

एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति:”मेरी माँ “-
माँ एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति है जो हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘मेरी माँ ‘श्रृंखला के माध्यम से हम अपनी माँ के प्रति अपना सम्मान ,अपनी संवेदना प्रकट कर सकते हैं. मुकेश जी अपनी माँ को याद करते हुए यह भी बता रहे हैं कि वह समय कितना अलग था हमारी सामजिक व्यवस्था में परिवार और दाम्पत्य कितना मजबूत हुआ करता था ,जिसके चलते पति पत्नी में कोई साम्यता ना होने के बावजूद कितना अद्भुत साहचर्य हुआ करता था ,रिश्ते इतने मजबूत कि वे एक दूसरे के लिए ही बने थे। वे माँ के कहते हैं कि “कभी कहीं अचानक कोई छोटी बच्ची मेरा हाथ पकड़ कर रोक ले मुझे और कहे कि पहचाना या नहीं ? मैं तुम्हारी माँ हूँ।”ये भावुक करती मुकेशजी भावना मुझे कवि प्रदीप की पंक्तियाँ याद दिला गई —स्वाति तिवारी
चलो चलें माँ
सपनों के गाँव में
काँटों से दूर कहीं
फूलों की छाओं में
चलो चले माँ
हो राहें इशारे रेशमी घटाओं में
चलो चलें माँ
सपनों के गाँव में
रहना मेरे संग माँ हरदम
ऐसा ना हो के बिछड़ जाएँ हम!
4.My Mother: -मेरी अन्तर्मुखी माँ सुशीला नेमा एक बार फिर लौट आये।
मेरी माँ। वो वैसी ही थी जैसी माँ होती हैं।दस साल पहले नहीं रहीं वो। होती तो इस मई में शायद बयासी साल पूरे करती।जब भी अपनी सीधी सरल और कम बोलने वाली माँ को याद करता हूँ मन विषाद से भर जाता है।ग़ुस्सा आता है खुद पर।माँ की गोद में सर रख कर कभी सोया हूँ या उनसे बहुत सी बातें की हो मैने ऐसे बहुत ज़्यादा मौके याद नहीं कर पाता मैं।जैसे ही थोड़ा सा बड़ा हुआ किताबों के आगे दुनिया जहान को बिसरा बैठा मैं। अफ़सोस उनमें माँ भी थी।मैं औघढ सा दुनिया भर की किताबों में डूबा रहा ,और अपने लिये परोसी गई थाली का भोग लगाता रहा।मैंने इस बात की लेशमात्र भी परवाह नहीं की कि मेरी भूख की चिन्ता करने वाली मेरी माँ के लिये भी मुझे कुछ करना चाहिये।और फिर तेईस साल की उम्र मे अनायास मिल गई नौकरी ने भी मुझे दूसरे शहर में भेजकर उनसे और दूर कर दिया।जीवन की आपाधापी में मेहमानों की तरह ही मिलता रहा मै अपनी माँ से ,और फिर उनका हाथ पकड़ कर उनके मन की बात पूछने के दिन मेरी ज़िन्दगी में कभी आये ही नहीं।
साँवली सी ,साधारण नाक नख्श वाली ,कम पढी लिखी माँ और मेरे विद्वान ,सुदर्शन ,गौरवर्ण ,क्रोधी पिता के व्यक्तित्व से कोई साम्यता तलाशना बेहद कठिन था ।पर वे एक दूसरे के लिये ही बने थे।और उन दोनों ने अद्भुत साहचर्य निभाया।बाबूजी अल्प बचत अधिकारी थे।सागर यूनिवर्सिटी के टापर थे और उन दिनों मेधावी छात्रों को नौकरियाँ मिलना बहुत कठिन था नहीं ,पर वे अपने पिता से झगड़ गये और पहली मिली नौकरी के ही होकर रह गये।उन्हें हमेशा लगता था कि वे वो नहीं हो सके जो वे हो सकते थे ,और शायद यही बात उन्हे नाराज़ भी बनाये रखती थी।हो सकता है कि माँ भी यह जानती हो ,वे हमेशा शान्ति से उन्हे सुनती थी।बहुत ज़रूरी होने पर ही अपनी बात कहती थी। पर जब वो कहती थी तो मेरे पिता को सुनना ही होता था।
मेरे पिता की तुलना में अधिक स्थिर चित्त थी वो ,और जिस किसी के बारे में जो भी राय वो बना लेती थी उससे उन्हे डगमगाना हम बच्चों के लिये भी नामुमकिन जैसा था।मैंने अपनी शान्त और समावेशी माँ को कभी भी किसी प्रसन्नता के अवसर पर बेहद खुश होते या किसी दुख के आने पर जार जार होकर टूटते हुये नहीं देखा।अमरवाडा में जन्मी ,केवल चौथी क्लास तक पढ़ी मेरी माँ को रामरक्षा स्त्रोत ,बहुत से चालीसा और स्तुतियाँ कंठस्थ थी।भगवान पर पूरा भरोसा था उन्हे और यही भरोसा उन्हे जिलाये रखता था।
एक बडे बाप की बेटी थी वो।ऐसा होने के बावजूद वो अपनी मध्यमवर्गीय गृहस्थी से सन्तुष्ट थी।हद दर्जे की स्वाभिमानी मेरी माँ अपनी चादर की लम्बाई पहचानती थी और बाबूजी की सीमित आय से कभी अंसन्तोष हो उन्हे ऐसा कभी लगा नही।अपने पूरे जीवन में कभी भी किसी से कुछ भी ना माँगने वाली मेरी माँ बाबूजी के ना रहने पर और ज़्यादा शान्त हो गयीं।लगभग विरक्त सी और उनके मन की थाह लेना और ज़्यादा कठिन हो गया।
बाबूजी का साथ छूटने के बाद वो अपने राम के और ज्यादा पास हुई।दुनिया मे थी पर होकर भी नही थी।अपने बच्चो की उपलब्धियो को बढा चढा कर बताना उन्हे कभी आया ही नही था।जब कम था वो तब भी राजी थी और जब सब कुछ हुआ तब भी वो निस्पृह बनी रही।हम लोगों से ज़्यादा हमारे बच्चों की हो गयीं।दिन ऐसे ही बीतते रहे और फिर एक दिन अचानक बिना कुछ कहे सुनें वे भी चली भी गयीं।
अब सोचता हूँ मैं। कैसा बीता उसका जीवन। एक शांत हरे क़स्बे मे बीता बचपन। सोलह सत्रह की उम्र में शादी। तेज तर्रार सास और भोलेनाथ की तरह अचानक खुश या नाराज हो जाने वाला पति।तीन तरह के तीन बच्चे।सरकारी नौकरी। सीमित आय। बिल्कुल एक रस जीवन। उनकी तीन चौथाई ज़िंदगी अपनी जडों से दूर बीती। ऐसी ज़िंदगी जिसमें कोई उतार चढ़ाव नही।चुपचाप आई वो और चुपचाप चली गई। काश कभी वो भी बोलती। गलत बात का प्रतिकार करती। होती नाराज। मनवाती अपनी बात और उसकी ख़ुशी महसूस करती।पर ऐसा किया नही उसने और जो जैसा था उसमें राजी बनी रही।और हम सभी ने उसके रहते इस बाबत कभी सोचा ही नही। मुझे हमेशा लगता है ,जो मिला उसे वो इससे ज्यादा की हक़दार थी।
काश ऐसा हो,मेरी अन्तर्मुखी माँ एक बार फिर लौट आये। एक भरपूर जीवन जिये और इस बार वो सब कर पाये जो वो मेरी माँ होकर नही कर सकी थी। बहुत मन है मेरा। कभी कहीं अचानक कोई छोटी बच्ची मेरा हाथ पकड़ कर रोक ले मुझे और कहे कि पहचाना या नहीं ? मैं तुम्हारी माँ हूँ।
मुकेश नेमा,इंदौर
{लेखक -मध्यप्रदेश शासन में वरिष्ठ अधिकारी हैं,और देश के सुप्रसिद्ध व्यंगकार}
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