दीवाली पर रामराज्य का मर्म : जननायकों के कर्म व प्रजा के सब्र का चरमोत्कर्ष

1688

बुराई पर अच्छाई की जीत के महापर्व विजयादशमी मनाने के बाद अब आज  दीवाली मनाकर हम सब रामराज्य की कल्पना से अपने आपको जबरदस्ती खुश करने का असफल प्रयास करेंगे। असफल मैंनें इसलिए कहा कि जब तक हमारे राष्ट्रीय व सामाजिक चरित्र में, हर भारतीय के चरित्र में रावण के संस्कारों का जरा सा भी अंश रहेगा हम  स्वयं को राम राज्य के आने का किंचित भी विश्वास नहीं दिला पायेंगें। आज के कालम में सर्वप्रथम हम राम-राज्य के भावार्थ को जानने का ही प्रयास करेंगे। यह भाजपा के  राम-राज्य से करोड़ों कोस दूर है। कांग्रेस का गांधीवाद भी इससे जमीं-आसमां जैसी दूरी पर है। तो तीसरे मोर्चो के समाजवाद का तो मैं यहां कोई उल्लेख करना भी जरूरी नहीं समझता। खैर। रामराज्य की चर्चा तो प्राय: सभी करते हैं। रामराज्य की कल्पना या उपमा या अलंकरण की बातें बुद्धिजीवी भी प्राय: करते रहते हैं। पर रामराज्य के मूलतत्वों को लेकर भारतीय जनमानस में, उतना गहन चिन्तन कम ही हुआ है जितना कि भारतीय संस्कृति की रक्षा हेतु-आवश्यक है। जो चिन्तन हुआ भी तो वह संत-महात्माओं, आध्यात्मिक गुरूओं व विद्वान वक्ताओं, विद्वान लेखकों के स्तर पर हुआ है। सामाजिक व राजनैतिक स्तर पर यह दुर्भाग्यवश नहीं हो पाया है या हुआ भी है तो इसमें दिखावा ही ज्यादा रहा है। पर हमारी सामाजिक व राजनैतिक त्रासदियों के चलते आम आदमी रामराज्य के मूल तत्वों को आत्मसात् नहीं कर पाया है। अत: आज की परम आवश्यकता यही है कि राम के देश का जन जन अपने आदर्श मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के रामराज्य के मूल तत्वों को आत्मसात करे, तभी वह अपने, समाज व राष्ट्र के जीवन को सार्थक बना सकेगा। अयोध्या में राम जन्म भूमि पर राममंदिर बन जाने पर भी राम राज्य आने वाला नहीं हैं। यह सच्चाई हम जितनी जल्द समझ लें अच्छा है। रामचरित-मानस में तुलसीदास ने संकेतों में ही रामराज्य के सभी गूढ़ मूल तत्व बड़ी सहजता से रेखांकित किए हैं। रामराज्य का अर्थ बहुमत का राज्य नहीं। रावण का जहां निरंकुश राज्य है तो  दशरथ का प्रजाप्रिय राज्य है। फिर भी यह राजतंत्र ही हुआ। राम बहुमत को नहीं सर्वसम्मत को मानते हैं। आज तो भारतीय लोकतंत्र में किसी पार्टी को यदि एक मत का काम चलाऊ बहुमत भी मिल जाए तो वह इसे अपनी नैतिक व ऐतिहासिक जीत बताती है। राम राज्य में सबके हितों को समान महत्व दिया गया है। श्री राम सर्व में किसी तरह का संशोधन स्वीकार करने को तैयार नहीं। इसी कारण वे दो व्यक्तियों के मत को भी इतना महत्व देते हैं। लोग तो यह कहेंगे कि दो मतों का क्या महत्व हैं? पर श्री राम मानकर चलते हैं कि दो व्यक्ति भी अगर विरोध करते हैं तो उसके कारण को जानना चाहिए। उनके मनोभावों को समझना चाहिए। राम एक-एक व्यक्ति के मनोभाव पर विचार करते हैं। कैकेयी व मंथरा रामराज्य का विरोध क्यों कर रही है? इसका एक सहज उत्तर तो यह दिया जा सकता है कि दोनों के चरित्र में दोष है पर राम ऐसा नहीं मानते। राम यह मानते हैं कि इनके मन में कोई न कोई आशंका है। इस घटना को तुलसीदास दूसरे कोण से देखते हैं। दशरथ जी रामराज्य बनाना तो चाहते हैं पर रामराज्य की उनकी कल्पना सिर्फ इतनी है कि कल स्वर्ण सिंहासन  देंगे और रामराज्य स्थापित हो जाएगा। पर यह तो परम्परागत राजतंत्र होता। ठीक वैसा ही जैसा कि दशरथ, अज या दिलीप का था। रामराज्य तो अंत: करण का समग्र परिवर्तन है। जब तक समाज पूरी तरह नहीं बदल जाता, तब तक रामराज्य भला कैसे साकार हो सकता है? परोक्ष रूप में तो अयोध्या में नैतिकता का राज्य है पर यहां भी संस्कारों की दुर्बलता है। लंका में यह भयावह रूप में है तो अयोध्या में सूत्र या बीज रूप में है। जब लोभ से अंत: करण आक्रान्त हो जाता है  तो कैकेयी का कोप भवन में जाना स्वाभाविक ही है। तीन प्रमुख विकारों लोभ, क्रोध व  काम में से लोभ व क्रोध तो स्वयं कैकेयी के रूप में प्रकट हो चुके है, बचा काम तो वह दशरथ जी ने अपने व्यवहार से रेखांकित कर दिया। कैकेयी के प्रति उनकी आसक्ति सर्वज्ञात है। अब जहां लोभ, क्रोध व काम तीनों आ जाएं तो रामराज्य कैसे बन सकता है? इस अवसर पर पहली बार तुलसीदास जी ने दशरथ की आलोचना की है। कैकेयी राम को बुरा नहीं पर साधु मानती है। अत: दशरथ जी से पूछती है कि बताईये तपस्या श्रेष्ठ है या भोग? यहां भोग से अभिप्राय सत्ता से है। धर्म का विकृत रूप यहां साफ दिखता है। तपस्या श्रेष्ठ है यदि दूसरे का लड़का करे तो, सत्ता श्रेष्ठ है यदि हमारे बेटे को मिले। भारतीय राजनीति में विगत 7 दशकों से जनसेवा का यही पाखंड चरमोत्कर्ष पर है। समाज का यह दर्शन तो रामराज्य नहीं निर्मित कर सकता। तब रामराज्य कैसे बनता? विगत दिनों मैंने एक मुक्तक लिखा था,आज दीवाली पर गंभीरता से पढ़िए-                                                   *विद्वता जीवन की आधारशिला हो नहीं सकती,                अन्याय सहना कभी स्वाधीनता हो नहीं सकती।                 राम ने मनुष्य के स्वत्व का व्याकरण लौटाया,                     बिन त्याग के राजनीति में नैतिकता हो नहीं सकती।।*                                                                                      एक युद्ध श्री राम ने लंका में लड़ा व दूसरा युद्ध भरत जी ने अयोध्या में लड़ा। दोनों युद्धों के समापन पर रामराज्य का निर्माण हुआ। राम का युद्ध बाहरी है तो भरत का आंतरिक। राम का त्याग सर्वज्ञात है पर भरत का त्याग कितने रामभक्त पूरी शिद्दत से समझ पाए हैं अब तक।  जब तक अयोध्या में मंथरा व लंका में शूर्पणखा का चिन्तन है, रामराज्य नहीं बन सकता। इन दोनों विचारधाराओं का पराभव होना जरूरी है। त्रेता युग का यह सत्य ही आज का सत्य भी है भविष्य का भी रहेगा। जब भी रामराज्य बनेगा, यह मंथरा व शूर्पनखा की विचारधारा खत्म होने के बाद ही बनेगा। आज तो हर पार्टी में मंथराओं व शूर्पणखाओं की भरमार है। पार्टियों की तो छोडि़ए हर बड़े नेता के राजनैतिक परिवेश में व  हर सरकारी दफ्तर में हैं दलालों के रूप में ।  आम जनता की रक्षा के नाम पर बनाये गये पुलिस थानों चाहे वह इटारसी का हो या कहीं का भी,जनता इनके प्रवेश द्वार में प्रवेश करने मात्र की कल्पना से ही सहम जाती हैं। पुलिस थानों में  फरियादियों को भी अपराधियों की दृष्टि से देखने व व्यवहार करने के  एक उदाहरण से ही आज की राजनीति व आज की सत्ता का घिनौना चेहरा सामने आ जाता हैं। पहले राजा के दरबार में फरियादी की सुनवाई खुलेआम होती थी। अब तो दरबार में जाने के लिए भी दलालों की जरूरत पड़ती हैं। सत्ता के यह दरबार थानों,आदि के शासकीय विभागों में देखे जा सकते हैं। यदि राम यह कहते हैं कि अन्याय नहीं सहूँगा व लोभ के विरूद्ध लडूँगा तो यह लड़़ाई लोभ के विरूद्ध लोभ की ही होती है। ऐसी लड़ाई तो आज हमारे समाज में प्रतिदिन हो रही है। बंटवारे के लिए लड़ाई तो समाज की शाश्वत जंग है। अत: राम ने लोभ के विरूद्ध यह लड़ाई त्याग से लड़ी, भरत ने भी ऐसा ही किया। इसी तरह राम ने शूर्पणखा रूपी काम के विरूद्ध लड़ाई वैराग्य से लड़ी। तुलसीदास ने कहीं भी कैकेयी को श्रेष्ठ स्थान नहीं दिया पर रामायण मेें राम बार बार केकैयी की प्रशंसा करते हैं। यह राम की उदारता का परिचायक है, कैकेयी की महिमा का नहीं। स्पष्ट है कि रामराज्य वैचारिक या ह्रदय की क्रान्ति का प्रतीक है। भाजपाई जब तक इस कड़वे सत्य को आत्मसात नहीं करेेंगे उनको राम-मंदिर की स्थापना का सार्थक मर्म समझ नहीं आ पायेगा।  लोग सोचते हैं कि भले ही सूर्यवंश की परम्परानुसार राज्य ज्येष्ठ व्यक्ति को मिले पर यह परम्परा अनुचित है। जिस सूर्य ने आज तक प्रकाश देने में छोटे बड़े का भेद नहीं किया उसी सूर्यवंश में छोटे भाई को राज्य न देकर बड़े को देना मानो सूर्य के आदर्श को ठेस पहुँचाना है। वे विचार करते हैं कि या तो राज्य सब भाईयों को मिलना चाहिए या छोटे भाई को। राम की यही भावना रामराज्य का मूलाधार है। उधर भारत जी का चरित्र भी रामराज्य की अस्मिता व मर्यादा को ही रेखांकित करता है।

भरत को क्या जरूरत थी, राजधानी की सीमा से बाहर झोंपड़ी में रहकर सिंहासन पर राम की खड़ाँऊ रखकर शासन को राम-राज्य की सेवा के रूप में करने की। किन्तु भरत जी ज्ञानी थे, जानते थे कि राज्य के सिंहासन पर सिर्फ और सिर्फ राम का ही अधिकार हैं? पर आज कलियुग में हम क्या परिवार के छोटे पुत्र में ऐसे चरित्र व संस्कार के दर्शन करने की कल्पना भी कर सकते है? पिता या गुरू या राजनैतिक पार्टी द्वारा प्रदत्त गादी भी अब तो ऐसी संपत्ति बना दी जाती है, जिस पर परिवार या गुरूकुल के सदस्यों के ऐश्वर्य, सांसारिक सुखों, यश व धन की कामनाओं की पूर्ति करने का दायित्व हो। पिता या गुरू या राजनैतिक पार्टी द्वारा तय किए गए उत्तराधिकारी को कमजोर करने की हर संभव कोशिशों के साथ परिवार के महत्त्वाकांक्षी सदस्य अथवा गुरू के महत्त्वाकांक्षी शिष्य अपनी अलग दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। वे अपने आप को असली राम व अपनी सत्ता को ही असली अयोध्या का असली रामराज्य घोषित करने में नहीं चूकते। तब ऐसे, आज के कालखंड में रामराज्य के मूल तत्व आत्मसात् कर  पाना आसान नहीं। भरत जी का धर्म-विवेचन काफी सूक्ष्म है। वे गुरू वरिष्ठ से पूछते हैं कि मेरे सिंहासन पर बैठने से सत्य की जीत होगी या असत्य की? पिता जी तो सत्य का राज्य चाहते थे पर असत्य रूपी मंथरा के षडयंत्र से राम को बनवास दे दिया गया अत: मैं यदि राज्य स्वीकार कर लूं तो मंथरा का संकल्प पूरा होगा या पिताश्री का। जो दिखाई दे रहा है वह सत्य है या शब्द के पीछे का भाव सत्य है। महात्मा गांधी ने यही यक्ष प्रश्र किया था- सबसे। नतीजा यह हुआ कि उनको इस अपराध मे लिए गोली खानी पड़ी। असमय की मौत मिली। क्या धर्म को अधर्म के हाथ का शस्त्र बनने दिया जाए। यह समस्या समाज में कई बार आती है। अधर्म की चतुराई यह है कि वह स्वयं अपने बल से तो लाभ पाता ही है, साथ ही धार्मिकों की सत्य निष्ठा से भी लाभ उठा लेता है। जैसे कि प्रसंग आता है कि रावण यज्ञ करके शक्ति प्राप्त करने की कोशिश करता है, यह सोचकर कि राम तो यज्ञ रक्षक  है, वे मेरे यज्ञ को नष्ट नहीं करेंगे। इस प्रकार अधर्म, धर्म से लाभ प्राप्त करने की कोशिश करता है। पर राम अपनी सेना को आदेश देते हैं कि रावण का यज्ञ नष्ट कर दो। अर्थात् राम यह संदेश देते हैं कि जो धर्म, अधर्म को पनपाये या बढ़ाए वह धर्म ही नहीं है, अत: उसका नाश कर देना ही ठीक है। भाजपा व शिवसेना मेरी यह बात गंभीरता से समझेंगी तो देश हित में अधिक अच्छा रहेगा। जो कठोर दंड जम्मू कश्मीर के रावणों को केंद्र सरकार दे रही है, वही देश के हर राज्य में होना चाहिए। रावण की संस्कृति, रावणीय चिंतन का सर्वनाश करना ही होगा। श्री कृष्ण ने भी ऐसा ही किया था । महाभारत काल में सूर्य का बेटा कर्ण है और इन्द्र का बेटा अर्जुन। वहीं रामायण काल में सूर्य का पुत्र सुग्रीव है और इन्द्र का पुत्र बाली। रामायण काल में भगवान् ने सूर्य के पुत्र सुग्रीव की रक्षा की, उससे मित्रता की तथा इन्द्र के पुत्र का वध किया। वहीं महाभारत काल में भगवान् ने इन्द्र-पुत्र अर्जुन की रक्षा की एवं सूर्यपुत्र कर्ण का बध कराया। अर्थात् कौन किस लक्ष्य की पूर्ति में लगा है, यही महत्त्वपूर्ण है। ऐेसे प्रकाश की रक्षा  नहीं करनी चाहिए जो असत्य को आलोकित करे। असत्य की प्रतीक मंथरा ने सत्य का लाभ लेना चाहा। दथरथ जो सत्यवादी है। जब इस संबंध में चित्रकूट में विवाद होता है तो राम कहते हैं  कि पिता श्री, मां कैकेयी के ऋणी थे। बिना मां का ऋण चुकाएं वे मुझे राज्य देने लगे थे। तो मां को यह कहने का पूरा अधिकार था कि पहले मेरा ऋण चुकाए, फिर मनमानी कीजिए। अब सवाल यह उठता है कि सही कौन है भरत या राम?धर्म की वैसे तो कोई निश्चित व्याख्या नहीं होती पर उसकी एक प्रमुख कसौटी यह है कि जिसमें स्वार्थ का त्याग करना पड़े, वहीं धर्म है। राम ऐसी व्याख्या करते हैं जिससे उनको त्याग स्वीकारना पड़े। अत: आत्मत्याग ही धर्म की सही व्याख्या है। यही रामराज्य की भी आधारशिला थी और जब इस दर्शन को आत्मसात् किया गया तभी रामराज्य बन पाया। इस तरह आत्मत्याग रामराज्य का एक प्रमुख मूल तत्व है। वहीं द्वापर युग में भीष्म ने शरशैय्या पर लेटे लेटे पांडवों को राजधर्म का उपदेश देते हुए धर्म की बहुत सरल व सुंदर परिभाषा की, जिसे मैंने अपने इस मुक्तक में अभिव्यक्त किया था करीब 1 साल पूर्व। देखिए-                                                        *संतों ने बताया, क्या हैं पाप पुण्य कर्म                             शास्त्रों ने बताया क्या हैं कर्म के मर्म।                          भीष्म ने शरशय्या से पांडवों से यह कहा,                          अधिकारों, कर्तव्यों का संतुलन ही है धर्म।*                        आज यही आपदा काल है। अधिकांश लोग सिर्फ अपने अधिकार जानते हैं, कर्तव्य नहीं। रामराज्य में न तो किसी व्यक्ति को काल का दु:ख था, न कर्म का, न स्वभाव का, न गुण का । यह सब आखिर कहां चल गया? स्पष्ट है कि काल, कर्म व स्वभाव के इन दु:खों को राम व उनके परिवार ने स्वयं झेल लिया था व अपना आनंद सारे संसार को बाँट दिया था। अर्थात कर्तव्यों की गंगा में अधिकार तो विलुप्त हो गए थे। यही रामराज्य है। आज की भारतीय राजनीतिक में इस तत्व की सख्त जरूरत है, तभी राजनीति से लोकहित सध सकेंगे। आज की सत्ता व आज नेता तो त्याग की बात तो बहुत दूर की है अपना खजाना भरने के लिए आम गरीब जनता रूपी प्रजा का हक छीनने में भी उनको शर्म नहीं आती। राजनैतिक व प्रशासनिक भ्रष्टाचार के आज के चरमोत्कर्ष के इस काल खंड में जब भी मैं दीवाली पर असंख्य दीप जलते देखता हूँ तो मुझे इन दीपों पर  बड़ा तरस आता हैं और ऐसा लगता हैं मानों जलते हुए यह दीपक हमारी शर्मनाक नासमझी पर ठहाके लगाकर हंस रहे हों। मेरा एक मुक्तक इसी त्रासदी को रेखांकित करता है-                                                               *नेत्रहीन निःसहाय प्राणों की बाती से कैसी दीवाली,            अश्रु मिश्रित तेल दीपों की थाली से कैसी दीवाली।            धुंआ उगलते दीपों से कैसे सड़कों की रात कटे,                  कोई बताये महलों की दीप्ती से कैसी दीवाली।।*                                                                                                   राम की वनयात्रा व भरत का त्यागशील राज्य ही रामराज्य की नींव हैं। इस तरह यह स्पष्ट हुआ कि रामराज्य का श्री गणेश तो राम ने अपने वनवास में ही किया। सर्वप्रथम चित्रकूट में ही रामराज्य बनता है। भरत को चित्रकूट में सर्वत्र रामराज्य दिखता है।  चित्रकूट में मोह का विनाश हो चुका है, विवेक का राज्य है, शांति व सुमति वहां की रानियाँ है। यही रामराज्य का वह विस्तार है जो आगे चलकर प्रकट होने वाला है। मानों दोनों भाईयों ने बंटवारा कर लिया हो। दोनों लड़ाई लडऩे जा रहे हैं। एक को लंका में तो दूसरे को अयोध्या में लडऩी है लड़ाई। राम की लड़ाई तो दिखाई भी देती है पर भरत का युद्ध तो दिखाई भी नहीं देता। गुरू वशिष्ठ जब भरत जी से कहते हैं कि राजा के बिना समाज उच्छृंखल हो जाएगा। तब भरत जी कहते हैं कि सत्ता को अन्यायपूर्वक प्राप्त करने वाला, कैसे  न्यायपूर्वक राज्य कर सकता है? बहुत गहरी बात कही थी भरत जी ने जो आज के संदर्भ में भी उतनी ही प्रांसगिक है। चाहे इटारसी हो या देश का कोई भी अन्य शहर । राम राज्य के मूल तत्त्वों में एक और अत्यन्त सशक्त तत्व राजा का प्रजा के अंतिम व्यक्ति तक से आत्मीय प्रेम का आदर्श है। राम नीच व्यक्ति से भी सिर्फ दया नहीं करते अपितु उससे स्नेह भी करते हैं। राम न तो किसी की तुच्छता रेखांकित करते हैं, न ही स्वंय की श्रेष्ठता। केवट प्रसंग से भी यही तत्त्व स्पष्ट होता है। राम जब किसी को कुछ देते हैं तो सामने वाले को बड़ा बना देते हैं। क्योंकि उनका दर्शन ही यह है कि यदि देने वाले ने पाने वाले को बड़ा नहीं बनाया तो देने की सार्थकता ही सिद्ध नहीं होती। इसलिए कवितावली में तुलसीदास कहते हैं कि मांगना है तो राम से मांगना चाहिए। राम यही संदेश देते हैं कि लेने देने की सार्थकता तो तभी है जब वह देेेने वाले के अंत: करण से अहंकार को मिटा दे व लेने वाले के मन से हीनता को। यही तो रामराज्य की अद्वितीय नैतिकता है। पर आज सबकी अपनी अपनी अलग अलग लंका है। राजनीति की लंका बहुत भयावह है। ब्यूरोक्रेसी की लंका भी बड़ी मायावी है।धर्म व अध्यात्म की अपनी अलग अलग स्वर्णिम लंकाएँ हैं। आतंकवाद भ्र्ष्टाचार धर्मान्धता की अपनी अलग अलग लंकाएँ हैं।  स्थानीय निकायों की भी अपनी अलग अलग कई लंकाएँ हैं।जहां भ्र्ष्टाचार का रावण राज करता है।हालांकि अपवाद हर जगह हैं। तभी यह देश अभी तक अपने संस्कारों व चरित्र को पूरी तरह खत्म होने से बचाये हुए है। और हाँ कलयुगी रिश्तों की अपनी अलग लंकाएँ हैं जिनमें बेटे आज  माँ बाप को पाल रहे हैं नाराज़ हो जाएं तो पत्नी के कहने से माँ बाप को घर से भी निकाल देते हैं। भाई भाई को मार रहा है।आज के दौर में जब धन सर्वोपरि बन गया है, रामराज्य का यह दर्शन, समाज व देश के लिए अमृततुल्य ही है। पर क्या आज देश पर शासन करने वाली केंद्र/राज्य सरकारों, जननायकों व ब्यूरोक्रेट्स को इस चिन्तन में कोई रूचि होगी। ऐसी रूचि प्राय: देखने को नहीं मिलती। पर यदि उपरोक्त में कोई एक भी इस चिन्तन को आत्मसात कर पाया तो मेरा लिखना सार्थक होगा। वरना आज तो दीवाली पर मैं अपने राम से जो प्रार्थना कर रहा हूँ, वह मेरे इस मुक्तक से रेखांकित होता है-                         *हे राम शोषितों को दो अपनी  करुणा,                              दीनता को दो तुम्हारी शक्ति अरुणा।                                  झुके नहीं सामने वैभव के सत्य, प्रेम,                               जीवन धारा में बहती रहे भक्ति वरुणा।*                           अन्यथा जिस तरह मुझे उपरोक्त मुक्तक लिखना पढ़ा, हमें भोगना भी पड़ेगा और फिर मेरे इस मुक्तक को किसी कटाक्ष के रूप में कोई न देखे।                                                  *उत्सव लौटे राम अयोध्या मना रहे,                            मर्यादा को पर  हाशिया बना रहे।                                भीतर कितना तम पता नहीं  हमें,                                    और मुंडेरों पर दीपक सज़ा रहे।।*