In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी बाइसवीं क़िस्त में हिंदी और पंजाबी कवियत्री रानी नारंग अपने पिता स्व. सरदार लखबीर सिंह व्यक्तित्व को रेखांकित कर रही है,साथ ही एक बेटी की उस पीड़ा को उस मर्म को भी साझा कर रही हैं जो परदेस में होने से अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाती हैं और यह उनके जीवन का एक गिल्ट बन जाता है ,वे अपने पिता की इच्छा अनुसार अभी भी लेखन करती हैं, यही उनकी सादर श्रद्धांजलि है …….
प्यार का सागर ले आते
फिर चाहे कुछ न कह पाते
बिन बोले ही समझ जाते
दुःख के हर कोने में
खड़ा उनको पहले से पाया
छोटी सी उंगली पकड़कर
चलना उन्होंने सीखाया
जीवन के हर पहलु को
अपने अनुभव से बताया
हर उलझन को उन्होंने
अपना दुःख समझ सुलझाया
22.In Memory of My Father : पापाजी ने बनाया मुझे लेखक!
अभी 5 अक्टूबर को ही मेरे पिताजी की पुण्यतिथि गई है यादें तो बहुत सारी हैं जो वर्णित नहीं की जा सकती पर कुछ यादों को मैं समेट रही हूं ।
मेरे पिताजी की शिक्षा तो आठवीं तक ही हो पाई क्योंकि छोटी सी उम्र में ही उनके माता जी का देहांत हो गया और उनके पिताजी (मेरे दादा जी) बच्चों की तरफ बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाते थे, 5 साल का छोटा भाई और ढाई साल की बहन उनकी जिम्मेदारी 13 साल की उम्र में ही पिताजी के ऊपर आ गई । 15 साल की उम्र में उनकी शादी कर दी गई । फिर हम चार भाई बहनों का उनके जीवन में आना । बस काम धंधे में ही लग गए और बहुत संघर्ष करना पड़ा । कई अलग-अलग व्यवसाय किए । कभी सोफा सेट बनाने का काम किया, कभी आर्टिफिशियल गहने बनाए, नमक का धंधा भी किया, आख़िर रेडियो पार्ट्स के धंधे में आकर उनको विराम मिला और आख़िर तक इस धंधे में रहे ।
जब मैं कुछ समझने लायक हुई तो मैंने यह देखा वह हर समय संघर्ष से गुजर रहे थे हम बच्चों का पालन पोषण अच्छे से कर सकें । हमारी इच्छाओं को पूर्ण कर सकें जो भी काम करते मेरी मां का पूरा साथ रहता और मैं भी उनके काम में कुछ ना कुछ सहयोग जरूर करती । काम की लगन बहुत थी हर परिस्थिति का मुस्कुराते हुए सामना किया अपने भाई को भी काम धंधे लगाया फिर एक-एक करके सब की शादी कर दी ।
भले उनकी स्कूली शिक्षा पूर्ण नहीं हो पाई मगर वह बहुत ज्ञानी थे । उनको पढ़ने का सदा ही शौक रहा उन्होंने सिर्फ़ अपने ही धर्म का नहीं बाकी धर्म का भी ज्ञान लिया और जासूसी नॉवेल पढ़ने का भी बहुत शौक रखते थे और खुद भी लिखने का शौक रखते थे । उन्होंने खुद भी कुछ गीत, 9 किताबें धार्मिक कथाओं की और एक जासूसी नॉवेल लिखा । वह सब पंजाबी भाषा में और मुझे भी हर धर्म के बारे में जानकारी देते चले गए अनजाने में ही में मेरा धर्म के प्रति लगाव गहरा होता चला गया । वह ज्योतिष विद्या के बारे में भी जानकारी रखते थे । कहीं ना कहीं उनके यह सारे गुण धीरे-धीरे मेरे में कब समावेश होते चले गए मेरे को खुद पता नहीं चला, ज्योतिष विद्या को छोड़कर । मैं भी उनके साथ हर धंधे में उनका साथ देती रही ।
हां तब तक मैं लिखने नहीं लगी थी पर दूसरों का लिखा हुआ जब उनको पढ़कर सुनाती तो मेरे से एक ही बात कहते, बेटा खुद लिख,तू भी तो पढ़ी लिखी है ? मैं कहती कि ‘मुझे लिखना नहीं आता’ वे हंस देते .बात आई गई हो जाती .
एक बार उन्होंने जो बात कही मेरे जहन में घर कर गई कि बहुत ध्यान से मेरी बात सुन ,आज के बाद यह मत कहना कि मैं यह काम नहीं कर सकतीसमझी ! जिस काम का शौक है उसको करो.बार बार करो , एक बार गलत होगा दो बार होगा लेकिन फिर अच्छे से कर पाएंगे । बस उन्हीं की प्रेरणा से मैंने लिखना शुरू कर दिया और मैंने पंजाबी में अपना लेखन शुरू किया और धार्मिक कविताएं पंजाबी में ही लिखी । हिंदी का लेखन तो मुझे इंदौर वासियों नेसिखाया इंदौर लेखिका संघ की स्थापना के साथ शुरू हुआ । इसके बाद मेरी पहली किताब इंदौर लेखिका संघ से प्रकाशित हुई ,जिसकी भूमिका डॉ .स्वाति तिवारी जी ने लिखी थी .तब से मैं हिंदी और पंजाबी दोनोंमें लिखती हूँ .पापा जी का ही आशीर्वाद रहा मैं गुरुद्वारे में धर्म पर लिखे का पाठ भी करती थी और मुझे सराहना मिलती रही .
यही वह प्रेरणा थी कि फिर मैंने मुझसे नहीं होगा शब्द अपनी डिक्शनरी से निकाल दिया उसके बाद खूब सारे काम भी किए फिर वह चाहे छत की लीकेज ठीक करना हो, कुर्सियों का कुशन बनाना हो । यहां तक की ससुराल में आकर एक बार पूरे घर के बिजली के बोर्ड तक भी बदल दिए ।
पापाजी को खाना बनाने का भी बहुत शौक था मिठाइयां, नमकीन बहुत स्वादिष्ट बनाते थे । मैंने खाना बनाना भी उन्हीं से सीखा जब कभी कोई त्यौहार होता तो हम दोनों लग जाते दिनभर कुछ ना कुछ बनाने ।
पिताजी ने अपनी बहन और बड़ी बेटी की शादी छोटी उम्र में ही कर दी थी और उनकी इच्छा थी मेरी भी शादी जल्दी हो । पर मुझे पढ़ने का शौक था । शायद ऊपर वाले की भी कुछ इच्छा थी कि, मैं उनके साथ और रहूं तो मुझे पढ़ने का मौका भी मिलता गया और इसके साथ ही उन्हें सहयोग करने का भी ।
मेरी छोटी बहन वैसे भी बहुत कम बोलती थी और मैं पिताजी के साथ हर पहलू पर चाहे कोई भी विषय हो उनसे बात करती जब तक मेरी तसल्ली नहीं हो जाती मैं उनसे बहस करती रहती । मेरा उनके साथ एक दोस्ती का रिश्ता ही रहा,सभी भाई बहनों में मैं बहुत नज़दीक थी उनके ।
एक दिन मुझे कहने लगे कि मुझसे वादा कर तू मेरे घर से रोकर नहीं जाएगी नहीं तो मुझे बहुत तकलीफ होगी । यूं तो बेटी को विदा करना किसी भी पिता के लिए बहुत ही कठिन घड़ी होती है । और सच में मेरी शादी वाले दिन चार-पांच घंटे बेहोश रहे मगर मुझे खबर नहीं होने दी । मुझे बाद में बताया गया ।
अपने जीवन में हर एक को सम्मान देने वाले हर आने जाने वाले को इज्जत देने वाले मेरे पापाजी बहुत सरल और विनम्र थे । हम ग्राउंड फ्लोर पर रहते थे तो वहां से रिक्शा वाले ऑटो वाले को मौसम के मुताबिक उनको रोक कर चाय या ठंडा पिलाते रहते । छोटों से प्यार करने वाले ।अपने सामर्थ्य अनुसार हर एक की मदद के लिए खड़े रहने वाले और मुझे भी यही कहते किसी का भी कुछ भी काम करो, मदद करो तो अपेक्षा कभी मत रखना और अपनी चादर देखकर पैर पसारना ।
उन्हें घूमने का भी बेहद शौक था और हम बच्चों को भी उन्होंने खूब घुमाया 75 प्रतिशत हिंदुस्तान तो वह देख ही चुके थे ।
जीवन के आखिरी 3 साल बिस्तर पर रहे पर कभी निराश या हताश नहीं हुए अपनी बीमारी में भी कुछ लेखन करने की सोचते और मुझे फोन पर कहते मुझे कम दिखाई देता है तो जल्दी आ मेरे को तुझसे किताब लिखवानी है । मगर प्रभु की इच्छा के आगे नतमस्तक होना पड़ता है । मैं आखिरी समय में उनके पास जा नहीं पाई । मेरे जाने से पहले ही स्वासों की पूंजी पूरी कर प्रभु चरणों में चले गए । यहां तक कि मैं उनके दर्शन भी ना कर पाई इस बात की टीस सदा मन में रहती है । उनकी चहेती उनके सबसे नजदीक पर उनके दर्शन नसीब नहीं हुए ।
अपने बच्चों की हर इच्छा पूर्ण करने वाले प्रेरणा स्रोत पिता की यादों को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता । वे तो पल पल याद आते हैं और कहीं जब जीवन उलझता है तो उनकी सीख भी याद आती है कि तोड़ना बहुत आसान होता है चाहे फूल हो या रिश्ते पर जोड़ना ही कठिन काम है ।
सादा जीवन उच्च विचार को ग्रहण करने वाले मेरे पिताजी को शत-शत नमन ।
रानी नारंग,मुंबई
हिंदी और पंजाबी की कवियत्री