मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 36th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं महाकाल की नगरी उज्जैन से एक युवा लेखक सत्यम चांदनीवाला को .उनके पिता स्व. श्री कमलनयन चान्दनीवाला जिन्हें अधिकाँश लोग ‘बापू भैया’ के नाम से जानते हैं .मिलनसार ,खुश मिजाज बापू भैया कोई भी अवसर हो अपना सन्देश पत्र लिख कर अवश्य भेजते थे .उज्जैन की वेधशाला प्रमुख रहे स्व. कमलाकांत चांदनीवाला जी पर उनके दुसरे नंबर के पुत्र डॉ.मुरलीधर जी का लेख हम 18 वीं क़िस्त में पढ़ चुके हैं ,बापू भैया उनके बड़े पुत्र थे .सत्यम अपने पिता को याद करते हुए कोरोना काल की विडंबना को भी याद कर रहे हैं .वे अत्यंत भावुक मन से अपने पिता को भावांजलि से रहे हैं –
कभी धरती तो कभी आसमान है पिता
जन्म दिया है अगर माँ ने
जानेगा जिससे जग वो पहचान है पिता….”
कभी बनके घोड़ा घुमाता है पिता…
36.In Memory of My Father : जीवन भर संबंधों को निभाया, हर सुख -दुःख में उपस्थिति दी,कोरोनाकाल में अकेले ही निकल गए अनंत यात्रा पर
सत्यम चांदनीवाला
मैं पिता को याद करता हूँ तो विधि का विधान स्वत: स्मृतियों के पन्ने पलटते हुए सबसे पहले याद आता है.पिता के सामाजिक संबंधों के उन प्रमुख पहलुओं को भी याद करता हूँ जो उनकी प्राथमिकता हुआ करते थे .थोड़ी सी भी जान पहचान अगर होती थी तो पिताजी उसे सुख दुःख में जाकर, सन्देश पत्र भेजकर अपनी उपस्थिति दे ही देते थे.एसा सामाजिक -व्यावहारिक व्यक्ति अकेला अपनी अनंत यात्रा पर निकल गया तो विधि का यह कैसा विधान था ? और एक परम स्नेही इंसान के साथ यह इतना क्रूर भी क्यों था . एक वैश्विक महामारी ने कितना कुछ बदल कर रख दिया था .
“मेरी स्मृतियों में मेरे पिता” यह विषय ही ऐसा है कि मेरे पापा सभी के स्मृतियों में विद्यमान है । उनमें यह खूबी थी कि जो शख्स उनसे एक बार मिल लेता था वह उनका मुरीद हो जाता था और पापा उनके। पापा को उनमें गुण ही गुण दिखाई देते थे। वह कभी किसी की निंदा नहीं करते थे। अपनी भावनाओं को प्रकट करने की प्रेरणा हमारी पारिवारिक सदस्य प्रसिद्ध लेखिका स्वाति तिवारी जी ने कहीं । कुछ पुरानी यादें भी थी जिनके मार्गदर्शन हमारे काका आदरणीय मुरलीधर जी चांदनीवाला ने दिया। उन्होंने काफी साल साथ निभाया। वह हर छोटी-छोटी बात के प्रत्यक्ष साक्षी रहे ।
बात सन 1959 की है जब तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद उज्जैन स्टेशन पर आए तो पापा अपने छोटे भाई को कंधे पर बिठाकर ले गए और बड़ी उत्सुकता वश दोनों भाइयों ने डाक्टर राजेंद्र प्रसाद को देखा और उन्होंने हाथ हिलाया। सन 1956 में नेहरू जी धार आए तो पापा के सर पर उन्होंने हाथ फेरा जिससे उनका बालक मन खिलखिला उठा। यह बातें आज के समय में छोटी लगती होगी लेकिन यह शख्सियत ऐसी थी जिनका पद ऊंचा था लेकिन सादगी बहुत थी। 1960-61 में पापा जब आठवीं में पढ़ते थे। हमारी बुआ को देखने घर पर मेहमान आये । दादी जी ने पापा को रवा लाने के लिए भेजा। वह बाजार गए और वहां बैंड की मधुर ध्वनि व गाना “अय्या अय्या करूं मैं क्या सुकू सुकू” सुनकर इतने मुग्ध हो गए कि खाली हाथ ही घर आ गए।
पापा को NCC में जाने का बहुत शौक था लेकिन उनका चयन नहीं हो पाया। उनकी इच्छा प्रबल थी और उसे समय विद्यालय में MCC (महाराजवाड़ा कैडेट कॉर्प्स ) चालू हुई वहां उनका चयन हुआ और उन्होंने पूरी ट्रेनिंग ली। उनकी एक इच्छा डॉक्टर बनने की थी। औषधि संबंधी कार्य करने के काफी इच्छुक रहे। उन्होंने अस्कोफैन लैब में कार्य भी किया । विनोद मिल में टाइम कीपर के रूप में कार्य किया । वहां उन्हें सभी चांदनी बाबू के नाम से पुकारते थे। फिर आपका चयन सरकारी नौकरी हेतु शिक्षक पद पर हुआ। आप काफी समय होशंगाबाद विज्ञान से भी जुड़े रहे। एकलव्य संस्था में कार्य करते हुए आपको प्रोफेसर यशपाल जैसे महान व्यक्तित्व का सानिध्य प्राप्त हुआ। आप प्रधानाध्यापक ,सहायक शाला निरीक्षक, परियोजना अधिकारी,सत्कार अधिकारी और विकासखंड शिक्षा अधिकारी के पद पर अपने सेवाए दी। सत्कार अधिकारी के रूप में पापा की ड्यूटी सर्किट हाउस पर लगी जहां शिक्षा विभाग के प्रमुख सचिव आए हुए थे । जब सुबह प्रमुख सचिव की गाड़ी नहीं आई तो पापा ने अपनी लूना पर उन्हें पूरा उज्जैन घुमाया और महाकाल के दर्शन कराये। बड़े अधिकारी भी हतप्रभ रह गए लेकिन प्रमुख सचिव ने उनकी खूब प्रशंसा की ।
31.In Memory of My Father : कर्मयोगी गृहस्थ संत बाबूजी
सन 1995 में पापा को खून का थक्का जम गया। वे दो दिन कोमा में रहे। बाबा महाकाल की कृपा से उन्हें होश आया और फिर से ठीक होने लगे। इसका जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि इतनी गंभीर बीमारी होने के बावजूद उन्होंने हिम्मत नही खोई। इच्छा शक्ति उनमें प्रबल थी । जन्म से लेकर विवाह समारोह व शोक पत्र लिखने की भाषा शैली की जो अद्भुत कला उनके पास थी वो बिरले ही देखने को मिलती है। रंग-बिरंगे कागज, पेन , लिफाफे यह उनकी पहचान बन गए थे। काफी लोगों ने बधाई संदेश व शोक पत्र की फ्रेम तक करवा रखी है । उनकी लेखन शैली गजब थी वह इसके लिए काफी समय देते थे।
सामाजिकता और परिवारिकता के गुण उनकी एक अलग ही छवि प्रदर्शित करता है। धूम्रपान व तंबाकू खाते अनजान व्यक्ति को भी टोक कर उसे फिकवा देते थे। कॉलोनी में किसी के घर का पता पूछने पर वह उसे उनके घर तक छोड़कर आते थे। यह उनका निश्चल स्वभाव था।
अभी तो और भी अनुभव साझा करने हैं। जिन्हें चंद शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता है। मीठा खाने व खिलाने के अत्यंत शौकीन थे। दादाजी का प्रिय गीत चौदहवीं का चांद हो व उनका प्रिय बहारों फूल बरसाओ वह अक्सर गुनगुनाया करते थे। अपने अंतिम समय में वह इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है अक्सर गाया करते थे। अपनी पोती स्वरा और पोता सात्विक से उनका विशेष लगाव था । जिन्हें वह प्यार से गौरी और बाला पुकारते थे । दोनों बच्चे उनके द्वारा दिए गए संस्कारों का अनुशासित तरीके से पालन कर रहे हैं। जीवन भर उन्होंने किसी को तकलीफ या कष्ट नहीं दिया। वह हर कार्यक्रम में उपस्थिति देते थे। लेकिन अंतिम समय चुकी कोरोना होने के कारण बाध्यता थी , अकेले ही अनंत यात्रा पर निकल गए।