों पर होली प्रसंग के कई मायने हैं। जब कथानक में मस्ती भरा कोई गीत रचना हो, तो होली के रंग बिखेर दिए जाते हैं। नायक और नायिका में प्यार का रंग भरना हो, तो होली को बहाना बनाने में देर नहीं होती। ऐसी भी फ़िल्में कम नहीं, जब नायक और खलनायक की दुश्मनी होली के दिन ही निकली। सामाजिक कुप्रथाओं पर चोट करने के लिए भी होली को कथानक में भरा गया। याद कीजिए राजेश खन्ना और आशा पारेख की फिल्म ‘कटी पतंग’ का वो दृश्य जब विधवा आशा पारेख पर राजेश खन्ना रंग डालते हैं। श्वेत श्याम फिल्मों के समय में भी होली के गीत दर्शकों को खूब भाते थे। रंग भले नजर न आते हो, पर दर्शकों रंग का एहसास तो होता था। पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘आन’ में भी गाने ‘खेलो रंग हमारे संग’ ने दर्शकों पर रंग जमाया था।

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फिल्मों के कथानक का त्योहारों से कुछ ख़ास ही रिश्ता है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें त्योहारों को आधार बनाकर कथानक रचे गए। ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा उपयोग हुआ होली का। इसलिए कि होली ऐसा त्योहार है जिसका प्रसंग आने के बाद कथानक में ट्विस्ट लाना आसान होता है। याद किया जाए तो जिस भी फिल्म में होली दृश्य या गीत दिखाई दिए, उनमें अचानक कहानी में बदलाव दिखाई दिया। इसलिए कहा जा सकता है, कि होली और सिनेमा का रिश्ता बहुत गहरा है। होली भले ही रंगों का त्योहार है, पर ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के जमाने से ये परदे पर छाई रही। फिल्म की कहानी में ट्विस्ट लाने के लिए निर्देशक को जब भी किसी मौके की जरूरत होती है सबसे आसान होता है, किसी त्यौहार का प्रसंग लाकर कहानी का प्लॉट बदला जाए! होली के अलावा ईद ही ऐसा त्यौहार हैं, जिन्हें फिल्म बनाने वालों ने जमकर भुनाया! ये सभी खुशियों वाले त्यौहार हैं, जिनके बहाने दर्शकों को गाना-बजाना दिखाकर कहानी में ट्विस्ट लाया जाता रहा। ‘जख्मी’ से लगाकर ‘शोले’ और ‘सिलसिला’ तक को याद किया जा सकता है, जिनमें होली गीत के बाद एकदम कहानी का ट्रैक बदला था।

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ऐसी कई फ़िल्में है, जिनके कथानक में होली एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी! कभी होली ने प्यार के रिश्ते को मजबूत किया तो कभी होली की हुड़दंग दुश्मनी का कारण बनी! गौर करने वाली बात यह भी कि सिनेमा में जब भी होली दिखाई गई, कथानक में मोड़ जरूर आया! फिल्म इतिहास को टटोला जाए तो संभवतः 1944 में पहली बार अमिय चक्रवर्ती ने दिलीप कुमार के साथ ‘ज्वार भाटा’ में होली दृश्य फिल्माया था। उसके बाद फिल्मों में होली दिखाने का चलन शुरू हुआ! किसी घटना को अंजाम देने के लिए भी होली को सहारा बनाया जाने लगा। ये श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर था। सिनेमा की दुनिया भेड़ चाल पर ज्यादा विश्वास करती है। जब होली दृश्य दर्शकों को लुभाने लगे, तो इन्हें कथानक में शामिल करने की होड़ सी लग गई। ‘मदर इंडिया’ में शमशाद बेगम का गाया ‘होली आई रे कन्हाई’ अभी भी सुना और पसंद किया जाता है। वी शांताराम ने अपनी चर्चित फिल्म ‘नवरंग’ में भी होली गीत ‘चल जा रे हट नटखट’ रखा जो महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया था। 70 के दशक की फिल्मों में होली के बहाने कुछ अच्छे दृश्य फिल्मों में देखने को मिले। राजेश खन्ना पर ‘कटी पतंग’ में फिल्माया गाना ‘आज न छोड़ेंगे हम हमजोली’ निर्देशक ने उस सामाजिक बंधन को तोड़ने के लिए रखा था, जिसमें एक विधवा को समाज सभी रंगों से बेदखल कर देता है।

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जहां तक होली गीत की बात है तो सबसे पहले जिक्र आता है 1940 में आई फिल्म ‘औरत’ का गाना। निर्देशक महबूब खान की इस फिल्म में अनिल बिस्वास के संगीतबद्ध गाने ‘आज होली खेलेंगे साजन के संग’ और ‘जमुना तट श्याम खेले होरी’ हिंदी सिनेमा के पहले होली गीत माने जाते हैं। बाद में महबूब खान ने इस फिल्म की कहानी को ‘मदर इंडिया’ नाम से बनाया। इसमें भी होली का सदाबहार गाना ‘होली आई रे कन्हाई रंग छलके, बजा दे जरा बांसुरी’ था। उसके बाद गीता दत्त के गाए ‘जोगन’ के गीत ‘डारो रे रंग डारो रे रसिया’ सुपरहिट होली गीत बना। श्वेत श्याम फिल्मों के दौर में भी होली के गाने दर्शकों को भाते थे। भले परदे पर रंग नजर न आते हो, लेकिन इन गीतों का जादू ऐसा होता था कि लोगों को परदे पर रंग बिरंगी होली का ही एहसास होता था। देश में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म ‘आन’ में दिलीप कुमार की अदाकारी के अलावा इस फिल्म के गाने ‘खेलो रंग हमारे संग’ ने लोगों पर खूब जादू किया। फिर तो होली के गानों का सिलसिला ही चल निकला। रमेश सिप्पी की फिल्म ‘शोले’ में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की छेड़छाड़ वाला गाना ‘होली के दिन दिल खिल जाते हैं’ हर होली पर सुनाई देता है। 70 और 80 के दशक की फिल्मों में होली के गाने खूब बजे। इस दौरान बने सुपरहिट होली गीतों में ‘षड्यंत्र’ का गाना होली आई रे मस्तानों की टोली, फिल्म ‘राजपूत’ का गाना भागी रे भागी रे भागी बृज बाला, फिल्म ‘नदिया के पार’ का गाना ‘जोगीजी वाह जोगीजी, फिल्म ‘कामचोर’ का गाना ‘मल दे गुलाल मोहे’ और फिल्म ‘बागबान’ का गाना ‘होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा’ कालजयी गीत बने। लेकिन, जो गाना सबसे ज्यादा हिट हुआ वह था फिल्म ‘सिलसिला’ का अमिताभ की आवाज का गाना ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे!’ ये गाना हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय होली गीत माना जाता है।

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फिल्मकारों को जब भी मस्ती गीत जरूरत महसूस हुई में कथानक में होली प्रसंग से जुड़ा गीत पिरो दिया गया। होली वैसे तो रंगों का त्यौहार है, पर सिनेमा के शुरूआती समय में जब फ़िल्में श्वेत-श्याम हुआ करती थीं, तब भी होली प्रसंग फिल्माए और पसंद किए गए। देखा जाए तो अभी तक ‘होली’ नाम से भी एक फिल्में बनी और दूसरी फिल्म ‘होली आई रे’ नाम से बनी। ‘फागुन’ शीर्षक से भी दो फिल्में बनी। 1967 में ‘भक्त प्रहलाद’ फिल्म बनी जिसमें होली का धार्मिक आधार बताया गया था। फ़िल्मी कथानक को जटिल हालात से निकालने या ट्रैक बदलने के लिए भी होली दृश्यों का कई बार इस्तेमाल किया गया। यश चोपड़ा जैसे निर्देशक ने भी अपनी फिल्मों में बार-बार होली दृश्यों का उपयोग किया। 1981 में आई ‘सिलसिला’ के गीत ‘रंग बरसे भीगे चुनर वाली’ गीत को उलझन वाली स्थिति से निकालने के लिए ही लिखा गया। इस होली गीत ने ही अमिताभ और रेखा को घुटन से बाहर आने का मौका दिया। ‘रंग बरसे …’ गाते हुए अमिताभ भांग के नशे में इतना मस्त हो जाते हैं कि संजीव कुमार और जया भादुड़ी की मौजूदगी को ही भुला देते हैं। इसके बाद तो फिल्म की कहानी ही बदल जाती है। फिल्म के पात्र प्रेम, दाम्पत्य और अविश्वास की जिस गफलत में फंसे थे, इस होली गीत ने उन्हें उस भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता भी दिया था।

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1984 में आई फिल्म ‘मशाल’ में ‘होली आई होली आई देखो होली आई रे’ में अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री के प्रेम के रंग को निखारा गया। साथ ही दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के बीच मौन संवाद पेश किया। ऐसा ही एक दृश्य यश चोपड़ा की ही फिल्म ‘डर’ में भी था। इसमें शाहरुख खान जूही चावला के प्रेम में जुनूनी खलनायक की भूमिका में रहते हैं। हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। तनाव के बीच होली प्रसंग शाहरुख को जूही चावला को स्पर्श करने का मौका देता है। साथ ही कहानी को अंजाम तक पहुंचाने का भी अवसर मिलता है। ‘मोहब्बतें’ में यश चोपड़ा ने ‘सोहनी सोहनी अंखियों वाली’ से जोड़ियों के बीच होली सीक्वंस फ़िल्माया। राजकुमार संतोषी ने भी ‘दामिनी’ में होली को कहानी का मुख्य आधार बनाकर दिखाया था। मीनाक्षी शेषाद्रि और सनी देओल की इस फिल्म में तो होली के दिन की एक ऐसी घटना थी जो फिल्म को आगे बढ़ाती है।

‘शोले’ में गब्बर सिंह की डकैतों की गैंग हमले से अनजान गांव वाले होली पर पर झूमते नजर आते हैं। डाकुओं से जय और वीरू का पहली बार सामना भी यहीं होता है! उसके बाद ही गब्बर सिंह को पता चलता है कि ठाकुर ने मुकाबले के लिए जय और वीरू को गांव में बुलाया है। फिल्म ‘जख्मी’ में सुनील दत्त होली पर डफली बजाते हुए दुश्मनों को चुनौती देते हैं। बासु चटर्जी की फिल्म ‘दिल्लगी’ में धर्मेन्द्र होली गीत गाते हुए हेमा मालिनी को रिझाते हैं। ‘आखिर क्यों’ में राजेश खन्ना और स्मिता पाटिल का होली गीत रिश्तों में नई पेचीदगी खड़ी कर देता है। ऐसी बहुत सी फिल्में हैं, जिनमें या तो गीतों के सहारे या फिर किसी भी अच्छी-बुरी घटना को अंजाम देने के लिए होली के दृश्य दिखाए गए। फिल्म ‘होली’ में आमिर खान को कैंपस में राजनीति के माहौल में होली खेलते दिखाया गया। ‘मोहब्बतें’ में होस्टल के सभी लड़के अपनी प्रेमिकाओं के साथ गुरूकुल से निकालकर होली मनाने में सफल होते है। इसके अलावा भी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें होली दृश्यों के बाद कथानक अचानक बदला! फागुन, मदर इंडिया, वक़्त, जख्मी, मशाल, कटी पतंग, बागबान, दीवाना, मंगल पांडे, आखिर क्यों, दिल्ली हाईट्स जिनमें होली सिर्फ त्यौहार के रूप में नहीं फिल्माया गया, बल्कि कथानक हिस्सा बनी!

‘कोहिनूर’ का गीत ‘तन रंग लो जी आज मन रंग लो’ भी पसंद किया गया था। ‘गोदान’ में भी एक होली गीत फिल्माया गया था। ‘आखिर क्यों’ का गीत ‘सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे’ और ‘कामचोर’ के गीत ‘मल दे गुलाल मोहे’ के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया गया। फिल्मों में होली का क्रेज पिछले दशक तक रहा। दीपिका पादुकोण और रणबीर कपूर की फिल्म ‘ये जवानी है दीवानी’ का गाना ‘बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी’ खूब हिट हुआ। होली का अल्हड़ अंदाज इस गाने में बरसों बाद दिखाई दिया था। इसके बाद ‘वार’ में रितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ जरूर एक होली गीत में धूम मचाते दिखे थे। लेकिन, फिर  कोई होली का ऐसा होली गीत सुनाई नहीं दिया, जो की जुबान पर चढ़ा हो।

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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