मोतिन झड़S लागी जीS
निमाड़ी गीतों में वर्षा का अनुपम सौन्दर्य दर्शाता डॉ. सुमन चौरे का निबंध
चमचमाता चकमकाता आसमान, इतनी हिम्मत किसी में कहाँ ! कि ऊपर आँखें उठाकर देख ले। चौंधिया जाय नज़रें, तपती धरती और आग उगलता सूरज सब ओर त्राहि-त्राहि। तब आशा की एक किरण, फूटी सुरमई तम्बू तन गया। तीखे तेवर घाम के खिसियाने लगे। हवा भी कुछ शीतलता लेकर आई। टूटी खाट पर, ओटले परबैठे वे किसान मुसका दिये। कहीं तो पानी बरसा है!मिट्टी ने सौंधी सुगंध छोड़ कर संदेश दे दिया, कहीं बदरी बरस गई। पंख पखेरू वृक्षों पर दुबके से बैठे, अब निकल पड़े बाहर, पंख फैलाकर बदरा छूने को, कहीं बदरी बरस गई।
लोक ने आसमान पर नज़र टिका दी। यह काली सुरमई छतरी-चादर कहाँ? यह तो मोतियों से भरी गठरी है। जिसे देखकर लोक का कंठ फूट पड़ा।
गीत:
झिरS मिरS हो पियूजी, रिमझिम वरसे छे मेहS
तो वरसS रही नानी मोठी मोत्यनS जीS
भरोS भरोS हो पियूजी, भरोS ते खीड़ाS टोपलीS
भरोS ते कोठी कणSगा जीS
घड़ोS हो पियूजी घड़ो ते कंठनS हारS
घड़ोS तो नाकS की बेसर नथणीS जीS
पेरीS ओढ़ी हो पियूजीS पेरी नS वावाँS तुमराS खेतS
तो लह्य लह्य मोत्यानS केरी काटणीS जी
भावार्थ: हे प्रिय स्वामी यह काली बदरी झिर-मिर झिर-मिर , रिमझिम करती जल बरसा रही है। यह जल की बूँदें नहीं हैं, यह तो छोटे-मोटे मोती ही बरस रहे हैं। हे स्वामी आप घर के टोकना-टोकनी मोतियों से भर लो, और घर के कोठी कँणगे सब मोती से भर दो। हे स्वामी इन मोतियों से मेरे गली का हार गढ़वा दो और मोती की नथ बेसर बनवा दो। मैं इन आभूषणों को पहन कर स्वयं आपके साथ खेत में चलूँगी और खेत में मोतियों की बोनी कर दूँगी। हे स्वामी, हमारे खेत लहलहा उठेंगे और हम खेत से मोतियों की फसल की कटनी करेंगे।
लोक के लिए वर्षा, पानी बरसने की ऋतु नहीं है, यह तो है मेघ से मोती झरने की ऋतु। लोक ने वर्षा मंगल गाया। पानी की झरती- बरसती बूँदें, फैले हुए मैदान में देखें तो मोतियों की लड़ियों की लड़ियाँ ही दिखाई देती हैं। खुले आसमान के नीचे रहने वाले को ही इस नैसर्गिक सौंदर्य की अनुभूति होती है।
यहाँ जल की बूँदें कई भाव में प्रकट हुई हैं। एक तो उत्तम जलवृष्टि होगी तो फसल भरपूर होगी। किसान की माली हालत सुधरेगी तो पत्नी को आभूषण गढ़वा देगा। यह निमाड़ का लोक गा रहा है। निमाड़ की मुख्य पारम्परिक फसल जुवार रही है। और जुवार ही प्रमुख भोजन रहा है। मोती बोना याने जुवार बोना। अनुपम उपमा है। और काटो तो भी मोती की फसल ही। जुवार का दाना सही माने में मोती जैसा होता है। लोक भूख को मेटने के लिए बदरा से बरसी बूँदों को प्रतीक स्वरूप मोती ही मानता है।
लोक का चित्त बड़ा ही संवेदनशील है। उसे कभी वर्षा जल की बूँदें जुवार और मोती दिखाई देती हैं तो कभी उसे याद आती है कि बाल गोपाल तो गौआ चरा रहा है, अब जंगल में उसका मुकुट भींज जायगा। कान्हा पर बरसे मोती सब ग्वाल-बाल लूट लेंगे।
गीत: बरसS रह्यो मेघS, मोतिनS झड़S लागी जीS
कान्हो तो म्हारोS वनS मS हेराण्योS
वरसS मोतिन तो मुकुट भीजाण्योS
मोती लूटS ग्वाल बालS
मोतिन झड़S लागी जीS
मुकुट का मोती तो हिलS मिल डोलS
अंगS मंS मोत्यन केरो हाटS
मोतिन झड़S लागी जीS
साल भींजाणी, दुशालाS भींजाणीS
मुरली पS बणी गई माळS
मोतिन झड़S लागी जीS
भावार्थ: बादलों ने मोतियों की झड़ी बरसा दी है। मेरा छोटा सा कान्हा जंगल भटक गया है। मेघ मोती से बूँदें बरसा रहे हैं। कान्ह का मुकुट भींज रहा है और कान्हा पर गिरे मोती ग्वाल-बाल लूट रहे हैं। मोतियों की वर्षा हो रही है। कान्हा के मुकुट के मोती इस जल से हिल डुल रहे हैं। और शरीर पर पड़ी बूँदें ऐसी लग रही हैं, जैसे मोतियों की लड़ियाँ लटक रही हैं। कान्हा की शाल दिशाला सब भींज गया है, किन्तु मुरली पर तो मोतियों ने सुन्दर माला ही गूँथ दी है। जल मोतियों के रूप में झड़ रहा है।
लोक की दृष्टि सूक्ष्म से
सूक्ष्म वस्तु को भी परख लेती है।हर घड़ी हर तत्त्व में आनन्द खोज लेती है लोक की दृष्टि।वर्षा में पीयूजी और बाल गोपाल ही नहीं अपितु बहन-भाई को भी वर्षा के अनगिनत मोतियों की माला में पिरो लेता है लोक। बहनों के सावन पर अपने भाई को राखी बाँधने के लिए पीयर जाने की याद आती है। वर्षा के बीच झूला झूलते हुए बालिकाएँ गाती हैं-
गीत: हिण्डोळो बँध्यो चम्पा की डाळS
सखी मेह बरसS गाS
जदS यो हिण्डोळो अद्दर जासेS
खोळा मंS झेलूँ सखी मोती
मेह बरसSगाS
मोतीन काS वीरा का गूथूँ रे गजराS
भावजS घड़ाउँ कण्ठ हारS
मेह बरसS गाS
वेणीS मS मोत्यन लड़S गूँथूंS
तिलिक लगाऊँ भालS
मेह बरसS गाS
भावार्थ: हिण्डोला चम्पा के वृक्ष की डाल पर बँधा है। मैं झूला झूलूँगी। जब झूला ऊपर की ओर जायगा तब मैं अपने आँचल में बदरा से मोती झेल लूँगी। उन मोतियोँ की मैं अपने भाई के लिए राखी त्योहार पर माला गूँथ दूँगी और मेरी भावज के कण्ठ पर शोभा पाने वाला हार गढ़वा दूँगी। हे सखी, मैं तो अपने काले लम्बे केश के लिए वेणी में मोतियों को गूँथकर सुन्दर-सी केश सज्जा कर लूँगी और उन्हीं में से एक चमचमाते मोती की अपने भाल पर लुभावनी सी टीकी भी लगा लूँगी। बदरा मोती बरसा रहे हैं।
बालसुलभ, कितनी अद्भुत कल्पना है बालिकाओं की। चम्पा के वृक्ष की डाल पर झूला बाँधना। चम्पा के विषय में क्या इस सुकुमार को जानकारी है! नहीं ना, चम्पा का वृक्ष तो बहुत कमज़ोर होता है। और ना ही उसकी डालें ऐसी होती हैं कि झूला बाँधा जा सके। बहन-भाई के प्रेम का चरमोत्कर्ष इस हिण्डोला गीत में है। बालपन से ही प्रकृति के साथ तादात्म्य का रूप जुड़ता है, तो स्वत: ही कल्पना भाव जन्म लेते हैं। सच में, वर्षा की बूँदे भाल पर मोती के तिलक की तरह शोभायमान होती है, तो केशश्रंगार भी बूँदों की सज्जा से ही पूर्ण दिखता है।
निमाड़ में गणगौर पर्व पर देवी (रनुबाई) को ‘न्हाउण’ नहलाने के समय गाए जाने वाले गीतों में कल्पना का वृहत् श्लिष्ट भाव मिलता है। पानी में बने हवा के बुलबुले भी मोती से ही प्रतीत होते हैं।
गीत: ढुळS मुळS ढुळS मुळS नद्दी वयS होS
मोत्या वयी वयी जायS
व्हा भोळई रनुबाई नाहुण कर होS
मोत्या इणीS इणीS लायS
मोत्यानS को हो गुथ्यो गजरोS
भावार्थ:धीरे धीरे नदी बह रही है। उस नदी में मोती बह कर जा रहे हैं। वहाँ पर रनुबाई स्नान कर रही है। उन्होंने वहाँ से मोती बीन लिये। उन मोतियों से गजरा गूँथ कर वेणी में लगा लिया। धणियर राजा ने गजरा देखा तो हँस कर विनोद में पूछा कि, हे रनुबाई गजरे के मोती कहाँ से आये। तब रनुबाई ने कहा कि, “भोले ईश्वर स्वामी सुनो, नदी में मोती बह रहे थे, उन्हें ही हम बीन कर ले आये हैं।”
वर्षा ऋतु सब के मन को आनन्दित करती है। पखेरुओं के पंखों पर भी जल की बूँदें मोतियों की मानिन्द नज़र आती हैं। पत्तों पर भी मोती नृत्य करते हैं। बालिकाएँ जल में भींजती हुई नाचती गाती जाती हैं,
गीत:
मोतिन झड़S लागी ओS म्हारी सै ओS
हमराS बापS का रीताS कणँगाS
भरीS भरीS जायS ओS म्हारी सै ओS
हमाराS बाप का कुआ बावड़ीS
लबाS लबS लबायS हो ओS म्हारी सै औS—
भावार्थ:मोतियों की झड़ लग रही है। हे मेरी सखियों, बादल मोती बरसा रहे हैं। मेरे पिताजी के घर के कोठी बखावरी खाली हैं।ये मोतियों से भर जायँगे। मेरे पिताजी के कुँआ बावड़ी सूख गये हैं। मुझे मालूम है, इस मोतिन झड़ से सब जल से लबालब हो जायँगे। मैं भी इन मोतियों से आभूषण बनवाऊँगी। माथा का बेंदा, भुजबन्द और रुनझुन पायल गढ़ाऊँगी। छोटे सलोने भाई के लिए मोतियों की माला बना दूँगी। मेरे पैर की पैजाब रुनझुन बजेगी। मैं उसे पहन कर वर्षा में भींज कर नृत्य करूँगी।
लोक सदा ही प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित कर बात करता है। बेटियों को सदैव अपने पिता की, परिवार की चिन्ता रहती है। भरपूर वर्षा से पिता के कुँए-बावड़ी भर जायँगे, अच्छी फसल से घर में समृद्धि आयगी। वर्षा के मोतियों से मैं श्रंगार करूँगी, भाई के आभूषण बनवाउँगी। बालमन के लिए भी सीधा समीकरण है कि वर्षा के मोतियों से जीवन में खुशहाली के घुँघरुओं की रुनझुन ध्वनि छा जाती है।
वर्षा आवश्यकता से कम या फिर अत्यधिक होती है तो लोकजीवन की पीड़ा उसके कण्ठ के माध्यम से गीतों में फूट पड़ती है।
गीत:
हळS हळS व्ही रईS वाळS हो इंदर राजाS की
झड़ लगई दS मोत्यानS
थाराS गायS का जायS जीव राळ हो इंदर राजाS
झड़ लगई दS मोत्यानS
डोंगर मंS लगी गई आगS हो इंदर राजाS
सूखी गया नद्दी नाळा हो इंदर राजाS
झड़ लगई दS मोत्यानS
चारो ढूँढS नS गाय ग्वाळS हो इंदर राजाS
झड़ लगई दS मोत्यानS
भावार्थ:हे इन्दर राजा धरती पर गरम-गरम हवा की लपटें चल रही हैं, तू वर्षा जल मोतियों की यानी बूँदों की झड़ी लगा दे। हे इन्दर राजा तेरे गाय और उसकी जाति के पशुओं ने जीभ से राळ (लार) गिरा दिया है। तू पानी बरसा दे। हे इन्दरराजा, जंगल में आग लग गई है। नदी नाले सब सूख गये हैं, तू पानी की बूँदों की झड़ी लगा दे। सब पशु-पक्षी त्राहि-त्राहि कर रहे हैं, पशु और उनके ग्वाले चारा घास ढूँढ रहे हैं। तू मोती जैसी बूँदों की झड़ी लगा दे।
बिन पानी लोक जीवन का त्रास इस गीत में बड़े ही करूण भाव से उभर कर आया है। किसान को जितने उनके खेत प्यारे हैं, उतने ही पशु-पक्षी भी प्यारे हैं। सूखे के कारण भूखे-प्यासे पशु-पक्षियों की दयनीय दशा बताते हुए वर्षा के देवता से जलवृष्टि करने की प्रार्थना की जा रही है।
गोविन्द गुंजन की कविता “भीतर का सच”
झड़-झड़ा कर धड़-धड़ाकर भादव भर गया। नदी-तालाब, कुँआ-बावड़ी, नाळ्या-खोदर्या अब तो मोतिन का हाट रीत गया। आसमान में इक्के दुक्के विपारी (व्यापारी) ही बचे हैं जो अपनी गठरी को लेकर, तेज आवाज़ लगाते हैं। तब लोक कह उठता है, “हाथ्यो गरज्यो” हाथी गरजा), कुवार का बादल गरजा। बादल ने अपनी पोटली झटक दी रात पड़े। सुबह सवेरे बिखरे दिखाई दिए, दूर्वा पर घास पर पत्तों पर, कलियों पर, फूलों पर, खेत में लगी मेड़ों की बेलों पर, कुवार की तपती धरती को नमी दे गये। तभी किसान बोला पकती फसल के लिए जल कणिकाएँ जीवन रूप दे गईं। ये ओस नहीं है, हमारी खेती का पोस है। हमारे पकती फसल के लिए आशा भरे मोती हैं। लोक ही है जिसने जल कणिकाओं को मोती माना और अपना जीवन आनन्दमय बना लिया।
डॉ. सुमन चौरे
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