चलो ना किसी अरण्य में जहाँ महुआ टप-टप टपकता हो

एक यात्रा झाबुआ के जंगल में 

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ऋण मुक्ति का समय ———–

जब महुआ के सारे फूल झर झर कर धरती माँ को अर्पित हो जाते है तब अर्पण को समर्पण में समाहित होते देखा जा सकता है| कहीं दूर तक हवा में फैली मादकता में गूँजता है महुए का स्वर “तेरा तुझको अर्पण”| यही वह समय होता है जब महुआ धरती के ऋण से उऋण होता है| तब वह हल्का निपत्र भारविहीन समर्पित मुद्रा में निशब्द खड़ा दिखाई देता है, धरती वन की माँ है उसे अपने सौन्दर्य अपने श्रृंगार में पेड़ों का यूँ वैरागी हो जाना कहाँ सुहाता है वह उनमें फिर प्राण संचारित करती है और धरती फिर असीसती है—-महुआ! तुम लोक वृक्ष हो फलो फूलो और मेरे वन पुत्रों को पोषण दो| धरती माँ का आदेश महुए ने सदा माना|

वह ग्रीष्म के तपते सूरज को चुनौती देता, अपनी नन्ही नन्ही लाल-लाल कोपलों से फिर पल्लवित हो जाता, उसका तना फिर ढँक जाता| देखते ही देखते बस कुछ ही दिनों में पूरा वृक्ष लहक उठता, वन गा उठता—

अति ही मृदु गति ऋतुपति की

प्रिय डालों पर, प्रिय, आओ,

पिक के पावन पंचम में,

गाओ, वन्दन-ध्वनि गाओ!

प्रिय, नील-गगन-सागर तीर,

चिर, काट तिमिर के बंधन,

उतरो जग में, उतरो फिर,

भर दो पग-पग नव-स्पंदन|

सिहरे द्रुम-दल, नव पल्लव

फूटे डालों पर कोमल,

लहरें मलयानिल, कलरव भर लहरों में मृदु-चंचल!

एक चक्र पूरा होता नया आरम्भ हो जाता यही प्रकृति का नियम है| नए सुकोमल पल्लवों की ताज़ी सुवास भरी छाया पथिक को गर्मी की लपटों से राहत देती—

नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना॥

सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥

बहुत प्रकार के वृक्ष नए-नए पत्तों और (सुगंधित) पुष्पों से युक्त हैं, (जिन पर) भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। स्वभाव से ही शीतल, मंद, सुगंधित एवं मन को हरनेवाली हवा सदा बहती रहती है।

महुए की स्वर लहरी से अनुभूत होती लगता महुआ कह रहा है, “फूल तो झर गए सारे फल उतर गए लेकिन वृक्ष का छायादान अभी शेष है|”

महुआ पूछता मैं कौन हूँ ?——-

एक वृक्ष अपने “लोक” से सहज पूछता है कि मैं कौन हूँ? क्या हूँ? कहाँ हूँ? कबसे हूँ? कितने प्रश्न हैं वृक्ष के पास भी| लोक हमेशा प्रश्नों का जवाब देता है वह कभी निरुत्तर नहीं रहता वह अपने तरीके से उत्तर देता ही है, लोक इनका क्या उत्तर देता है इसी से तय होता है कि महुए का सृष्टि से, समाज से और स्वयं अपने से क्या नाता है? लोक तब उसे उसकी सार्थकता की सृष्टि कथा कहता है, अपनी सांस्कृतिक स्वीकृति देता है कि तुम हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हो? यही उस वृक्ष का परिचय होना चाहिए शेष सब कुछ उसका भौतिक स्वरुप मात्र है| महुए ने अपने आसपास के लोक अपने अरण्य से ये प्रश्न कब, कहाँ, कितनी बार पूछे शायद महुए को भी पता न हो, पर लोक सदा याद रखता है| अरण्य लोक आज भी कहता है कि “हम महुए पर कुल्हाड़ी आज भी नहीं चलाते, पूजनीय हो तुम सहज उपलब्ध हो तो क्या हुआ, अनंत से हमारे पूर्वजों को पोषण देते रहे हो, तुम केवल वृक्ष नहीं हमारे पितरपावन हो|”

वृक्ष के तमाम प्रश्नों के उत्तर स्वत: स्पष्ट हो जाते हैं कि इस जंगली, साधारण समझे जाने वाले, मादक कहे जाने वाले ना मालूम से वृक्ष के अभिप्राय क्या हैं, कम से कम उस समाज के लिए इसके सन्दर्भ बहुत गहरे और व्यापक हैं जिसकी आर्थिक व्यवस्था में, जीवन यापन में, इसके फल-फूल, पत्ते, छाल, लकड़ी सब कुछ उपयोगी हैं| फूल ताजे हैं तो सब्जी है सूखे हैं तो मेवा है, दवा है, दारु है, आहार है, नकदी है, जंगल में जीने का सहारा है, जिसकी सघन छाँव भीषण गर्मी में भी राहत है, जिसकी खुशबू साँसों का नशा है|

महुआ भारत देश के सभी भागों में पाया जाता है| यह उष्ण कटिबंधीय वृक्ष है जो मुख्य रूप से उत्तर भारत और मध्यप्रदेश के मैदानी इलाकों और जंगलों में बड़े पैमाने पर पाया जाता है| यह तेजी से बढ़ता है लगभग 20 मीटर ऊँचाई तक बढ़ सकता है| देखा ही होगा आपने जाने अनजाने इस विशाल छतनार वृक्ष को, कभी किसी अरण्य की सैर करते हुए, कभी सफर करते हुए बसों में बैठे खिड़की से पेड़ गिनते हुए| ना देखा हो तो अब देख सकते हैं शहडोल, छिंदवाड़ा, तामिया, झाबुआ, छतरपुर के खजुराहो मंदिर के आसपास| अलीराजपुर में रहते हुए सोंडवा, छकतला के वनवासियों से एकत्र महुआ शहर में व्यापारियों को सुखाते हुए देखा है मैंने|

मध्यप्रदेश के जंगलों में जो वृक्ष हैं वे आदिम वृक्ष माने गए हैं जिनकी उम्र का कोई अंदाजा नहीं है, गोंडवाना में इसे इरुकामढ़ा कहते हैं| यह वृक्ष लगभग 20-30  वर्ष के बाद ही फूल और फल देने वाले वृक्ष के रूप में विकसित होता है | पूर्ण विकसित तना सामान्यतः मोटे छिलके जैसी छाल वाला, भूरा खुरदुरा होता है| डंठल युक्त जालीनुमा, रेशेदार, हरे एवं चौड़े पत्ते इसकी विशेषता हैं| जब तक इसका जड़-तना स्वस्थहै और कोई कुल्हाड़ी ना चलाये तो यह पूरे लोक को जिसमें पशु-पक्षी, मनुष्य सभी शामिल हैं कई पीढ़ियों तक अपनी शीतल छाया एवं पौष्टिक फल फूल से पोषित करता रहता है| आदिवासी समाज की अर्थ व्यवस्था से जुड़ा यह वृक्ष सर्वहारा समाज का लोक वृक्ष कहा गया है| महुए को जनजातियों का कल्प वृक्ष भी माना गया है| आदिम सभ्यता के विकास की श्रृंखला में सदियों पहले से महुआ देव वृक्ष की भाँति इस लोक में रचा-बसा खड़ा है अपने नि:स्वार्थ भाव से लोक को तारता हुआ|

वनवासी तन-मन से जब थक कर टूट-टूट जाता है जंगल के स्याह अँधेरों में, तब महुआ रस बन कर उतर जाता है आदमी की नसों में| कहते हैं कि यह एक नशा है किन्तु आयुर्वेद कहता है कि कम मात्रा में संतुलित महुआ पान दवा और टॉनिक भी है| इसकी उपस्थिति हिमालय की तराई को छोड़कर दक्षिण तक जंगलों में दूर-दूर तक फैली है| जंगल में स्वछन्द खड़ा यह आदिम मानव को भी कुछ देर स्वछन्द कर देता है|

महुआ एक पतझारी तरुवर

पातहीन पेड़ों पर लगते

स्वादमयी बलवर्धक फल

फूल खिला करते रजनी में

भोर भये जो गिरते भू-तल|

महुआ जब कुचियाये—–

पत्तियाँ इसके फूलने से पहले फागुन-चैत में सब झड़ जाती है| पत्तियों के झड़ने पर डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलते हैं कुची जैसी कलियों से महुआ कूचियाता है कलियों के खिलने पर कोष के आकार का पीले सफ़ेद फूल खिलते हैं जो गूदेदार और माँसल होते हैं और दोनों सिरों पर खुला होता है इसके भीतर जाने कितने जीरे होते हैं, यही फूल खाने के काम में आता है जिसे “महुआ” कहा जाता है|

महुआ लोक में एक मुरझाया हुआ फल माना गया है जो अपने रस से ही भस्म हो जाता है| स्वाद में बेहद मिठास लिए यह फल महु मधु का अपभ्रंश है| एकआदिम संस्कृति को बयाँ करता महुआ आज मादकता का पर्याय हो गया है जबकि यह एक मौसम की  पहचान है, होली की लय और ताल में मान्दल की थाप है और थिरकते हुए पैरों की पदचाप है| यह फल शीतल, शुक्रजनक, बलवर्धक, वात-पित्त, तृषा-ताप हरक है| खास यह है कि यह फूल दिन में कभी नहीं टपकते किन्तु आधी रात जब हवाओं से खेलती है फूल अपनी ही खुशबू से खुद बौरा जाते हैं तब ब्रह्म मुहूर्त में ये सावन की बूँदों जैसे झरने लगते हैं तब ऐसा लगता है कि अल सुबह उजियाते अँधियारे में लगता है कि चाँदनी ने अपने चमकते तारे बिखेर दिए हैं, यह एक अद्भुत अनूठी अनुभूति है, मन कहने लगता है यहाँ चाँदनी बिछी हुई है अवनी और अम्बर में|

तब सारा अरण्य महका और बहका सा हो जाता है| इन छोटे छोटे सफ़ेद पीले फूलों की झमाझम बरसात स नथुनों में सौंधी सी मादक धमक भर भर जाती है| इतनी मादकता कि जंगली भालू अक्सर पगला जाते हैं और महुआ खाने पहुँच जाते हैं| इतना रसदार फल फूल की स्पर्श मात्र से रस टपकने लगता है तो कौन न पगलाए? सब निकल पड़ते हैं उस अरण्य लोक के रहवासी दादा-दादी हों या नाती-पोते, सब चल देते हैं छोटी छोटी टोकरियाँ लेकर महुआ चुनने| भर-भर टोकरियों से घर आता है रस भरा फल मेवा बनने| तब बनती है घर घर महुए की रोटी, महुआरी मीठी पूरी|

यही महुआ जब गलता है तब उबल उबल कर नशा यानी शराब बन जाता है| आयुर्वेद का सबसे महत्वपूर्ण फल बस यहीं अपनी असभ्य संस्कृति की भेंट चढ़ जाता है| संस्कृत में यह शराब माधवी और बोलचाल में ठर्रा बन अपने अस्तित्व को खुद ही रुसवा कर देता है| पशु पक्षी सब इसके दीवाने हो जाते हैं| आदिवासी जीवन का संबल तासीर में ठंडा औषधीय गुणों से भरपूर होता है, इसमें सालों साल तक संगृहित रहने की क्षमता होती है अनाज की तरह, इसलिए इसे भूख प्यास का लड्डू भी कहते हैं| यह सूख कर छुहारे सा स्वाद देता है आदिवासी बच्चे इसे किशमिश जैसा चबाते हैं| किन्तु लोकसंस्कृति में अब वे घर नहीं रहे जहाँ रात को चूल्हे की आग पर मंद मंद आँच में महुआ तिल्ली के साथ सिंकता था सुबह सबेरे इसका लड्डू खा कर दिन भर खेतों में काम हुआ करता था वो लड्डू जो लाटा कहलाता था| व्रत -पर्व परमहिलाएं इसकी डोबरी पूड़ी बनाती थी| कहते हैं सम्पूर्ण ब्रह्मांड में किसी फूल से इतने व्यंजन नहीं बनते जितने अकेले महुआ से बनते रहे हैं| ये वे पुष्प हैं जो गिरते नहीं टपकते हैं| ना खाया हो तो खाकर देखो सूखे महुए और पोस्ट के दाने साथ भुन-कूट कर|

मृग भालू मीलों चल कर

रात्रिकाल फल खाने आते

चूर नशे में हो

व्याघ्र की गोली खाते

प्राण गँवाते

इनसे मदिरा भी बनती है

तेल निकलता गाढ़ा पीला

इन पुष्पों का विक्रय करके

पेट पालता गौंड कबीला

मन कह रहा है एक बार फिर चले चलो प्रिय कुछ देर किसी अरण्य में जहाँ महुआ बस खिलने ही वाला है, रात आधी जब महुआ झरेगा अवनी पर हम चुनेगें कुछ अपने तुपने सपनों के बिखरे बिखरे चाँदनी टुकड़े| साथ ले आयेंगे रस भरी महुआरी, नाचेंगे गायेंगे मांदल की थाप पर कुछ देर थिरक थिरक कर महुए की मादकता में रम जायेंगे| चले चलो प्रिय वहीं अरण्य में जहाँ महुआ कुचियाया है|

महुए का फल————

वानस्पतिक नाम मधुका-लोंग्फोलियो है, इसके एक वृक्ष से 20 से 200 किलो तक बीज प्राप्त होता है| इसका तेल सामान्य तापमान पर जम जाता है इसीलिये इसका उपयोग त्वचा के रखरखाव के लिये क्रीम साबुन इत्यादि में किया जाता है| इसके फूल में शर्करा 52.6%, सेल्युलोज 2.4%, एल्ब्यूमिनाइड 2.2% होता है बाकी जल होता है| इसकी गिरी में 50-55% तेल होता है| अल्पमात्रा में कैल्शियम, आयरन, पोटेशियम, एंजाइम और अम्ल भी होते हैं| महुआ रक्तवर्णी वृक्ष है। महुआ की  मंजरियों  का रंग हल्का लाल ही होता है, जिनके गर्भ में रससिक्त श्वेत शंकु आकार के पुष्प पलते रहते हैं| माना जाता है किइसका सेवन करने से सायटिका जैसे भयंकर रोग में लाभ होता है। महुआ से बायोडीज़ल और पेट्रोल को लेकर काफी संभावना जतायी जा रही है|  छत्तीसगढ़ राज्य अक्षय ऊर्जा प्राधिकरण ने भी महुआ के बीज से निकले तेल और महुआ के फूल को लेकर कई प्रयोग किए हैं|

परवल के आकार का इसका फल कलेंदी कहलाता है| इसे छीलकर उबाल कर एक स्वादिष्ट सब्जी बनायी जाती है और बीज जिसे गुल्ली कहा जाता है उसका तेल निकाला जाता है| महुआ जनजातीय अंचल का आर्थिक आधार और अर्थ व्यवस्था का मुख्य घटक है, जिसके संग्रहण के बाद बिचोलिये एक बर्फ के लड्डू या एक पानी की लाल गुलाबी कुल्फी या कुछ और सस्ती रोजमर्रा की सामग्री के बदले डिब्बे से घन के हिसाब से बहुमूल्य महुआ लुट लेते हैं| भोला भाला आदिवासी कुछ नगद के बदले दे देता है तीन गुना ज्यादा कीमत का महुआ क्योंकि उसके लिए महुआ सहज उपलब्ध एक वन उपज के रूप में कल फिर चुन लेगा कुछ और महुआ यही सोच कर| उनके यहाँ तो जन्म से मरण तक महुआ का उपयोग होता ही है, उनके समाज में महुआ रसपान आतिथ्य सत्कार की सामग्री है| भोले भाले होते हैं वे वनवासी जो भोलेनाथ के अवतार बूढा देव, ठाकुर देव, बड़की माई से लेकर सभी देवी-देवताओं को पित्तर पूर्वजों को भी महुआ की मदिरा अर्पित करते हैं|

स्त्री हो या पुरुष जनजाति सबको मदिरा की स्वीकृति देती है —शायद उनके गम, उनकी तकलीफों से महुआ कुछ देर ही सही उन्हें राहत देता है|

महुआ के नीचे, यह खेल हँसी

यह फाँस फँसी, यह पीर किसी से मत कह रे

महुआ के नीचे, अब अब दिन बहुरे

अब जी की कह रे, मन वासी पी के मन बरसे, महुआ के नीचे मोती झरे

 

डॉ स्वाति तिवारी