महेन्द्र सेठिया: निश्छलता और पारिवारिकता उनके डीएनए में थी..

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मीडियावाला परिवार की और से सादर विनम्र श्रद्धांजलि

महेन्द्र सेठिया: निश्छलता और पारिवारिकता उनके डीएनए में थी..

महेन्द्र सेठिया यूं तो ‘नईदुनिया’ इंदौर के भागीदार मालिक थे, लेकिन सह्रदयता, सहजता और निरअहंकारिता ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वो ऐसे मालिक थे, जिसके लिए सहकर्मी और अधीनस्थ परिजन की तरह थे। निश्छल मन उनके व्यक्तित्व की सुंदरता थी। महेन्द्रजी अखबाररूपी परिवार के संरक्षक थे, परिपालक थे।
‘नईदुनिया’ जैसे प्रतिष्ठित अखबार में पत्रकारीय मूल्यों को गढ़ने के साथ-साथ पारिवारिक मूल्यों के संवर्द्धन में महेन्द्रजी का योगदान अनुपम था। किसी भी तरह का मालिकपन न तो उनके व्यवहार से झलकता था और न ही उनकी देहभाषा से। वे सदैव एक हंसमुख, मिलनसार और अपनो की मदद के लिए तत्पर रहने वाले इंसान थे। मैं जब नईदुनिया इंदौर में उपसंपादक था तब वो प्रांतीय विभाग के प्रमुख हुआ करते थे और एक श्रमजीवी पत्रकार की तरह पूरी डेस्क को समन्वित करते थे। इसका एक कारण यह भी था कि भागीदार मालिक का पुत्र होने और बाद में स्वयं मालिक होते हुए महेन्द्रजी ने अपने पत्र कारीय सफर की शुरूआत उसी अखबार में प्रूफ रीडर के तौर पर की थी और अनुभव के साथ आगे बढ़े थे।
यही कारण था कि वो सहयोगी पत्रकारों की पूरी इज्जत करते थे और यथा संभव अपने साथियो को गाइड भी करते थे। ‘इंडिया टुडे’ पत्रि का का जब हिंदी संस्करण ‘देश की भाषा में देश की धड़कन’ की टैग लाइन की साथ शुरू हुआ तो आरंभिक अंक में महेन्द्र सेठिया का एक गंभीर आलेख प्रकाशित हुआ था, जिसकी काफी चर्चा रही थी। यानी मालिक होने के साथ-साथ वो पूर्ण और सुयोग्य पत्रकार भी थे।
उन्हें दूसरों की मदद करना और वो भी किसी अहंकार के बिना मानो महेंन्द्रजी के डीएनए में
था। एक प्रसंग मैं कभी नहीं भूल सकता। यह 1988 की बात है। पारिवारिक कारणों से मैंने नईदुनिया के मालिक और प्रधान संपादक अभय छजलानीजी से अनुरोध किया था कि वो संभव हो तो मुझे इंदौर से तब नए खुले भोपाल संस्करण में स्थानांतरित कर दें।
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अभयजी ने हां कहा। लेकिन करीब एक माह तक इस दिशा में बात आगे नहीं बढ़ी। मैं थोड़े तनाव में था। पता नहीं भोपाल भेजेंगे या नहीं। लेकिन एक दिन अचानक महेन्द्रजी ने दोपहर में मुझे बुलाकर कहा- अजय तुम्हें आज ही भोपाल निकलना है। तैयारी कर लो। और हां, अपने अखबार की टैक्सी रात को भोपाल जाती है, उसीसे चले जाना। तुम्हारा किराया भी बच जाएगा। मैं खुशी से उछल पड़ा। मैंने कहा-सर, मैं दो घंटे में सामान लेकर आता हूं। मैं जैसे ही दफ्तर से जाने लगा तो महेन्द्रजी ने कहा कि अरे, रूक। तेरे पास पैसे वगैरह हैं कि नहीं ? मैंने कहा हैं सर..! लेकिन उन्हें भरोसा नहीं हुआ। प्यार से बोले- दूसरे शहर जा रहा है, थोड़े ज्यादा पैसे पास होने चाहिए। ऐसा कर मैं तुम्हें एडवांस देने का बोल देता हूं। मैंने कहा कि ठीक है। लेकिन महेन्द्रजी का अपनापन कि वो अपनी कुर्सी से उठकर खुद अकाउटेंट की टेबल तक आए और कहा कि ये अजय भोपाल जा रहा है। इसे पांच सौ रूपए दे दो और ये एडवांस मेरे नाम लिख देना। मुझे यह देखकर हैरानी हुई।
महेन्द्रजी ने सौ-सौ के पांच नोट मुझे थमाते हुए कहा कि जब तेरी सुविधा हो लौटा देना। उन्हें शायद याद भी नहीं रहा होगा, लेकिन कुछ समय बाद मैंने उन्हें पैसे लौटा दिए। बाद में पता चला कि उन्होंने एडवांस अपने नाम इसलिए लिखवाया था कि यदि एडवांस मेरे नाम होता तो ये पैसे मेरे वेतन से कटते। महेन्द्रजी नहीं चाहते थे कि नई जगह पर मुझे किसी तरह की भी आर्थिक दिक्कत हो।
परेशानी को कई बार बिना कहे समझ जाते थे और उसकी हर संभव मदद के लिए उद््यत रहते।
निराभिमान उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थी। उनकी आवाज तेज थी, लेकिन उसमें कर्कशता कभी नहीं झलकती थी। वो अपनी मर्यादाअों को जानते थे और सामने वाली की प्रतिभा का आदर भी करते थे। वो कभी कभी गुस्सा भी होते थे। लेकिन उसमे भी एक सात्विकता होती थी।
ऐसा ही एक प्रसंग नईदुनिया इंदौर में मेरे प्रशिक्षु पत्रकार रहते हुए घटा था। एक बार किसी लेख में महेन्द्रजी की प्रशंसा में एक पंक्ति छप गई थी। यह उनके किसी परिचित ने लिखा था और सीधा महेन्द्रजी को दिया था। उन्होंने भलमनसाहत में मेगजीन के सम्बन्धित संपादक को यह कहकर दे दिया था कि भई देखकर देना। उस संपादक ने महेन्द्रजी को यह नहीं बताया कि अखबार में उनके बारे में कोई पंक्ति लिखी है।
दूसरे दिन नईदुनिया के परिशिष्ट में वो लेख जस का तस छप गया। सुबह अखबार नईदुनिया के तब सलाहकार संपादक रहे राहुल बारपुतेजी यानी बाबा ने पढ़ा तो उन्हें यह ठीक नहीं लगा। दफ्तर आते ही उन्होंने महेन्द्रजी से इसको लेकर नाराजी जताई। उनका सात्विक तर्क था कि किसी मालिक को अपने ही अखबार में अपनी तारीफ नहीं छपवानी नहीं चाहिए। महेन्द्रजी बाबा का बहुत आदर करते थे।
उन्होंने सारी बात बिना कोई सफाई दिए चुपचाप सुनी। फिर वो ऊपर आए और सम्बन्धित संपादक की क्लास ले डाली। जाहिर था कि वो बाबा की इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि अखबार जन भावना की अभिव्यक्ति है न कि मालिकों का प्रशंसा पत्र। खबरों के संपादन में भी महेन्द्रजी के स्पष्ट निर्देश होते थे कि पत्रकारिता के मानकों के हिसाब से खबर होगी तो ही छपेगी अन्यथा नहीं। फिर भेजने वाला चाहे कोई भी हो। उनका साफ कहना रहता था कि कोई दिक्कत दे तो कहना कि सीधे मुझसे बात करे। यदा- कदा ऐसे प्रसंग आए भी तो नईदुनिया के मूल्यों को सहेजने पर ही उनका जोर रहा।
महेन्द्रजी का अपने कनिष्ठ सहयोगियों से भी दोस्ताना व्यवहार होता था।
विशिष्ट प्रसंगों पर वो पूरी संपादकीय टीम का हिस्सा बन जाते। ज्यादा काम हो तो सभी को बराबर चाय-नाश्ता-खाना आदि मिल रहा है या नहीं, इसकी अोर पूरा ध्यान रहता। किसी की कोई निजी समस्या हो तो वो महेन्द्रजी से निसंकोच बात कर सकता था। क्योंकि समूचे स्टाफ को वो अपने परिवार का िहस्सा ही मानते थे। नईदुनिया के संवाददाताअो और एजेंटों के साथ भी उनका यही अपनत्व भरा रिश्ता था।
2012 में नईदुनिया की मिल्कियत दूसरे हाथों में जाना महेन्द्रजी के लिए भी सदमे की तरह था। लेकिन अपने सहयोगियों से उनके अपनत्व में कभी कोई कमी नहीं आई। जब भी मिलते घर परिवार का हालचाल जरूर पूछते। मुझ पर उनका विशेष स्नेह रहा। आखिरी समय में उन्हें व्याहधि ने घेर लिया था, लेकिन उनकी ठहाकेदार हंसी और बात करने का बेबाक अंदाज भुलाया नहीं जा सकता।
महेन्द्रजी का जाना न सिर्फ नईदुनिया के उन अपूर्व संस्कारों का जाना है, जिसके कारण नईदुनिया और उससे निकले लोग जाने गए बल्कि अखबार मालिकों की उस विरल पीढ़ी का भी अवसान है, जिनका अखबार के कारपोरेट बनने में कभी विश्वास नहीं रहा। वो समाचार पत्र संस्था को एक परिवार और अखबार प्रकाशन को एक पारिवारिक कर्म मानते रहे। उनकी स्मृतियों को सादर नमन।