11. In Memory of My Father: पिताजी का ध्येय वाक्य…… ब्राह्मण को सदैव संतोषी रहना चाहिए

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In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

11. In Memory of My Father: पिताजी का ध्येय वाक्य……ब्राह्मण को सदैव संतोषी रहना चाहिए

डॉ . श्रीकांत द्विवेदी,धार

चूंकि माता जननी होती है । संतान को नौ महीने तक कोख में पालने के बाद संतान को जन्म देती है । जन्म के साथ ही संतति के शुरुआती दो – तीन बरस मां का दूध , मां की गोद और मां के आंचल के आसपास ही बीत जाता है । तय है कि शैशव काल में संतति को सबसे ज्यादा सानिध्य एवं दुलार मां से ही प्राप्त होता है । स्वाभाविक है कि संतान का मां से निकलते से  , जुड़ाव तथा आत्मीयता का एक अलग ही रिश्ता बन जाता है ।
फिर उम्र के एक-एक पायदान पर चढ़ते हुए पिता की भूमिका का अहसास होने लगता है । समझदारी आने पर मुझे भी लगने लगा कि पिता मात्र पिता न होकर परदे के पीछे रहकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने वाले सबसे बड़े किरदार होते हैं । एक मौन साधक की तरह संतान के जीवन निर्माण में अपना समय , समझ , ….सामर्थ्य , सुख- संसाधन…….. यहां तक कि अपनी पहचान भी अपनी संतान को सौंप देता है । इस उम्मीद के साथ की उसकी संतान उससे भी बेहतर करें ।………

पिता की महत्ता पर उक्त विचार की तरह ही मेरे जीवन में भी पिता की भूमिका सबसे अहम रही । पिता स्व.पं. रमाकांतजी द्विवेदी (1915-1992) पैतृक ग्राम बिरमावल , जिला रतलाम के मूल निवासी रहे । पीढ़ी दर पीढ़ी कर्मकांड , श्रीमद्भागवत कथा एवं ज्योतिष कर्म ही परिवार के जीविकोपार्जन के साधन रहे । तत्कालीन परिस्थितियों के मान से पिताजी को भी उल्लेखित पुरोहित कर्मों से जुड़ना पड़ा ।

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उस दौर में यजमानों से जुड़े गांवों में पिताजी भागवत कथा करते थे । तब कथा में पचास-पचहत्तर श्रोता ही नजर आते थे । कथा समाप्ति पर कुल चढ़ोत्तरी डेढ़ -दो सौ रूपए के आसपास ही रहती थी । ठीक इसी तरह साठ से अस्सी के दशक तक घंटों बैठकर जातकों की जन्मकुंडली बनाते , और यजमान पंचांग पर दो – पांच रुपए रख देते थे ।तब हम पिताजी से कहते भी थे कि आप इतना समय देते हैं , बदले में उतनी दक्षिणा नहीं मिलती । ऐसे में पिताजी का एक ही जवाब रहता ‘ बेटा ! ब्राह्मण को संतोषी रहना चाहिए । छः भाई – बहन का परिवार , अभावों के बावजूद पिताजी ने अपनी संतोषी वृत्ति का कभी त्याग नहीं किया । कभी याचक नहीं बनें । कथा के दौरान या अन्य प्रवास पर कभी बाहर खान-पान नहीं होता । स्वयं हाथ से बनाकर भोजन ग्रहण करते । इस तरह का जीवन व्यतीत करते हुए पूज्य पिताजी दी हुई संतोषी संस्कारों की जो वसियत लिख गए , वहीं आज संयुक्त परिवार के रूप में परिवार का मजबूत संबल हैं । मुझे गर्व है ऐसे स्वावलंबी एवं संतोषी पिता की संतान होने पर । परमात्मा हमें भी इतना सामर्थ्य प्रदान करें कि हम पिताश्री के आदर्शों पर चलते रहे । बच्‍चे के जीवन पर पिता के बर्ताव और व्‍यवहार का काफी असर पड़ता है. पिता परिवार को केवल आर्थिक सुरक्षा ही प्रदान नहीं करते, बल्कि जीवन की कई अनमोल सीख भी देते हैं. बचपन से लेकर किशोरावस्था और फिर अडल्‍ट होने तक, पिता हर पड़ाव पर अपनी संतान के साथ खड़े रहते हैं और उनकी उपस्थिति और शिक्षा बच्‍चे की सफलता और जीवन को संवारने की कड़ी बनती है.पिता बच्‍चों को संघर्ष करना और कठिन परिस्थितियों में धैर्य बनाए रखना सिखाते हैं. जीवन में चुनौतियां आना स्वाभाविक हैं, लेकिन उनका सामना किस तरह करना है, यह बच्चों को पिता से बेहतर कोई नहीं सिखा सकता.जीवन को लालसाओं से बचाते हुए अपनी सनातनी संस्कृति के अनुरुरूप हम सभी भाई अपने पिता की  दी हुई संस्कारों की नीव पर ही आज भी खड़े हैं .प्रयास रहता है किसी के काम आ सकें यही जीवन जीने का आधार है .

अंतमें कवि चंद्रकांत देवताले की इन पंक्तियों के साथ पिताजी की पावन स्मृतियों को सादर नमन ..

.प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता ईथर की तरह होता है ,
जरूर दिखाई देती होगी नसीहतें नुकीले पत्थरों – सी ।

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डॉ . श्रीकांत द्विवेदी
6 , महावीर मार्ग , धार

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