Silver Screen: सिनेमा से गजल का गुलशन उजड़ने क्यों लगा!

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Silver Screen: सिनेमा से गजल का गुलशन उजड़ने क्यों लगा!

हिंदी फिल्मों का सौ साल का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है। इसमें गीत-संगीत का भी अपना अलग योगदान रहा। खय्याम और मदन मोहन जैसे संगीतकारों ने संगीत को शायरना बनाया और अमर संगीत दिया। लेकिन, आज की फिल्मों के संगीत में गजल, नज्म और शायरी कम हो गई। जबकि, गजल हमेशा ही संगीत का अहम हिस्सा रही। पहले की शायरी पर अरबी का प्रभाव ज्यादा था, पर आज की शायरी की जुबान जुदा है। नए जमाने की शायरी में उर्दू के साथ हिंदी भी है, जो इसे आम लोगों से जोड़ती है। गजल गायकी का अपना अलग ही पारंपरिक रंग है और वही उसकी खूबसूरती भी है। यह बात अलग है कि गायकों ने अपनी अलग शैली से गजल को लोकप्रिय बनाया। जगजीत सिंह और पंकज उधास की अपनी शैली थी, उस कमी को पूरा कर पाना मुश्किल है।

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सिनेमा में संगीत कई रूपों में सुनाई देता रहा। दर्शकों ने गीतों से लगाकर शास्त्रीय संगीत तक और कव्वाली से गजल तक को परदे पर अवतरित होते देखा। इनमें दर्शकों ने सबसे ज्यादा सुना गीतों को, जो कभी रोमांस तो कभी किसी और रूप में सुनाई दिए। लेकिन, संगीत का सबसे खूबसूरत रूप गजल धीरे-धीरे बिल्कुल विलुप्त हो गया। सिनेमा में आए बदलाव ने गजल को खो सा दिया। एक दशक पहले जगजीत सिंह के दुनिया से चले जाने के बाद तो जैसे गजल को भुला ही दिया और अब पंकज उधास के बाद तो गजल के फिर परदे पर आने की संभावना ख़त्म हो गई। हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ (1931) के बाद से ही गजल फिल्म संगीत का आधार बनी।

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19वीं से 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में फ़िल्मी ग़ज़लों की जड़ें उर्दू पारसी थिएटर में भी थी। 1930 से 1960 के दशक तक गजल ही फ़िल्म संगीत की ख़ास शैली रही। बाद में यह दौर घटता गया, लेकिन 1980 के दशक तक चलता रहा। इसके बाद तो फिल्म संगीत में ग़ज़ल हाशिए पर चली गई। खय्याम और मदन मोहन जैसे संगीत निर्देशकों ने 1960 और 1970 के दशक में कई फिल्मी गजलों की रचना की। परंतु, उनकी परंपरा को दूसरे संगीतकारों ने नहीं अपनाया।

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कानों से दिल में उतरने वाली गजल मख़मली शब्दों से सजी गीत की वो विधा है, उसने सिनेमा को बरसों तक अपने असर से सराबोर किया। फिल्म संगीत के पन्नों को खंगाला जाए, तो पिछली सदी के चौथे दशक में फिल्मों के लिए पहली ग़ज़ल फिल्म ‘दुनिया न माने’ के लिए शांता आप्टे ने गाई थीं। ‘दिखाई दिए यूं के बेखुद किया, हमें आपसे भी जुदा कर चले!’ मीर तकी मीर की ये ग़ज़ल बाद में ‘बाजार’ (1982) फिल्म में भी सुनाई दी।

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सोहराब मोदी की फिल्म ‘मिर्जा गालिब’ में तलत महमूद और सुरैया की गाई गजलों को भी काफी पसंद किया गया। बाद में शकील बदायूंनी, हसरत जयपुरी, मजरुह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, नक्श लायलपुरी, जावेद अख्तर, निदा फाजली, गुलजार, गोपालदास नीरज जैसे कई नामी शायरों और गीतकारों ने फिल्म जगत को बेहतरीन ग़ज़लें दी। लेकिन, ग़ज़ल का जनक मीर तक़ी मीर को माना जाता है। उनकी लिखी कुछ ग़ज़लें फिल्मों में आज भी सुनाई दे जाती हैं। ‘बाजार’ फिल्म की ग़ज़ल ‘दिखाई दिए यूं के बेखुद किया हमें आपसे भी जुदा कर चले’ ये ग़ज़ल मीर की ही देन है। खय्याम के संगीत में लता मंगेशकर की आवाज ने इसमें चार चांद लगाए। मीर के साथ ग़ालिब, मोमिन खान, फैज़ अहमद फैज़, साहिर लुधियानवी की ग़ज़लों ने भी हिंदी फ़िल्मों में अपने रंग बिखेरे। जगजीत सिंह की गायी 1999 में आई फिल्म ‘सरफ़रोश’ की गजल ‘इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है’ ने दर्शकों को मानो डुबो ही दिया था। निदा फ़ाज़ली की इस ग़ज़ल ने फिल्म के हीरो आमिर खान और हीरोइन सोनाली बेंद्रे के बीच प्रेम की स्वीकृति को जाहिर किया।

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गीतकार और लेखक जावेद अख़्तर की 1982 में आई फ़िल्म ‘साथ-साथ’ की ग़ज़ल ‘जिंदगी धूप तुम घना साया’ सुनने वाले के मन को अजीब सा सुकून देती है। ‘तुमको देखा तो ये ख्याल आया, जिंदगी धूप तुम घना साया!’ ये पंक्ति जब जगजीत सिंह ने अपनी सुरमयी आवाज में ये गजल पिरोई थी, तो प्रेम के अलग ही रूप का अहसास हुआ। इसी फिल्म में ‘ये तेरा घर, ये मेरा घर’ की पंक्तियों को सुरेश वाडेकर ने अपनी आवाज से अमर कर दिया। यह ग़ज़ल एक छोटे से घर में दो प्रेमियों को उत्साह और उम्मीद से भर देती है। इस ग़ज़ल के बोल अभाव में भी भावनाओं का बोध कराते हैं। ‘फिर छिड़ी रात बात फूलों की, रात है या बारात फूलों की तलत अजीज की आवाज में ‘बाजार’ फिल्म की मखदुम मोहिउद्दीन की रचित यह ग़ज़ल आज भी सुबह सुनाई दे जाए, तो दिनभर जहन में गूंजती है। यह गजल समय के झीने परदे को तार-तार करते हुए रोमांस के ताजा पन का अहसास कराती है।

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फ़िल्मी दुनिया में गुलजार गीतकारों की दुनिया में वो शख्सियत है, जो अपने शब्दों को कहीं भी इस तरह पिरो देते हैं कि लगता है, जैसे वो शब्द उन्हीं पंक्तियों के लिए बने हैं। उन्होंने अमीर खुसरो की गजल से प्रेरित होकर 1985 में आई फिल्म ‘गुलामी’ के लिए एक गाना लिखा था, जो आज भी उतना ही पसंद किया जाता है। गुलजार ने इस गजल की शुरुआती लाइनों के भाव को अपने गाने ‘ज़े-हाल-ए मिस्कीं मकुन बरंजिश’ में पिरोया था। इस गीत के शुरुआती फ़ारसी में लिखे बोल का अर्थ समझे बिना सुनने वाले इसके भाव को आज भी दिल से महसूस करते हैं। गाने की शुरुआती पंक्तियां ‘जे-हाल-ए-मिस्कीं मकुन बरंजिश, बेहाल-ए-हिज्राँ बेचारा दिल है, सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है!’ फारसी और ब्रजभाषा की इस गजल की शुरुआती दो पंक्तियों का अर्थ है ‘बातें बनाकर और नजरें चुराकर मेरी लाचारी की अवहेलना न कर, जुदाई की अगन से जान जा रही है, मुझे अपनी छाती से क्यों नहीं लगा लेते!’ इस गीत में प्रेम की गहराई को खूबसूरती से शब्दों में बयां किया गया। लेकिन, किसी ने इसका गूढ़ अर्थ जानने की कोशिश नहीं की और उसकी जरुरत भी नहीं समझी गई। क्योंकि, जो कानों में रस घोलकर दिल को सुकून दे, वही अच्छा गीत या गजल है।

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1987 में आई फिल्म ‘इजाजत’ में गुलजार की लिखी गज़ल ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं और मेरे एक खत में लिपटी रात पड़ी है!’ प्रेम और उसकी समर्पण अनुभूति को चरम सीमा पर ले जाकर मन को गहरा ठहराव देती है। 1982 की फिल्म ‘अर्थ’ में कैफी आजमी की लिखी गज़ल ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो!’ जगजीत सिंह की आवाज में प्रेम और उसके भावों को काफी लंबा आयाम देती है। प्रेम में गम और दुख की बयार को इससे बेहतर कोई और गज़ल पेश नहीं कर सकती।

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हिंदी फिल्मों में गज़लों को बेहतरीन गायकों ने हसीन मुकाम दिया है। जिनमें तलत महमूद, सुरैया, गुलाम अली, जगजीत सिंह, तलत अजीज, नुसरत फतेह अली खान प्रमुख हैं। फिल्मों में हमेशा गज़ल को महफ़िल के माहौल में दर्शाया जाता है और उसका पिक्चराइजेशन भी गम और उसकी संजीदगी को आधार बनाकर किया जाता है। गहरी सोच के साथ ऐसी पेशगी गजलों का मन में दूर तक असर करती है। बहुत ही भावुक और प्यार भरे शब्दों के जरिए गायक इसे शब्दों में पिरोते हैं। नयी फिल्मों के गीत-संगीत पर काफी लोग अपनी नाराजगी व्यक्त करते रहते हैं लेकिन नई फिल्मों में भी ग़ज़ल की उपस्थिति एक हद तक लोगों की नाराजगी को दूर करने में कामयाब हो रही है।

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हिंदी फिल्मों में गजलों की बात करें और ‘पाकीजा’ तथा ‘उमराव जान’ की गजलों का जिक्र न हो, यह संभव नहीं है। इन फिल्मों की गज़लें सदैव जवां रहकर मन को महकाती रहेंगी। 1981 की फिल्म ‘उमराव जान’ में प्रसिद्ध शायर शहरयार की ग़ज़ल ‘दिल चीज है क्या आप मेरी जान लीजिए, बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए!’ इस गजल ने मन को एक लंबी सिरहन से भर दिया था। इसका अंतिम अंतरा मन को दुनिया के संघर्षों से लड़ने की असीम शक्ति देता है। इसके अलावा ‘उमराव जान’ में ही ‘इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं’ तथा ‘जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने’ गजलों ने भी हिंदी फिल्मों में काफी लोकप्रियता हासिल की है।

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इस शब्द लोकप्रियता का आलम यह है कि 1964 में ‘ग़ज़ल’ नाम से एक फिल्म भी बनी। इसका निर्देशन वेद-मदन ने किया और इसमें सुनील दत्त, मीना कुमारी, रहमान और पृथ्वीराज कपूर मुख्य भूमिकाओं में थे। इसमें मदन मोहन का संगीत और साहिर लुधियानवी के गीत हैं। यह फिल्म कई गज़लों के लिए प्रसिद्ध है। मोहम्मद रफ़ी की गायी ‘रंग और नूर की बारात’ और लता मंगेशकर का गाया ‘नगमा-ओ-शेर की सौगात’ काफी लोकप्रिय हुई। लेकिन, अब लगता है फिल्म संगीत का वो खुशनुमा दौर समाप्ति की तरफ बढ़ रहा है!

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हेमंत पाल

चार दशक से हिंदी पत्रकारिता से जुड़े हेमंत पाल ने देश के सभी प्रतिष्ठित अख़बारों और पत्रिकाओं में कई विषयों पर अपनी लेखनी चलाई। लेकिन, राजनीति और फिल्म पर लेखन उनके प्रिय विषय हैं। दो दशक से ज्यादा समय तक 'नईदुनिया' में पत्रकारिता की, लम्बे समय तक 'चुनाव डेस्क' के प्रभारी रहे। वे 'जनसत्ता' (मुंबई) में भी रहे और सभी संस्करणों के लिए फिल्म/टीवी पेज के प्रभारी के रूप में काम किया। फ़िलहाल 'सुबह सवेरे' इंदौर संस्करण के स्थानीय संपादक हैं।

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