In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी बारहवीं क़िस्त में इंदौर से प्रभा तिवारी अपने पिता स्व. विनायकराव मंडलोई जो अमझेरा रियासत के जागीरदार थे के दिल छू लेने वाले प्रसंगों के साथ उन्हें याद करते हुए अपनी भावांजलि दे रही है. एक पिता का प्यार वह दिशासूचक है जो उसकी बेटी को जीवन की यात्रा में मार्गदर्शन करता है। एक बेटी का अपने पिता पर भरोसा उनके अटूट बंधन की नींव है।
प्यार का सागर ले आते
फिर चाहे कुछ न कह पाते
बिन बोले ही समझ जाते
दुःख के हर कोने में
खड़ा उनको पहले से पाया
छोटी सी उंगली पकड़कर
चलना उन्होंने सीखाया
जीवन के हर पहलु को
अपने अनुभव से बताया-अज्ञात
12. In Memory of My Father: भूले नहीं भूलता वो मूंछदार रौबदार चेहरा, मेरे पिता मेरे आदर्श
प्रभा तिवारी
पिता के मौन तप ओर अत्यन्त संघर्षशील मनोवृत्ति का आकलन करना सरल नहीं है और पिता पर लिखना उससे भी कठिन. लेकिन जब सब अपने पिता को याद कर रहे हैं तो पिताजी की याद आना मेरे लिए भी स्वाभाविक है, मेरे पिता मेरे लिए प्रेरणास्त्रोत शुरू से ही रहे हैं। मां के सानिध्य में तो रही पर पिता के सानिध्य में ज्यादा रही. शायद इसलिए भी कि पिता को बेटियों से ज्यादा प्यार होता है. हर पिता जानते हैं कि एक दिन बेटी पराये घर चली जायगी. मेरे पिता भी यह जानते थे और इसीलिए मेरे प्रति उनका दुलार अपेक्षाकृत ज्यादा रहा. यह बाप-बेटी का रिश्ता बहुत अनोखा होता है लेकिन इस रिश्ते की गहराई हर किसी के लिए अलग होती है। अब पहले की तरह बच्चे अपने बाऊजी से डरते कम हैं और उन्हें अपना दोस्त ज्यादा मानते हैं। हमारा समय आज से बिलकुल अलग था. कई बार इस समय और रिश्तों की अपने समय से तुलना करती हूँ तो पलड़ा बराबर ही निकलता है, कुछ बातें तब की और कुछ बातें आज की अलग अलग दृष्टिकोण से अलग होकर भी अच्छी हैं अपने समय की बात करूँ तो सब भाई बहनों में सबसे छोटी थी इसलिए पिता की ज्यादा लाडली थी पिता ने मुझे बेटे जैसी परवरिश की हमेशा उनके साथ रहती थी। मैंने हमेशा उनका स्नेह पाया. वे मेरी हर इच्छा पूरी करते थे पर वक़्त-वक़्त पर गुरु बनकर समझाते थे। उनकी सीख जीवन भर काम आती रही और आ रही है.
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सबसे बड़ा सच यही है कि पिता का प्यार, उनकी शिक्षा, “मां” का वात्सल्य, संस्कार ही हमारी कठिन से कठिन राह को भी आसान बना देता है। जिन बेटियों को अपने शुरुआती डेवलपमेंट स्टेज में पिता का साथ और प्यार मिलता है, उनका आत्मविश्वास उतना ही मजबूत होता है.
बचपन से लेकर बड़े होने तक पिता ही है जो हमारे लिए एक स्तंभ का काम करते हैं। पिता अपने दुख सुख को कभी बच्चों पर प्रकट नहीं होने देता है. वह ऊपर से कठोर पर अंदर से अपने बच्चों के लिए मुलायम दिल रखता है।
मैंने उन्हें हमेशा अनुशासन में रहते देखा कोई भी काम समय पर करना सिद्धांतों पर चलना ये सब मैं देखती थी, पिता से सुनती थी। उनके स्नेह दुलार के बावजूद उनके सामने मजाल है कोई उलटी सीधी बात कर ले. उनका रौबदार चेहरा भूलाए नहीं भूलता. वावजूद इसके मेरे पिताजी उदार मन के थे. कोई भी जरुरतमंद उनके पास आते थे तो वे यथा संभव
उनकी पूर्ति का साधन कर उनकी इच्छा पूरी करते थे। पिताजी का प्रयास हमेशा आने वाले की सहायता करने का ही होता था.
वे छोटे बड़े सभी से एक समान मिलते थे. उनमें एक ख़ास बात और थी, वे घर पर काम करने वाले वफादार सेवकों को पेन्शन व ईनाम देते थे और हमें भी कोई अच्छा काम करने पर शाबाशी मिलती थी.
यहाँ मैं अपने पिता के बारे में बताना चाहती हूँ कि वे इतने रौबदार व्यक्तित्व के मालिक क्यों थे. दरअसल वे अमझेरा रियासत के जागीरदार रहे हैं और वे जिस परिवार के उत्तराधिकारी रहे वह परिवार कोई साधारण परिवार नहीं था. 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मंडलोई परिवार का भी योगदान रहा। धार के पास अमझेरा रियासत थी, स्वर्गीय यशवंत राव मंडलोई अमझेरा, हातोद, मारोल के जागीरदार थे। उस दिन ये खबर उड़ी कि अंग्रेज कारतूस में गाय व सुअर की चर्बी काम में लाते हैं।
अमझेरा की राजनीति में एक नया मोड़ आया धार्मिक विश्वास वाले फौज के सिपाही बागी हो गए। एक संगठन बना व उसने अंग्रेजों के विरोध में बगावत कर दी। तात्या टोपे, रानी लक्ष्मी बाई इत्यादि के नेतृत्व में जगह-जगह लड़ाईयां हुईं। इसी तरह अमझेरा के तत्कालीन राजा बख्तावर सिंह ने भी विद्रोह कर दिया, इसका परिणाम यह हुआ कि राजा बख्तावर के साथी मंडलोई परिवार के सनूकराय मंडलोई व चार अन्य सदस्यों को मिती पौष सुदी चौदस को, संवत् 1915 सन 1858 में फाँसी दी गई। इसके बाद में राजा बख्तावर सिंह को मिती फागुन विदी बारस संवत 1915 सन 1858 में इंदौर छावनी में फांसी दी गई। इस तरह स्वतंत्रता संग्राम में मंडलोई पूर्वजों की भागीदारी अतुलनीय रही।
मंडलोई परिवार का एक और इतिहास राजपूत काल के पराभव के साथ सन 1201 ईस्वी में देश में घोर अकाल पड़ा। उस समय जलालुद्दीन खिलजी ने मालवे में अपना राज्य स्थापित किया था। उसके उत्तराधिकारी अलाउद्दीन खिलजी ने धर्म परिवर्तन के लिए बहुत कठोरता बरती, मृत्यु जैसी यातना इस बर्बरता में धर्म रक्षा हेतु सहनी पड़ी.
मंडलोई परिवार के वंश के तत्कालीन मुखिया इंद्रभान मंडलोई ने धर्म रक्षा में अपने प्राण हंसते-हंसते न्यौछावर किए। परन्तु अपना स्वाभिमान नहीं खोया। ऐसे क्रांतिकारी वीरों के वंशज मेरे पिताजी. मुझे गर्व है, ऐसे क्रांतिकारी परिवार की बेटी होने पर. परिवार में इन सब घटनाओं का हमारे समय तक प्रभाव और रुआब रहा. हम कोई छोटी सी भी गलती नहीं कर सकते थे, परिवार का समाज में बड़ा मान सम्मान होने से, हर काम सोच समझकर करना होता था.
उतार चढ़ाव उनकी जिंदगी में भी बहुत आए. हम 4 बहनें और तीन भाइयों में बडे भैया नही रहे और दो बहनें भी नही रही. मेरे भाई महेश मंडलोई, प्रकाश मंडलोई, नरेंद्र मंडलोई में से अब दो भाई प्रकाश मंडलोई, नरेंद्र मंडलोई ही है । दुर्भाग्य से हमारे सबसे बड़े भाई महेश मंडलोई की मृत्यु युवावस्था में ऐक्सिडेंट से हो गई थी, जब वे जिला कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उनकी मृत्यु से पिताजी हिल गए थे, वे अन्दर ही अंदर टूट गए थे। बहुत दिनों तक उदास रहते थे बमुश्किल वह धीरे-धीरे सामान्य हुए। मैंने अपने पिता का वह समय भी देखा और देखा मजबूत दिखने वाले पिता पुत्र वियोग में कितने भावुक और दुखी रहे.
यही सब देख कर मेरे मानस पटल पर पापा की अच्छाई अंकित होती चली गई। उनमें रूतबा भी था और उनकी हैसियत भी दमदार थी. इसीलिए बचपन से मेरा लालन पालन ऐशोआराम में बीता इसलिए वो हमेशा मुझे बड़े प्यार से सीख देते थे। उनकी बेटी होने के नाते पिताजी की यही सीख मायके से ससुराल जाते वक्त मुझे बार बार याद आती रही और काम भी आती है. वे हमेशा कहते थे कि बेटा एक दिन तुम को दूसरे घर जाना है. पीहर और सुसराल में अन्तर होता है ये सच्चाई है, इसे हमेशा याद रखना. जिन्दगी में खुश रहना है तो एक बात याद रखना होगी, तुम जिस घर जाओगी उस घर और उनके रीति रिवाज अलग होंगे, स्वभाव अलग होंगे, वहां तुमको थोड़ा धीरज रखना होगा तुम समझदारी से खुश हो कर अमल में लाओगी तो कभी तकलीफ महसूस नहीं करोगी। कितनी भी बड़ी हो जाओगी पर याद रखना अपने पैर हमेशा जमीन पर ही रहे। हमें हर हाल में जिन्दगी में खुश रहना चाहिए. पिता के उच्च विचार उनका अनुशासन इन सबने मेरी सोच को परिपक्व किया और शादी के बाद अपने सुसराल में उस विचार धारा से चली. अपनी जबाबदारी को खुशी खुशी निभाते देवर ननंदों की शिक्षा से लेकर शादी तक अपना फर्ज दिल से पूरा किया। पिताजी गजल के और मम्मी लोक गीत गाती थी उनकी ये विरासत मैं अपने आप में भी देखती हूँ.
हमेशा कहते थे जब भी उदास हो तो मेरे ये शब्द याद रखना–
* छोड़ दे शरीर की चिंता को मत कर किसी की आस.
* तेरा राम तो जिंदा है एक आत्म दर्शित को खोज रख, सुख दुख में श्री राम ही साथ रहेंगे.
* दूसरी शिक्षा हमेशा यह देते थे कि अगर तुम सच्चे दिल से किसी को अपना समझते हो प्यार करते हो
तो उसके बारे में कभी गलत मत सोचना.
* Things can never go badly wrong If the heart is pure and love be strong.
* आज भी पिता जब याद आ जाते हैं आखें नम हो जाती हैं.
मेरे पिता मेरे आदर्श हैं ओर हमेशा रहेंगे. उन्हीं के पद चिन्हों पर चलकर जिन्दगी में आगे बढ़ी हूँ. पिताजी को सादर नमन करती हूँ.