एक और जंग

 कोरोना काल की कहानी{एक डॉक्टर की  भावुक और मनोवैज्ञानिक कथा }

                                    एक और जंग

डॉ स्वाति तिवारी

एक डॉक्टर होने के नाते जीवन को बचाने की हर संभव कौशिश के बावजूद एक डॉक्टर को ना केवल पेशेंट के रिश्तेदारों से ही निपटाना होता है बल्कि उसे स्वयं से भी भावनात्मक स्तर पर जूझना पडता  है .कई बार हम जानते है कि पेशेंट को बचा पाना नामुमकिन है पर रिश्तेदारों को यह सीधे सीधे कह नहीं सकते और कहना भी नहीं चाहिए .इस स्थिति में हम पेशेंट का पेरामीटर बताने लगते है .जैसे हम कहते हैं कि क्लीनिकली तो दवाइयां रिस्पोंस कर रही है लेकिन अभी पेशेंट प्रोपर रिस्पांस नहीं कर रहा है वगैरह . एक डॉक्टर होने के नाते मुझे पता था कि किसी पेशेंट के साथ मुझे इमोशनली इन्वोल्व नहीं होना चाहिए .हाँ सायकोलोजिकली मुझे उन्हें सांत्वना के स्तर पर ट्रीट करना चाहिए .

उस दिन मेरी ड्यूटी  क्रिटिकल केयर वॉर्ड में थी.यह कोरोना की दूसरी लहर थी जो भयावह रुख लेती जा रही थी.घर छोड़े को मुझे आज पूरे दस दिन हो गए थे.पत्नी भी ड्यूटी पर तैनात थी.हालाँकि हम अलग अलग वार्ड में थे लेकिन दोनों ही घर नहीं जा सकते थे ..घर जाना मतलब अपने ही परिवार को मुसीबत मे डालना था .पत्नी के लिए नर्सिंग होस्टल में एक रूम हो गया थाजहाँ वह कुछ देर आराम कर सकती थी .लेकिन मेरे लिए अभी भी मेरी कार ही मेरा कमरा,मेरा बेड,मेरी लाइब्रेरी , मेरा वार्डरोब बनी हुई थी जिसे लेकर मैं हॉस्पिटल के पीछे बने लम्बे घास के मैदान जैसे केम्पस में चला जाता था जहाँ गार्डन के लिए एक नल और सिंचाई का एक पाइप लगा था .इस जगह का एक तो फायदा नल से था खुद को  स्नान के लिए ताजे पानी की सुविधा का . कपडे धोने और गाडी भी रात में धो लेने से कुछ ताजगी मिल जाती थी.एन 95 तो भूल जाइए, हमारे पास सामान्य मास्क तक पर्याप्त मात्रा में नहीं थे . हमें अपने गाउन 2-3 दिन तक दोबारा इस्तेमाल करने पड़ रहे थे लेकिन रात थोड़ी मायूसी भरी गुजरती कई बार तो भूखे पेट भी नींद नहीं आती थी और कई बार माँ ओर नन्ही बेटी की याद परेशान करती. लेकिन इस वक्त इस मायूसी से बचने के लिए सो जाना ही बेहतर लगता .

लेकिननींद आएगी कहाँ से जीवन किसको बुरा लगता है ?घर ,पत्नी .बिटिया और माँ को इस खतरनाक परिस्थिति में छोड़ कर खुद बिना हथियार एकयुद्ध लड़ रहे थे हम . नर्सों को बेसिक ज़रूरी चीज़ें नहीं मिल रही हैं. “उनके पास एन95 मास्क नहीं हैं. एक प्लेन मास्क और ग्लव्स से ही मरीज़ों को देखना संभालना अपनी जन जोखिम में डालना ही था जो सब कर रहे थे . जिन परिस्थितियों में हम काम कर रहे थे वे जानलेवा हैं हम समझ रहे थे लेकिन देश भक्ति और अपनी ही ली हुई शपथ हमें फिर उर्जावान बनाने लगती वरना व्यवस्थाएं सब जानती थी कि देश में मेडिकल और रिसर्च दोनों ही उपेक्षित क्षेत्र है और कमाईकी अंधी सुरंग .

डब्लूएचओ गाइडलाइन्स के मुताबिक पीपीई यानी पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट में ग्लव्स, मेडिकल मास्क, गाउन और एन95, रेस्पिरेटर्स शामिल होते हैं.जिन्हें हर हाल में अस्पतालों में होना चाहिए .कोरोना वायरस को लेकर हर रोज़ सरकार की तरफ़ से होने वाले संवाददाता सम्मेलन में स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों से सवाल पीपीई की उपलब्धता पर सवाल पूछे जाते लेकिन कोई हमसे डॉक्टरों से आकर पूछे की सत्यता क्या है ?पर इन तमान बातों से ऊपर उस वक्त देश भर डॉक्टर जिसे विश्वयुद्ध के सैनिक हो गए थे कोई बम गिरे या वायरस उन्हें हर हाल में स्वयम को डॉक्टर सिद्ध करने का कोई जूनून सवार था .जाने कब तक जाने कितने विचार चलते रहते और कभी नींद आ जाती और कभी  थोड़ी दूरी पर अपने ही स्टाफ के किसी और डॉक्टर की गाडी देख कर लगता अकेला थोड़ी हूँ इस स्थिति का जाने कितने डॉक्टर और वारियर है जो यहाँ वहां आइसोलेशन की स्थिति से गुजर रहें है .

कभी अपनी स्थिति पर तरस आता ,कभी डॉक्टर बनने के जूनून पर पछतावा लेकिन ज्यादातर अपने पेशे पर गर्व ही हुआ .आज अपने देश दुनिया के लिए कुछ करने का अवसर तो मिला .बस इसी तरह विचार आते जाते रहते और फिर एक झपकी आती और सो जाता .दिन भर प्लास्टिक के कवच में उमस भरे मायूस भयावह परिवेश में जीवन की जंग लड़ते लोगों को देख कर थका शरीर रिलेक्स होते ही आसमान को देखते हुए सोने लग जाता .आज जैसे ही अपने थर्मस से गर्म दूध और ब्रेड स्लाइस निकाल कर खाना शुरू की थी कि मोबाइल पर मेसेज बजा .खाते खाते कौन देखे ?छोड़ दिया मेसेज ,खा कर ही देखूंगा लेकिन दो स्लाइस भी पूरी नहीं खाई थी की फिर मोबाइल. इस बार मेरे वार्ड के जूनियर रेसीडेंट का फोन था “सर पेशेंट की स्थिति क्रिटिकल हो रही है प्लीज ”

‘ओके,ऑक्सीजन अरेंज करो जल्दी मैं आता हूँ.’ थर्मस बंद कर फिर बास्केट में रखा और कार की डिक्की में डाली किट को झाड़ा,पहनने का मन बिलकुल नहीं था,लेकिन ना पहनने का कोई उपाय भी नहीं .पहनते हुए पेशेंट का चेहरा दिमाग  में घूम गया ,मासूम सा युवा चेहरा .अभी अभी डॉक्टरी पूरी की है .डिग्री मिली भी की नहीं यह भी नहीं पता .लेकिन अगर चला गया तो एक प्यारा सा होनहार,मेडिकल का कर्णधार डॉक्टर कितनी बड़ी क्षति होगी .क्या कहूँगा उसकी मंगेतर से जो उसे लेकर आई थी “सर ये जिद्दी है ,सुनाता नहीं है ,समझाया था ब्रेक लो ड्यूटी से,नहीं माना बीस दिन से अस्पताल में ही रह रहा था चोबीस घंटे ,मशीन भी थोड़ी देर बंद करनी पड़ती है पर ये?सर प्लीज ध्यान रखियेगा .मैं भी इमरजेंसी वार्ड में ही हूँ.”  जाते जाते अपने नंबर छोड़ गयी थी दराज में एक स्लिप पर .क्या करूँ उसे बताऊँ ?भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था में मेडिकल कॉलेजों से ताज़ा-ताज़ा निकले इनिं दोनों जैसे जाने कितने  जूनियर डॉक्टरों के लिए येसीधे आग में कूदने जैसा अनुभव है.जहाँ बचने की उम्मीद सपने जैसी ही बारीक सी लकीर थी ,इन होनहार कर्णधारों को आगे की पढ़ाई के लिए मौके तलाशने के बजाय इस साल मेडिकल स्टूडेंट्स ट्रेनिग की तरह  कोविड ड्यूटी के फ्रंटलाइन पर तैनात कर दिया गया.जैसे किसी सैन्य प्रशिक्षण में बारूद की सुरंग बिछाकर उन्हें कहा जाता है इसपर चलो और बताओ कैसे बचोगे ?

फोन पर फिर से मैसेज था” सर जल्दी –”

पहले जाकर देख लेता हूँ ,सात दिनों से मेरे पास भी ना दूसरी किट है,ना ही इसे धो पाया हूँ .  एक हफ्ते तक वही सर्जिकल मास्क पहनने के बाद ,अब जाकर दूसरे मास्क मिले है.पसीने से गिले होते शरीर पर जब पसीने के रेले उतरने लगते है तो हाथ धोने की याद बाद में आती है ,हाथ उसे पोंछने के लिए पहले ही चला जाता है कभी चहरे पर ,कभी गर्दन पर कभी नाक पर .जितना भी बचाव है वह इश्वर का ही चमत्कार है .ऐसे में इस युवा डॉक्टर का वेंटिलेटर पर जाना मेरे अलावा वार्ड के दुसरे स्टाफ का भी  मनोबल को तोड़ देगा .दिमाग तेजी से कुछ इलाज खोज रहा है पर हाथ स्टेरिंग पर जैसे जाम हो गए थे.अभी तो जानता ही कितना हूँ इसे ?बस कुछ दिन कुछ बातें और उसकी लव स्टोरी बस .कल उसके पिता ने फोन पर बात की थी आवाज से थोड़े घबराये हुए ही थे ,एक शिक्षक किन हालातों में उन्होंने इसे डॉक्टर बनाया होगा ?एक बारगी अपने गए हुए पिता का चेहरा सामने आया और फिर पेंशन से पाई पाई बचाने वाली माँ याद आई ,जो बेटे को गर्व से डॉक्टरी पढ़ा रही थी ,घर फोन लगा लेता हूँ गाडी चलाते चलाते ,माँ ही उठाती ही ,हाल चाल के साथ स्टीम लेते रहने की हिदायत भी दे देता हूँ ,अस्पातल की लिफ्ट बंद है  सीढियों से वार्ड तक पंहुचता हूँ , लगभग भागते हुए ही दरवाजे से अन्दर पंहुचता हूँ तो दिवार से टिकी उसकी मंगेतर खड़ी है यह देख लेता हूँ लेकिन कोई पहचान नहीं बताता ,अन्दर से हिम्मत नहीं हो रही है उससे नज़रे मिलाने की . पहुंचा तो पता चला कि मरीज़ को आईसीयू ले जाना होगा. लेकिन, हमारे यहां आईसीयू की सुविधा  सही मायने में आई सी यू नहीं थी ,यह एक सेकेंडरी लेवल हॉस्पिटल है यानी कि यह मात्र एक ज़िला अस्पताल जैसा ही है. इस अस्पताल में फिलहाल 100 बेड्स ख़ासतौर पर कोविड के मरीज़ों के लिए रखे गए हैं. लेकिन, हमारी दिक़्क़त कोविड मरीज़ों की नहीं है क्योंकि इसके लिए एक तय प्रोटोकॉल है और हम आईसीएमआर से आने वाले सभी निर्देशों का पालन करते हैं.लेकिन संसाधन जिला अस्पताल जैसे भी नहीं है .जो हैं वे सरकारी खरीदी के वे उपकरण है जिन्हें सरकारी खजाने के सदुपयोग के लिए खरीद लिया जाता है जिनके होने की या ना होने की वेल्युव पर बात करना इस महामारी में कोई मायने नहीं रखता .

मुझे लगा अब हम केवल धेर्य रखने और मन को स्थिर बनाये रखने के उपायों की स्थिति से  बहुत दूर निकल आये है सही मायनों में हमें मेडिकल दवाइयां और संसाधन चाहिए कब तक पैरासिटामोल टेबलेट ,विटामिन सी ,और एजिथ्रोमाइसिन 500 से मरीजों को बचाने के प्रयास करेंगे ?हमारे पास तो हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वीन तक उपलब्ध नहीं है ? साँसों का संकट शुरू हो चूका था और मैं अपने ही अन्दर के डॉक्टर से भावनात्मक रूप से लड़ रहा था ,स्टोर इंचार्ज को फोन लगता हूँ दवाइयों के लिए ,ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए लेकिन वह रटा रटाया जवाब देता है “बहुत सिमित स्टाक था कब का ख़त्म हो गया .बाजार से मंगवा लीजिये पेशेंट के अटेंडेंट से.”

मेरे अन्दर वह दृश्य कौंध जाता है जब स्टोर के अन्दर से बातचित के अंश बाहर सुनाई दिए थे .कुछ दवाईया जो मार्केट में भी कम हो रही है उन्हें सुरक्षित कर दीजिये .मंत्री जी के निर्देश है ,कुछ इंजेक्शन और दवाइयां उनके बंगले पर भी रखवानी है .किसी ख़ास परिस्थिति के लिए ?कुछ अपने ही स्टाफ के वरिष्ठो को भी चाहिए है .मैं गुस्से से उबलने लगा “साले सब के सब —‘

मुझे पता था स्टोर से हटा कर दवाइयां कहाँ रखी  हो सकती है ,भागता हूँ बेसमेंट की तरफ पुराने स्टोर तक यहाँ लोग मुश्किल से पंहुच पाते है ,सीढियों पर अँधेरा और शव गृह के कारण लोग कम ही जाते है .एक साथ चार चार सीढियाँ लांघ रहा हूँ स्टोर कीपर सांकल चढ़ा ही रहा था कि मैं उसे धक्का  देकर स्टोर खोल लेता हूँ सामने ही एक दवाइयों का नया बोक्स दिखाई देता है मैं गाली देते हुए बक्सा फाड़ देता हूँ दवाइयों को अपनी जेब में भर कर फिर भागता हूँ .यह भूल कर की इस घटना के बाद मेरी नौकरी और इज्जत दांव पर लग जायगी ऑक्सीजन का सिलेंडर वो लड़की कहीं से ले आई थी थोड़ी राहत लगी उसकी साँसों की आवाजाही में .मैं आंसुओं की धार से धुंधलाते हुए चहरे देख रहा था ,जैसे कोई गढ़ जीत कर लौटा हूँ दवाई जूनियर रेजिडेंट के हाथ में देता हूँ इंजेक्शन लगाते लगाते उसकी उखड़ी साँसों को मीलों की दूरी तय करते देख रहा हूँ ,”हे भगवान् ! अगर तुम्हारा अस्तित्व है तो इस बच्चे को बचा लो. ”

लड़की मेरे पास आकर कड़ी हो गयी है ,”सर इसकी मम्मी पूछ रही है ,क्या बताऊँ ?”

“वे विडिओ कोल पर हैं’

“दूर से दिखाओ उन्हें कहो दवाइयां मिल गई है ,दे दी हैं बस’

‘लेकिन सर ?

‘इस वक्त हमें उन्हें इसी तरह—”

हम सब लगे थेबीमारों का  भगवान् बनने में .पर बेबस ,असहाय ,अपने ही एक साथी को साँसों के युद्ध में झुझते देख रहे थे ,जीवन देने का भ्रम आज टूट रहा था मनुष्य सर्वशक्तिमान होने का केवल दंभ भरता है कुछ नहीं है उसके हाथ में ?एक अदृश्य वायरस के आगे घुटने के बल खड़े हैं .विकास के केवल बातें करते है सच तो यह की डॉक्टरों तक के पास पीपीई किट्स और एन-95 की अवेयरनेस तो छोडिये उपलब्धता भी एक खामोश प्रश्न था ,जिसपर इस वक्त बोलना भी गुनाह था .मैं अपने अन्दर के तूफ़ान में घिरा था वो साँसों की झंझावातों में ,और वो लडकी उसकी मंगेतर ?अपने सपनों से ,प्यार के वादों से ,अन्धकार भरे भविष्य से लड़ रही थी  .उसकी आखरी हिचकी ने सब शांत कर दिया .अब नए संकट थे .रिपोर्ट पोजेटिव थी तो ?

लड़की दिवार से चिपक गयी थी ,फिर जैसे दिवार तोड़ कर बाहर निकलती है और उससे लिपट जाती है,रोकता हूँ उसे .

 

“मर तो गयी हूँ सर इसी के साथ, एक बार गले लग कर उसे छू तो लेने दीजिये”

मैं पहली बार किसी पेशेंट के लिए रोना चाहता हूँ ,लड़की भी रो रही है उसे एक बार उसके घर लेजाना चाहती है सर कहती है “इसकी माँ ने चार महीने से इसको देखा नहीं यह पी जी की तैयारी में लगा था .बिना देखे कैसे ?’

मैं सांस रोक लेता हूँ क्या जवाब दूँ ,कठोर व्यवहार का समय है भी और नहीं भी ,एक जीवन चला गया है ,अपने साथ जाने कितने जीवन जीते जी मार कर यह शोक का समय है ,यह रोने का समय है ,यह लड़की को गले लगाकर सांत्वना का समय है ,यह ढाढस देने का समय है ,यही तो मनुष्य के मनुष्य होने का समय है .उसका प्यार ,उसका जीवन ,उसकी दुनिया अंधे कुंए में खो गयी है .वह मेरे से कठोर व्यवहार की अपेक्षा नहीं करेगी पर मैं कठोर हो जाता हूँ एक पल की भी देर किये बिना डेड बौडी को वहां से काले प्लास्टिक बेग में शिफ्ट करने के आदेश देता हूँ जल्दी करो .एक डॉक्टर के लिए यह अगले पेशेंट का समय है जिसे गवाना नहीं चाहिए .

जानता हूँ लडकी उसे देखना ,छूना ,लिपटना सब चाहती है ,वह उसका आखरी स्पर्श याद रखना चाहती है आगे जीने के लिए ,पर मैं एक डॉक्टरहूँ  यह अनुमति नहीं दे सकता .

“नहीं! तुम एक समझदार डॉक्टर हो जानती हो न पोजेटिव केस में पार्थिव शरीर को केवल बी .बी एम् पी {बंगलुरु महानगर पालिका } को ही सुपुर्द किया जाने के आदेश हैं.घर लेजाने के नहीं .सूचना देदो ,उसके घर .”

मैं बाहर निकल कर  रोना चाहता हूँ लेकिन  दरवाजे पर एक और क्रिटिकल पेशेंट आते ही कठोर होकर उसकी जगह खाली  करवाता हूँ , तब तक पेशेंट को दूसरे  पलंग पर लेता हूँ ,लड़की मेरी सहायता करने लगती है.  जानता हूँ इस समय हम सब रोना चाहते थे लेकिन जिंदगी सामने आगयी और रोने का समय चला गया .एक जंग ख़त्म होते होते  एक और जंग हमारे सामने थी हमारे ही अस्पताल की हेड नर्स सिस्टर डिसूजा .जिन्हें अक्सर मैं मदर डिसूजा बुलाता हूँ.जानती थी वे अस्थमा की मरीज है लेकिन मजाल है एक दिन भी ड्यूटी से हटी हों .सिलेंडर एक तरफ करते हुए उन्हें आवाज देता हूँ .उत्तर की अपेक्षा किये बिना .

स्वाति तिवारी ,भोपाल