रक्षाबंधन पर विशेष: लोकगीतों में पिरोया हुआ राखी का त्योहार

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रक्षाबंधन पर विशेष

लोकगीतों में पिरोया हुआ राखी का त्योहार

 डॉ. सुमन चौरे

मेरे घर के सामने नीम के वृक्ष लगे हैं। उनसे टपकती निम्बोलियों को देखकर मन उन्हें बटोरने लगता है। निम्बोलियों के लालित्य को देखकर आज भी मैं बहुत पीछे दौड़ जाती हूँ। अपने बाड़े के नीम के नीचे, जहाँ टपकती निम्बोलियों को अपने फ्रॉक क में झेल लिया करती थी। एक-एक निम्बोली को हौले से पकड़कर उँगली अँगूठे के बीच घुमाकर जौहरी की तरह उनकी खूबसूरती पर रीझ जाया करती थी। उन्हें फ्रॉक के खीसे (जेब) में रख लेती थी। खीसे को हाथ लगा कर रखती। हर आपदा-विपदा से उन्हें बचा कर रखती; किन्तु रात में ऐसी नींद आती कि वे कब पिचक जातीं पता ही नहीं चलता था। जो भी फ्रॉक धोता, उसकी ललकार पड़ती, ‘‘ये छोरी बावळई है, निम्बोळई से कितना प्रेम है, इसे कपड़ों की सुध भी नहीं रहती।

नीम-निम्बोली-सावन-बादल-फुहारें आज भी मन में वैसी ही भाव प्रवणता जगाता है, जैसे कि बचपन में। बार-बार याद हो उठते हैं बहुत सारे भाई-बहन झूले पर झूलते, रूठते और एक दूसरे को मनाते। कभी बहनों के झूला गीत, तो कभी भाइयों के लिए हिण्डोला गीत गाते-गाते कब दिन बीत जाता, पता ही नहीं चलता था। श्रावण लगते ही कण्ठ फूट पड़ते और झूले के साथ नीम के गीत लय पकड़ लिया करते थे –

हरा नीम खऽ लीमोळई लागी

सरावण बेगू आवजेऽ रेऽ

बाबुल दूरऽ मति दीजो

माड़ी नई बुलावऽ रेऽ

वीरा दूरऽ मति दीजो

भावजऽ नई बुलावऽ रेऽ

अर्थ – हरे नीम पर निम्बोली लटालूम लगी है। हे श्रावण मास! तुम जल्दी आ जाना। हे पिताजी! आप दूर मत ब्याहना, वर्ना माता नहीं बुलाएगी। हे भाई तुम दूर मत ब्याहना वर्ना भावज नहीं बुलाएगी।

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गीत गाते-गाते मन भावविह्वल हो उठता था। झूला छोड़कर डब-डब आँखों से दौड़ पड़ती आजी माँय के पास। उनका काम करता हाथ रोककर पूछती, ‘‘माँय कब करेगी मेरा याव?’’ वे पूछतीं आँखें क्यों  डबडबाई हैं। अभी सासरे जा रही है क्या!’’ मैं कहती, ‘‘नहीं माँय, बता कब करेगी मेरा ब्याव…।’’ और माँय पछूतीं, ‘‘किसका-किसका हो गया…।’’ मैं भोलेपन से कहती, ‘‘हो गया ना, पारू, मरू, धनई, छँदई… सबका तो हो गया। बोलना माँय…।’’ माँय बात टालने को कहतीं, ‘‘जा जल्दी कर देंगे।’’ मैं बहुत खुश। उसी पल, फिर पूछती, ‘‘पर माँय बोलना, पास करेगी ना। दूर तो नहीं देगी…।’’ माँय कहती, ‘‘जाओ, झूला झूलो, नज़दीक ही कर देंगे।’’ …और आश्वस्त मन से लौट पड़ती झूले की ओर मैं। सबको बड़े उत्साह से कहती, ‘‘माँय नज़दीक ही ब्याव कर देगी’’। और गालों पर जमीं बूँदों को पोंछते हुए लम्बे-लम्बे झूले लेने लगती। भाई लेने आयगा। मोठा भाई कहते, ‘‘क्यों रो रही है, आऊँगा ना तुझको लेने। मेरा गीत गा और तुझे बड़े-बड़े झूले दे दूँगा। भरोसा नहीं क्या…’’ और हम उमंग से गीत शुरू करते थीं

लीम की लिम्बोळई पाकी

राखी बेग आई जी

हमरा ते मोठा भाई,

तुमखऽ नींद कसी आवऽजी

तुमरी ते नानी बईण सासराऽ मंऽ झूरऽजी

झूरऽ तेखऽ झूरणऽ दीजो

हमऽनी झूरणऽ देवाँजी

बेगा लेणऽ आवाँजी

अर्थ: नीम की निम्बोली पक गई। राखी जल्दी ही आ जायगी। ओ मोठा भाई! तुम को नींद कैसे आ रही है। तुम्हारी छोटी बहन ससुराल में तुम्हें याद कर झुर रही है। झुरने वाले को झुरने दो बहन, हम तुम्हें झुरने नहीं देंगे। जल्दी लेने आ जायँगे।

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मोठा भाई लेने तो आयँगे ही। अतः हम बहनें उनका पूरा ध्यान रखते कि वे किसी बात पर नाराज़ न हो जायँ, नहीं तो राखी पर लेने कौन आयगा। लीम की निम्बोली जैसे सरस सलोना बचपन, भाई-बहनों का निश्छल प्रेम, झूले के झोलों से प्रगाढ़ से प्रगाढ़तम होता रहा। पनपता रहा। गीतों की कड़ियाँ भाई-बहनों के प्रेम की शृंखला को मजबूत और निरंतरता से बाँधती रहती। कभी भाई गीत की कड़ी गाते हुए अनुरोध करते, वो गीत गाना रे बैण-

बाँधऽ बाँधऽ रेऽ म्हारा मोठा भाई

बागऽ मंऽ हिंदोळो जी

झूलसे रे थारी मोठी बईणऽ

माथऽ बिन्दी नऽ बोरो जी

बोरा सरसी बईणऽ नऽ डोरो लगायो

मोठी बईणऽ को दुल्लव गोरो जी।

अर्थ: ओ मोठा भाई! तुम बाग में झूला बाँध दो। उस पर तुम्हारी मोठी बहन झूला झूलेगी। उन्होंने भाल पर सुन्दर बिन्दी लगाई है। उनका बोरा एक लम्बे डोरे से सिर पर बँधा है। बहन के सिर पर बोरा शोभा पा रहा है। उनका दूल्हा गोरा है।

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गीत में मोठी बईण अपना दूल्हा गोरा बताती हैं। मोठा भाई, तुम बाग में हिण्डोला जरूर बाँधना, पर हमारा दूल्हा भी गोरा ही ढूँढ़ना। मैं मोठा भाई से लिपट कर कहती, ‘‘कभी तुमने मेरा दूल्हा काला ढूंढ़ा तो मोठी बईण मुझपर हँसेंगी। मेरा मज़ाक उड़ाएँगी। मोठी बईण का दूल्हा गोरा तो मेरा भी गोरा, नहीं तो दोनों के काले ढूँढ़ना। मोठी बईण हँसती और मेरा दूल्हा काला ही गाती थीं। मैं फिर माँय के पास दौड़ पड़ती। मोठी बईण कहती, ‘‘मत जा माँय के पास शिकायत लेकर। मैं तुझे नहीं चिढ़ाऊँगी। मत जा।’’ मैं झूला पकड़कर खड़ी हो जाती। बार-बार झूला रुकने से नन्हें-मुन्ने अलग खीझ उठते, रोने लगते। मोठी बईण कहतीं, ‘‘देख तेरे को लड़ाई करना है तो हम तुझे झूले के खेल से भगा देंगे। चल, मान जा अब बिना लड़ाई वाला गीत गाते हैं।’’ चल अम्बो वायो गाएँगे –

अम्बो वायो नंऽ बाळू रेतऽ मंऽ

कूणऽ भाई बेड़वा जायऽ जी,

असा नानाजी भाई पालळा

अम्बो वेड़ीऽ घरऽ लावऽ जी

अर्थ: बालू रेत में आम्र वृक्ष बोया है। फल लग गए हैं। उन्हें बेड़ने (तोड़ने) कौन जायगा? उन्हें बेड़ने हमारे छोटे भाई जायँगे।

गीत पूरा भी नहीं होता और छोटा भाई झूले से कूद कर झूले को रोक देता और कहता, ‘‘मैं क्यों जाऊँ अम्बा बेड़ने। मुझको लू लग जायगी। मैं वैसे ही दुबला पतला हूँ। फिर घाम में काला हो जाऊँगा। फिर मेरा ब्याह नहीं होगा। मैं माँय के पास जाता हूँ शिकायत करने कि मेरे को घाम में भेज रही हैं…।’’ बेचारी मोठी बईण सबको समझातीं, ‘‘अरे मत लड़ो। जिसको लड़ना है, उसे हम खेल से भगा देंगे।’’ और आगे कहतीं, ‘‘जा रे झूला मत रोक। मुंशेण माँय के झूले पर अकेला ही झूला झूलना। न अम्बा बेड़ने जाना। ना घोड़िला लाना। ना हमको सासरे लेने आना। बस, फिर सब भाइयों के हाथ में राखी बँधी होगी। कम्मर में करधौना भी बंधा होगा। उनकी बहनें भौरा कंचे भी देंगी अपने-अपने भाइयों को। तुम खाली हाथ बैठे रहना, बस, एक्कल एकला।’’ फिर मिलजुल कर कुछ समझौता होता, ‘‘ठीक है, घाम में अम्बा बेड़ने का गीत नहीं गाते। नौकरी चाकरी का गीत गाते हैं … है नाऽ।’’

कूणऽ भाई जासे चाकरीऽ नऽ

कूणऽ भाई जासे गढ़ रे गुजरात

कूणऽ भाई की घोड़ी मंऽ घुँघरू नऽ

कूणऽ भाई की घोड़ी मंऽ जड़यो रे जड़ावऽ

कूणऽ भाई लावऽसे चूँदड़ीऽ नऽ

कूणऽ भाई लावऽसे दक्खिणा रो चीरऽ….।

मोठा भाई जासे चाकरी नऽ

नाना भाई जासे गढ़ऽ रे गुजरात।

अर्थ रू कौन भाई चाकरी जायगा। कौन भाई गढ़ गुजरात जायगा। कौन भाई की घोड़ी को घुँघरू बंधे हैं? और कौन भाई की घोड़ी को जड़ावदार आभूषण पहनाए हैं। कौन भाई बहनों के लिए चूँदड़ लायगा और कौन भाई दक्षिण की सुन्दर साड़ी लायगा। मोठा भाई चाकरी करने जायँगे और छोटा भाई गढ़ गुजरात जायँगे।

फिर वही होता, छोटा भाई धम्म से झूले के सामने कूदकर दोनों हाथों से झूला रोकने लगता। तेजी से चलते झूले को झटका लगता। सरें हिल पड़तीं… बच्चे चिल्ला पड़ते। छोटा भाई चिला-चिल्लाकर कहता, ‘‘मैं क्यों जाऊँ गुजरात। रोको झूला…।’’ मोठा भाई कहते, ‘‘तू ही जायगा। मैं तो स्कूल जाता हूँ, तो चाकरी पर मैं ही जाऊँगा।’’ सबका द्वंद्व शुरू। अब मोठी बईण कहती, ‘‘जाओ रे लड़ाकू भाइयो। मैंने खेल माँडा (बनाया) है, तो मैं ही माँय के पास शिकायत लेकर जाती हूँ। झगड़े की आवाज़ आजी माँय के कानों में पड़ती। प्रतिक्रिया में आजी माँय की कड़क आवाज़ आती, ‘‘दरियाव! कहाँ है रे, छोड़ दे तो झूला। ये झूलते तो कम हैं, संग्राम ज्यादा कर रहे हैं…।’’ दरियाव तो हाजिर ही था। वह झूला खोलने चला। हम चारों भाई बहन झूले की चारों सलाखों को पकड़ कर खड़े हो जाते और कहते, ‘‘मत छोड़ना झूला।’’ बच्चे भी झूले से चिपक जाते। फिर विनती भरे लहजे में कहते, दरियाव मामा! जा। अब नहीं लड़ेंगे। झूला मत छोड़।’’ छोटा भाई रुँआसा हो कहता, ‘‘ओ मोठी बईण! हम गुजरात भी चले जायँगे। तुम्हारे लिए चूँदड़ भी ले आयँगे। झूला मत छोड़ने दे।’’ अब हम भाई-बहनों में भाई-बहनों का बँटवारा होता। मोठा भाई की मोठी बईण। छोटा भाई की छोटी बईण। मोठी बईण कहती, ‘‘जा रहे दरियाव मामा (दरियाव हमारे घर काम करने वाला सेवक था) , हम तो भाई बहन हैं लड़ते मिलते हैं। तू झूला मत छोड़।’’ दरियाव के जाते ही सब भाई-बहन गले में हाथ डाल कर, ‘लेऽऽ बड़े… बड़े… हिन्दे…’, बोलकर, पैरों से झूला ऊँचा थमा लेते थे। चलो अब आखरी गीत गाते हैं, फिर दूसरा खेल बाड़े में खोलेंगे।

दूरऽ … देशऽ की म्हारी मोठी बईणऽ

तुखऽ लेणऽ कूणऽ जासेऽ जीऽ

जासेऽ रेऽ थारो मोठो भाईऽ

घोड़ी कुदावतो जासेऽ जीऽ

घोड़ी का तो टापुर वाज्या

बईण कयऽ म्हारो वीरो आयो जी

बईण की तो पैजणी बाजी

वीरो कयऽ, म्हारी बईण आई जी।

भावार्थ – दूर देश की मेरी मोठी बईण, तुझे लेने कौन भाई जायगा। तुम्हारे मोठा भाई अपने घोड़ी दौड़ाते तुम्हे लेने आयँगे। घोड़ी के टापूर बजे। मोठी बहन पहचान गई, मेरे भाई की घोड़ी है। मुझे लेने आए हैं। बहन के पैर की पैजनी बजी। भाई पैजब के बजने से ही बहन के पैर की ठुमुक पहचान गए। वह कहते, ‘मेरी बहन मिलने आ गई।’

भाई-बहन का कैसा रिश्ता। खून से अधिक मन का। झूले के झूलन दोलन से पनपे रिश्ते। घोड़ी की टाप से भाई को पहचानती बहन, वहीं पैजब की झनकार से बहन की पहचान। रिश्तों की प्रगाढ़ता। लड़ते भिड़ते पनपते प्रेम, अहसासों के रिश्ते, श्वास-प्रश्वास में समाए रिश्ते, समय से मजबूत पड़ गए रिश्ते। अब ऐसे रिश्ते प्रतीकों के बहानों के मोहताज़ नहीं रहे।

बकरियों को आवेरते चरवाहे की हाँक ने भूतकाल में गई मेरी की सलोनी चेतना को वर्तमान में लाकर पटक दिया। सामने वृक्ष से निम्बोलियाँ झर रही हैं। बकरियाँ उन्हें खा रही हैं। मैं देखकर भी निम्बोलियों को इकट्ठा करना नहीं चाहती, न बचपन की यादों को लौटाना चाहती, क्योंकि गाँव का वह घर जिसकी छत से झूला टंगा था, अब नहीं रहा, जल गया न ही वह नीम रहा। न हम भाई-बहन वहाँ गाँव में रहे। किन्तु बचपन के उस प्रेम में आज भी इतनी ताकत है, शक्ति है, कि मोठा भाई की घोड़ी की टापूर की तरह, मैं उनके फोन की बजने वाली घण्टी को पहचान जाती हूँ। भाइयों के फोन आते हैं। सभी भाई कहते हैं – डाक से राखी मिली। बँधवा लूँगा। राखी का प्रणाम स्वीकारो। तुम्हारी भेंट डाक से भेज रहा हूँ।’’

निम्बोलियाँ टपक रही हैं… बकरियाँ खा रही हैं। वे मुझे रिझा रही हैं… आज भी रिझा रही हैं। बुला रही हैं।

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     डॉ. सुमन चौरे, 
लोक संस्कृतिविद् एवं लोक साहित्यकार