In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 24th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं छत्तीसगढ़ राज्य मानव अधिकार आयोग के संयुक्त संचालक श्री मनीष मिश्र, को। वे अपने पिता के साथ भावनात्मक रूप से बहुत गहरे जुड़े रहे हैं. पिता पर लिखने की मनीष की उत्सुकता ही उनका अपने पिता को सादर नमन है, यही उनकी विनम्र श्रद्धांजलि है —–
कोई छोटी मोटी हस्ती नहीं
वो उसके सपनों की जान होता है,
पिता सिर्फ़ पिता ही नहीं होता
पिता पुत्र की पहचान होता है।
प्यार करता है पुत्र से
उसके हक के लिए खड़ा होता है
पिता की ही छत्र छाया में
पुत्र धीरे-धीरे बड़ा होता है,
एक रिश्ते से बढ़कर वो
पुत्र का सम्मान होता है
पिता सिर्फ़ पिता ही नहीं होता
पिता पुत्र की पहचान होता है।- संदीप कुमार सिंह
24.In Memory of My Father: प्रखर पत्रकार बबन प्रसाद मिश्र– जिनके नाम पर रायपुर में है एक महत्वपूर्ण मार्ग !
शब्दों से परे भी आत्मा की एक दुनिया है, जो बेजुबान है, हमारे और आपके जीवन मे अपने बच्चों के साथ चलती है। बिना कहे, बिना किसी मतलब और आडंबरों से दूर, एक अनकही भावना, जो माता-पिता की अपने बच्चों के साथ रक्त संबंधों में महसूस होती है, बेटा या बेटी कितनी भी गलतियां कर लें, एक माता-पिता का ही ऐसा रिश्ता है, जो निर्मोही नही होता, अपनेपन का मार्मिक लगाव अलग होता है। यह बातें मैं इसलिए लिख पा रहा हूँ, कि मैंने अपने माता-पिता के नैसर्गिक प्यार को जिया है। शायद आप सबके साथ भी यही सत्य होगा, बस किरदार और पर्दे, परिस्थितियों के साथ बदल जाते हैं, माता-पिता का अपने बच्चों से भावनात्मक लगाव ईश्वर की अनुपम रचना है।
मैं भाग्यशाली रहा, जो ऐसे पिता की संतान बना, जो न केवल बौद्धिक थे, वे अपने संबंधों को संवेदनशीलता के साथ निभाते थे। समाज में प्रख्यात व्यक्तित्व में यह गुण शायद समान होता है, वे आपसी संबंधों को भावनात्मकता से निभाते हैं। जब मैं अपने पिता स्व. श्री बबन प्रसाद मिश्र की बात कर रहा हूँ, तब मेरे जहन में बचपन की वह सारी स्मृतियां मानस पटल पर दिख रही हैं, जो उनके सैद्धांतिक जीवन का परिचायक हैं, मैंने इसलिए खुद को भाग्यशाली कहा, कि एक सैद्धांतिक पिता की संतान होने मात्र से आपके जीवन में बहुत कुछ हो जाता है, यदि आपमे उनको देखकर सीखने की ललक हो। पिता का आरंभिक दौर शिक्षक से चालू हुआ, जल्द ही उन्होंने विधि में स्नातक की पढ़ाई कर, वकालत का पेशा जबलपुर में चुन लिया, जो अच्छा खासा चल निकला था, परंतु नियति अपना रास्ता खुद तय करती है।
सन 1962 से 1971 के मध्य अवधि में युगधर्म समाचार पत्र के जबलपुर संस्करण में पिता जी सह संपादक थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा का मुखपत्र माना जाता था। उनकी पत्रकारिता के गुरु महाकौशल के तत्कालीन प्रख्यात मूर्धन्य पत्रकार और आज भी प्रासंगिक स्व. श्री भगवती धर वाजपेई जी थे, जिन्होंने उन्हें पत्रकारिता में स्थान दिया। कालांतर जुलाई 1972 में नरकेसरी प्रकाशन, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रतिनिधियों से निर्मित संस्था रही, उसके समाचार पत्र दैनिक युगधर्म, रायपुर का उन्हें संपादक बनाकर रायपुर भेजा गया, वे छत्तीसगढ़ नही आना चाहते थे, वकालत का सहपेशा उनका अच्छा खासा चलने लगा था, तत्कालीन सरसंघचालक आदरणीय स्व.श्री बाला साहब देवरस ने उन्हें स्वयं नागपुर बुलाया, और रायपुर का संपादक का पद संभालने कहा। पिताजी उनकी बात को टाल न सके, वकालत छोड़ पूर्णकालिक पत्रकारिता में उन्हें रायपुर आना पड़ा। युगधर्म मानों उनकी आत्मा का अखबार था, सुबह 9 बजे से रात 1 बजे तक की लगातार मेहनत हमने उनकी वर्षों देखी, युगधर्म में उनको सभी वरिष्ठ बबन जी कहा करते थे, मैंने कुशाभाऊ ठाकरे जी को भी अपने घर रुकते देखा, और न जाने कितने नाम, जिनको लिया जा सकता है, कि कितनी सादगी से वे हमारे बीच हुआ करते थे। इस बीच संघर्ष का बड़ा दौर नरकेसरी प्रकाशन के अखबार के साथ इसलिए भी रहा था, कि संघ स्वयं राष्ट्रवादी चिंतन और अखण्ड भारत में अपनी ऊर्जा झोंक रहा था, परंतु सरकारें ज्यादातर दूसरी विचारधारा की रहीं, तो सरकारी विज्ञापनों में भी यथा आवश्यक सहयोग नही मिल पाता था।
इमरजेंसी के दौर में युगधर्म रायपुर में भी ताला लगा, और अखबार फिर स्वयं को आर्थिक दृष्टि से खड़ा कर नही पाया। उस समय विज्ञापनों के अलावा एजेंसी और हॉकर पर अखबारों की प्रसार संख्या जुड़ी रहती थी, प्रसार संख्या बढ़ाना प्रत्येक अखबार का लक्ष्य था। रायपुर से कुल जमा चार बड़े अखबार थे, नवभारत, देशबंधु, युगधर्म और महाकौशल। कालांतर में अखबार बढ़े। युगधर्म, रायपुर का कठिन दौर हम लोग अपनी बाल्यावस्था में देख रहे थे। संघर्षों की कहानी ऐसी थी कि मां कहती बस इस साल के बाद सब ठीक हो जाएगा, आर्थिक विपन्नता इतनी कि जिस कॉलोनी में हम रहते थे, वहां के पड़ोसियों से यह इसलिए भी कभी छुपा रह न सका, क्योंकि वे हर कठिन समय मे एक परिवार की तरह मदद करते रहे, युगधर्म से विदा होने के बाद पिताजी का भोपाल स्वदेश जाना, अपने शहर की पत्रकारिता से अलग होने पर, हम सबने उस दौर में ही महसूस कर लिया था, कि यह शेर की सवारी है, उतरने के बाद संपर्क में रहने वालों की संख्या शायद बहुत कम हो जाती है। खैर कालांतर में नवभारत, रायपुर के प्रबंध संपादक पर कार्य करते हुए, हमने उनकी सरलता को अनुभव किया, हर रोज कोई नया व्यक्ति उनसे सुबह घर मिलने आता, और बिना पानी चाय वे किसी को जाने नही देते थे, चाहे वे प्रेस के छोटे से छोटे कर्मी हों। नवभारत,रायपुर को शहर का नंबर एक का अखबार उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में रखा। पर परिवर्तन प्रकृति का नियम है, नवभारत रायपुर के फ्रंट पेज पर शांति आंवला का विज्ञापन उनकी बिना सहमति के प्रकाशित हुआ, वे अखबार के संपादक थे, उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। इन सिद्धांतों को जब मैं गहराई से सोचता हूँ, तो पाता हूं, एक सैद्धांतिक व्यक्ति होना, केवल और केवल सूली का पथ है, परंतु उसका परिणाम कि वो आज हम सब में जीवंत हैं, उनकी चर्चा उनके देहावसान के इतने वर्षों बाद भी है।
जिस दिन उन्होंने प्राण त्यागे, राष्ट्रीय अवार्ड वापस करने वालों की आलोचना से संबंधित कार्यक्रम संघ की विचारधारा के एक मंच ने रखा था, यह दिन भी विशेष था, 14 वर्षों में आनेवाली एकादशी का दिन। कार्यक्रम में उन्होंने सरस्वती वंदना के बाद तबियत ठीक नही लगने की बात उपस्थित आयोजकों को बताई, मेरे मित्र श्री प्रभात मिश्र ने मुझे फ़ोन करके तत्काल बुला लिया, परंतु अस्पताल ले जाने के पूर्व ही उन्होंने मेरे कंधे पर अपने प्राण त्यागे। एक पुत्र के लिए इससे अधिक वेदना का क्षण हो नहीं सकता, कि स्वयं के होते पिता को बचाया न जा सका। जीवन में उन्होंने खूब यश और सम्मान कमाया, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा उन्हें राष्ट्रीय स्तर के पत्रकारिता सम्मान से नवाजा गया.
उन्होंने जीवन पर्यन्त संघर्षों के पथ पर चलना सीखा था, और मनसा वाचा कर्मणा उस पर चले भी। परंतु उनका स्वभाव, उनके दो शब्द प्यार के, सम्मान के, आज भी लोग याद करते हैं, यही पुण्यात्मा की कमाई रही।
परिवार विशेष तौर पर, तत्कालीन महापौर श्री प्रमोद दुबे जी का आभारी है, कि उन्होंने पिता जी की पत्रकारिता को स्तम्भ मानकर, रायपुर में जिस स्थान पर हमारा रविनगर का मकान है, उसे उन्होंने पंडित बबन प्रसाद मिश्र मार्ग घोषित कराया। उनकी लिखी किताब ” मैं और मेरी पत्रकारिता ” आज के नवयुवक पत्रकारों और मीडिया में आने वाले सहयोगियों के लिए एक मार्गदर्शक है।
मनीष मिश्र
संयुक्त संचालक,
छत्तीसगढ़ राज्य मानव अधिकार आयोग,
रायपुर(छत्तीसगढ़)
+91 94252 13364
23.In Memory of My Father : जब बेटी ने किया पिता का अंतिम संस्कार!
नोट-[कविता संदीप कुमार सिंह के अप्रतिम ब्लॉग से साभार ]
In Memory of My Father: वे सही अर्थों में अजातशत्रु थे
19.In Memory of My Father : Silent Message-पिता के लॉकर से निकला वह खामोश संदेश!