संजा लोक पर्व पर विशेष: लोकपर्व – लोकधारा और परंपरा है –

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संजा लोक पर्व पर विशेष: लोकपर्व – लोकधारा और परंपरा है –

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स्वामी श्रीपाद अवधूतजी बांगर

संजा के मांडने और लोक गीत सस्वर गाए जाने के साथ समुदाय और समाज को जोड़ने का पर्व विशेष है यह संजा।

इन दिनों शहरी क्षेत्र में और विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में गोधूली के साथ ही महिलाओं, कन्याओं और बालिकाओं के गीत सस्वर गूंजने लगते हैं और एकत्रित होकर सामाजिक रूप से श्राद्ध पक्ष में इसे उत्साह और उमंग से उत्सव मनाए जा रहे हैं । आधुनिकता से पर्व प्रभावित हुआ है पर लोक पर्व लोक कला के साथ जीवंत बना हुआ है । इसके महत्व को रेखांकित करते हुए प्रस्तुत है वैज्ञानिक सामाजिक सांस्कृतिक और परंपरागत महत्व विद्वान

*स्वामी श्रीपाद अवधूत* की कलम से 

*संजा भारतीय स्त्री के जीवन का मूलमंत्र है। नारी जीवन के विभिन्न आयामों का एक सशक्त प्रगटीकरण है। लोक चेतना के अमिट शाश्वत मूल्य वाचिक परंपरा से समाज को दिशा निर्देश देते हैं। इनमें स्त्री के जीवन का एक अनोखा अद्वितीय एवं लोक कल्याणकारी पक्ष दिखाई देता है।*

*संजा या संझा एक लोकपर्व है, जो मुख्यतः उत्तर भारत और विशेषकर मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब तथा छत्तीसगढ़ में बड़े उत्साह से मनाया जाता है। यह पर्व प्रायः पितृपक्ष (भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक) के दौरान मनाया जाता है। इसमें घर की बेटियाँ—कन्याएँ और युवतियाँ—दीवार पर गोबर से सुंदर आकृतियाँ बनाती हैं जिन्हें “संजा” कहा जाता है। प्रतिदिन नए-नए चित्र बनाए जाते हैं और संध्या समय गीत गाकर उनकी आराधना की जाती है।*

*संजा का इतिहास और प्राचीन सन्दर्भ*

*वैदिक संदर्भ :-*

*वेदों में “संध्या” या “संझा” का उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में संध्या वंदन, अग्निहोत्र और आह्निक क्रियाओं का विशेष महत्व है। “संध्या” का अर्थ है दिन और रात का मिलन काल, जो देवताओं और पितरों की उपासना का श्रेष्ठ समय माना गया है।*

*पुराणों में उल्लेख :-*

*गरुड़ पुराण और मत्स्य पुराण में पितृपक्ष के श्राद्ध कर्म के समय स्त्रियों द्वारा पितरों की संतुष्टि हेतु गीत गाने और प्रतीकात्मक चित्रांकन का उल्लेख मिलता है। “पितृ-पूजा” और “गो-पूजन” से जुड़ा यह कर्म संजा के स्वरूप से मिलता-जुलता है।*

*लोकमान्यता :-*

*कहा जाता है कि “संजा” मूल रूप से “संध्या माता” का रूप है, जिन्हें दिन-रात के संगम और पितरों की रक्षक देवी के रूप में पूजा जाता था। धीरे-धीरे यह लोक-आस्था कन्याओं द्वारा किए जाने वाले पर्व के रूप में विकसित हुई। कहते हैं संजा एक लोकदेवी हैं जो प्रत्येक वर्ष अपनी सखी सहेलियों कन्याओं के बीच श्राद्ध पक्ष के 15 दिनों तक हँसी ठिठोली करने अपने मायके अपने पियर आती है। संझा के आगमन से प्रसन्न किशोरियां गाय का ताजा गोबर लेकर दीवारों पर चांद, सितारे, पेड़, पहाड़, पशु-पक्षी, गणेश, किला, व स्वस्तिक आदि अनेक आकृतियाँ बनाती हैं और इन आकृतियों को प्रकृति के ताजे फूलों पत्तियों से सजाती हैं।*

*मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो संजा भारतीय स्त्री के जीवन की धड़कन है। नारी जीवन के विभिन्न आयामों का एक सशक्त प्रगटीकरण है। संझा के गीत कल्पना के धागों से नहीं संस्कृति के सूत्रों से बंधे हुए हैं। यह लोक चेतना का अभिन्न अंग है। लोक चेतना के अमिट शाश्वत मूल्य वाचिक परंपरा से समाज को दिशा निर्देश देते हैं। इनमें स्त्री के जीवन का एक अनोखा अद्वितीय एवं लोक कल्याणकारी पक्ष दिखाई देता है।*

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*भारत के विभिन्न प्रांतों में संजा के नाम और स्वरूप*

*मध्यप्रदेश :-*

*विशेषकर मालवा एवं निमाड़ के क्षेत्र में इसे संजा ही कहा जाता है। दीवार पर गोबर से आकृतियाँ बनती हैं जिनमें चंद्रमा, सूरज, बेलबूटे, डोली, हाथी-घोड़े और पितरों के प्रतीक सम्मिलित रहते हैं।संजाबाई बनठकर बैलगाड़ी में बैठकर जा रही है। उसकी छोटी सी गाड़ी ऊबड़ खाबड़ सड़क पर हिचकोले खाती आगे बढ़ रही है। उसका छींटदार घाघरा धमक रहा है।* *कलाई की चूड़ियां खनक रही हैं बिछुड़ियां दमक रही हैं और नाक की नथनी हिचकोले खा रही है। यह सारा भाव इस संजा के गीत में देखिए…*

*छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए लुढ़कती जाए….*

*ओमऽऽ बठी संजा बईण.. संजा बईण घागरो धमकावती जाए…* 

*चूड़िलो चमकावती जाए…* 

*बिछुड़ी बजावती जाए….* 

*बाईकी नथणी झोला खाय झोला खाय….* 

*संध्या के गीतों में एक भोली अल्हड और मासूम कन्या की तस्वीर झिलमिलाती है। घूमने फिरने हेतु उसकी इच्छाएं मचलती हैं। रंगीन सपनों की झालर आने वाले कल के सपने उसकी आंखों में है। विवाह के पहले का उसका स्वतंत्र और बेफिक्र लड़कपन हर तरफ कुलांचे भर रहा है। वह अपने गाँव के हाट बाज़ार में पूरा श्रृंगार कर अपनी सहेलियों के साथ घूमने निकलती है तो उसका पहनावा, ओढ़ावा, बलखाती चाल सब अद्वितीय एवं अलौकिक है इस गीत में देखिए…*

*संजा सहेलडी बाजार खेलऽऽऽ…*

*बाजार मऽऽ डोलऽऽऽ…*

*तू पेरऽऽ माणक मोती…*

*गुजराती चालऽऽ चाल…*

*निमाड़ी बोली बोलऽऽऽ…*

*संजाबाई को छेड़ते हुए लड़कियां यह गीत गाती हैं…*

*संजा बाई का लाडाजी..* 

*लुगड़ो लाया जाडाजी…*

*असो कई लाया दारिका…*

*लाता गोट किनारी का…*

*एक और गीत देखिए:-*

*संजा तू थारा घर जा कि थारी मां मारेगी कूटेगी…* 

*हरियाणा और पंजाब यहाँ इसे “संजही” या “संजाई माता” कहते हैं।* *गोबर की मूर्तियाँ दीवार पर लगाकर गीत गाए जाते हैं।*

*उत्तर प्रदेश (ब्रज क्षेत्र) यहाँ इसे “संजही” कहा जाता है और इसे विशेष रूप से नवरात्र के समय देवी के रूप में पूजा जाता है।*

*ब्रजमंडल में संजा का रूप प्रेयसी का है। यहां वह राधा के रूप में प्रतिष्ठित हैं। मान्यता है कि कृष्ण ने राधारानी को प्रसन्न करने के लिए आंगन के द्वार पर गोबर और विभिन्न फूलों की पंखुड़ियों से रंग बिरंगी कलात्मक सजावट की थी। तभी से गोबर और फूलों से घर की दीवारों पर विभिन्न आकृतियाँ बनाने की परिपाटी बन गई है।* *अविवाहित लड़कियां इसे पर्व के रूप में मनाने लगी। राजस्थान में संजा का रूप गवरजा या संजा माता के रूप में मिलता है।* *छत्तीसगढ़ और विदर्भ में इसे संजारी या संजरी माता कहा जाता है और ग्राम देवियों के साथ इसका संबंध जोड़ा जाता है।*

*महाराष्ट्र में भी इससे मिलती जुलती गुलाबाई की परंपरा मिलती है।*

*अमावस्या के दिन “संजा विसर्जन” होता है, जिसमें उसे किसी नदी या तालाब में इसे प्रवाहित किया जाता है।*

*वैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व:-*

*वैज्ञानिक महत्व :-*

*गोबर का प्रयोग दीवारों पर करने से वातावरण शुद्ध होता है। गोबर प्राकृतिक कीटाणुनाशक और ताप संतुलनकारी है। कई वैज्ञानिक शोधों से यह सिद्ध हुआ है कि गोबर विकिरण को सोखने की क्षमता रखता है। गामा किरणें गोबर की पतली सी परत को भी भेद नहीं सकती।*

*संध्याकाल में सामूहिक गीत गाने से मनोवैज्ञानिक संतुलन और सामाजिक समरसता बढ़ती है। ऋतु परिवर्तन (बरसात से शरद ऋतु) के समय यह पर्व शरीर और मन को संक्रमण से सुरक्षित रखने वाला सामाजिक साधन है।*

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*सामाजिक महत्व :-*

*यह पर्व बेटियों और युवतियों को सामाजिक भागीदारी और सामूहिकता का अवसर देता है।*

*संजा के गीतों में विवाह संस्कार, नारी-जीवन, परिवार और ग्राम-जीवन की झलक मिलती है, जिससे पीढ़ी दर पीढ़ी लोक-संस्कृति का संचार होता है। इसमें व्यंग्य, हंसी-ठिठोली और हास्य के माध्यम से समाज में संवाद और आत्मीयता बढ़ती है।*

 *पितरों की स्मृति में:-*

*संजा रानी आई, पितर लेके साथ…*

*गोबर-गेरू सजी सजाई, फूलन की बरसात….*

*(भावार्थ: संजा माता पितरों को साथ लेकर आती हैं और गोबर-गेरू से बने चित्रों को फूलों से सजाया जाता है।)*

*विवाह और गृहस्थ जीवन की झलक:-*

*संजा जी की डोली आई, बाराती संग-संग….*

*हाथी-घोड़ा, बग्गी आई, बजत मृदंग-ढमक….*

*(भावार्थ: संजा को दुल्हन मानकर उसकी डोली का वर्णन किया गया है, जैसे विवाह संस्कार हो रहा हो।)*

*हास्य और व्यंग्य से भरपूर:-*

*संजा जी के गीत गाए, हँसत-खेलत भीड़…*

*देवरानी-जेठानी हँसें, बोले ठिठोली पीर…*

*(भावार्थ: संजा गीतों में केवल पूजा नहीं, बल्कि हँसी-ठिठोली और पारिवारिक संबंधों पर व्यंग्य भी होता है।)*

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*प्रकृति और ऋतु परिवर्तन का संकेत:-*

 

*सूरज चंदा चमक रहे, तारे गगन सजा…*

*बरखा रानी विदा हुई, शरद ऋतु अब आ…*

*(भावार्थ: ऋतु परिवर्तन को दर्शाता है—बरसात विदा हो रही है और शरद ऋतु का आगमन।*

*इसीलिए संजा गीत केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि लोकसाहित्य, लोकसंगीत और सामाजिक जीवन का जीवंत दस्तावेज़ हैं।*

*सांस्कृतिक महत्व :-*

*यह पितृ-तर्पण और श्राद्ध से जुड़ा लोक-उत्सव है, जिससे हमारे पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता की भावना प्रकट होती है। लोककला (दीवार चित्रण) और लोकगीत (संजा गीत) के माध्यम से यह भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को सुरक्षित रखता है। यह पर्व भारतीय ग्रामीण समाज की सहज कला चेतना और आध्यात्मिकता का सुंदर उदाहरण है। संजा केवल एक बालिकाओं का लोकपर्व भर नहीं है, बल्कि यह भारत की वेद पौराणिक परंपरा, लोककला, सामाजिक बंधन और वैज्ञानिक चेतना का अद्भुत संगम है। यह पर्व हमें सिखाता है कि पूर्वजों की स्मृति, प्रकृति के सम्मान और समाज में सामूहिक सहभागिता के बिना जीवन अधूरा है।*

*(प्रस्तुति डॉ घनश्याम बटवाल मंदसौर)*