35.In Memory of My Father-Shri Dharam Chand Ji Bardia: ऐसे थे हमारे पिता, सिद्धांतों और अंतर्विरोधों से घिरे! 

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मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 35 th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं,‘कथा क्रम सम्मान’,‘रत्नीदेवीगोयन का वाग्देवी सम्मान,‘बिहारी पुरस्कार’ व ‘मीरा स्मृति सम्मान’ से सम्मानित  हिन्दीसाहित्य की प्रतिष्ठित लेखिका मधु कांकरिया जी को .मधु कांकरिया के उपन्यास और कहानियॉं बहुचर्चित हैं। कथेतर के क्षेत्र में मधु जी बहुत सुन्दर यात्रा-वृत्त लिखे हैं।उनके पिता का नाम श्री धर्मचंद जी बरडिया था, जो पेशे से मेटल के कारोबारी थे.पिता के जीवन के संघर्ष ,यातना और हताशा को याद करते हुए  वे पिता  की सरल और सादगी पसंद शैली को बताते हुए अपनी भावांजलि दे रही हैं मधु कांकरिया ……

पिता नहीं होता ग़रीब
पिता नहीं होता अमीर
पिता दिखा नहीं करते
दिल के होते बहुत क़रीब
पिता -वजूद शक्ति देता
करते सम्मान तुम्हारा

पिता गमों को सारे पीता
औलाद के सुख में जीता
निष्कपट निष्पक्ष रहकर के
संतानों का पालन करता

समय कह रहा – सुनो कि
देने का अवसर आया
थमो पिता -अब श्रांत रहो
लौटाने का समय हमारा
अब हर दिन होगा तुम्हारा
सौभाग्य बनेगा हमारा–कुसुम सोगानी

35. In Memory of My Father-Shri Dharam Chand Ji Bardia: ऐसे  थे हमारे पिता, सिद्धांतों और अंतर्विरोधों से घिरे!

मधु कांकरिया ,मुंबई

आपका फोन आया –, पिता की स्मृतियों में डूब गया मन..भीतर देर तक कुछ कंपकंपाता-थरथराता रहा. उदास धुन की तरह भीतर बजते रहे पिता .जीवन से जुड़कर रहना पिता से ही तो सीखा था.

हर दोपहरी पीछे घूम जाती है आँखे रिश्तों कि उन जमीनों पर जहाँ कभी जीवन था,खिलखिलाहटे थी.एसा नहीं है कि आज वैसे पल नहीं आते हैं ,आते हैं,पर वे पल मेरे लिए नहीं होते हैं.क्योंकि अब मैं वह नहीं रही.तस्वीर थोड़ी धुंधली चाहे पड़ गयी हो,पर पिता आज भी वहीँ खड़े हैं .वैसे ही.

जीवन भर पिता चले,सिर्फ चले , संघर्ष ,यातना और हताशा को बूँद बूँद पीते हुए चले.और जब सुस्ताने का,ठहर कर ठन्डे झोंको का आनंद लेने का समय आया तो चल दिए ,नि:शब्द .जीवन की कड़ी धूपमें तपे पिता राजस्थान से मात्र सोलह वर्ष की उम्र में कोलकाता कमाने के लिए आये थे . कमाने में ही उनकी सारी उर्जा बह जाती और घर  की  जिम्मेदारियां उन्हें अनचाहे बोझ की तरह लगती थी. ‘भूल गए राग,रंग /भूल गए छकड़ी /तीन चीज याद रही/तेल नून लकड़ी.’ पिता अक्सर कहते. विशेषकर तब जब पारिवारिक जिम्मेदारियां उनकी जिन्दादिली को निगलने लगती.

घनघोर पढ़ाकू पिता .जाने कितनी साहित्यिक किताबों का नाम मैंने पिता के मुख से ही सुना था.वे गृहस्थी के पचड़े से दूर भागते,पर माँ थी कि उन्हें जीवन और व्यवहार में जबरन खींचती.ताउम्र चलती रही यह खींच-तान.

पर पिता कभी भी वह बन ही नहीं पाए जो वे बुनियादी तौर पर थे ही  नहीं. एक घटना आज भी कौंधती है जेहन में.दार्जिलिंग से छोटे भाई के दोस्त  उपहार स्वरूप कुछ शो-पीस लेकर आये.जैसे ही खोले उन्होंने पैकेट्स ,हम सभी टूट पड़े उपहारों पर.लगे उन्हें छू-छू कर देखने.पर निर्विकार-निर्लिप्त मेरे पिता पढने लगे उस अख़बार को जिसमे लिपटे थे वे उपहार.माँ बताती है कि एक बार कोलकाता में पिताजी के नए बने एक दोस्त पिताजी को बदमाशी से सोनागाछी के लालबत्ती इलाकों मे ले गया.और भाव तोल करने लगा.जैसे ही पिताजी को लगा कि कुछ गलत है वे वहां से भाग खड़े हुए.घर आकर पिताजी घंटे भर तक ध्यानमग्न रहे.उस शाम उन्होंने ग्लानिवश कुछ खाया भी नहीं.

व्यवसायी थे पिता ,पर कभी भी उन्होंने चमड़ा बनाने वाली,मांस बेचने वाली कम्पनियों के शेयर नहीं खरीदे.कभी भी उन्होंने रेलवे की चोरी का माल नहीं खरीदा .वे मुनाफा में नहीं वरन शुद्ध लाभ में विश्वास करते थे. और यह बात तबकी है जब जीवन अभावों की तपती हुई जमीन था . हम एक  कमरे में रहते थे,वही हमारा सोने का,पढने का,खाने का और रहने का कमरा था.और  पिता सिर्फ ६ पैसे बचाने के लिए सियालदाह से कॉलेज स्ट्रीट तक (लगभग २.५ किलोमीटर) पैदल आते थे.

आर्थिक रूप से खुशहाली के दिनों में भी पिता ने सादगी और किफायती जीवन से अपना नाता नहीं तोडा.कपडे बुरी तरह घिस जाते ,बदरंग हो जाते फिर भी उन्हें पहनते रहते. हम उन कपड़ों को छिपा देते तो कहते – माँ बाप घिस जाएंगे तो क्या उन्हें भी फेंक दोगे?जब तक कपडे तन ढक रहे हैं क्यों फेंका जाए ?

माँ बताती है कि पहली बार जब पिता उन्हें लेकर अपने गाँव आये तो देखा कि माँ ने चश्मा पहना हुआ है.उन्होंने कहा ,चश्मा उतार दो.अन्यथा लोग फब्तियां कसेंगे कि बहू कितनी फेशनेबल है.माँ ने आनाकानी की,कहा की बिना चश्मे के साफ़ कैसे दिखेगा.पर पिता ने उनकी एक भी नहीं सुनी.

ऐसे  थे हमारे पिता, सिद्धांतों और अंतर्विरोधों से घिरे!

जब तक पिताजी थे मेरी कोई भी कहानी किसी भी प्रतिष्ठित पत्रिका में नहीं छपी थी. जहाँ जहाँ मैं भेजती कहानी वह अबिलम्ब वापस लौट आती.बेबाक पिता मजा लेने से कभी नहीं चुके.एक बार कहा भी ‘एक प्रेमचंद थे जिन्हें  संपादक बंद कर बैठा देते थे  कि कोई कहानी लिख कर दीजिये और एक तुम हो कि कोई छापता ही नहीं है’. उस समय शायद मुझे अखरा था ,पर आज सोचती हूँ कि पानी से मिले पानी की तरह कितना सहज और स्वाभाविक था हम पिता-पुत्री का रिश्ता.

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जिन्दगी में जो कुछ मिला पिता से ही मिला.  तब आज की तरह अति और गति में नहीं जीते थे हम .तब ६ महीने में एक फिल्म देखते थे हम और फिर आनेवाले ६ महीने तक उसी की बात करते.मजा लेते.फिर काफी सोच समझ कर इधर उधर से पता लगाकर नयी फिल्म के टिकट खरीदे जाते.

अभी जमशेदपुर से आयी मेरे बेटे की मित्र ने डेढ़ दिन में तीन फिल्मे देख डाली.मैं हैरान. कैसे देख पायी तुम डेढ़ दिन में तीन फिल्मे? वह हंसी,’आंटी , समय कम था क्या करती?

समय कम है इसलिए जीवन जीए  नहीं,निगल लें.पिता होते तो शर्तिया यही कहते , पर मैं कह नहीं पाती.

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मधु कांकरिया (9167735950)

मधु कांकरिया आधुनिक हिंदी साहित्य की अग्रणी लेखिका हैं। उन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में अनुपम कृतियों का सृजन किया है। इसके साथ ही उन्होंने समाज में व्याप्त अनेक ज्वलंत समस्याओं जैसे अप-संस्कृति, महानगर की घुटन और असुरक्षा के बीच युवाओं में बढ़ते नशे की लत, रेडलाइट एरिया का दर्द और पर्यावरण आदि विषयों को अपनी रचनाओं का विषय बनाया हैं।

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