मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 47 th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है, ब्रिटेन में रह रहीं प्रतिष्ठित प्रवासी भारतीय साहित्यकार,वातायन-यूके की संस्थापक, रौयल सोसाइटी ऑफ़ आर्ट्स की फ़ेलो, ब्रिटिश-लाइब्रेरी और टेट मॉडर्न की फ़्रेंड पद्मभूषण मोटुरी सत्यनारायण लेखन सम्मान सम्मानित ,नेहरु केंद्र-लन्दन में वरिष्ठ अधिकारी, विश्व हिंदी सम्मेलन-2000 की सांस्कृतिक उपाध्यक्ष, यूके हिन्दी समिति की उपाध्यक्ष और कथा-यूके की अध्यक्ष रह चुकी दिव्या माथुर को.वे अपने पिता श्री आनंद प्रकाश श्रीवास्तव के साथ साथ अपने बचपन की स्मृतियों के पन्ने पलटते हुए याद कर रही हैं -अपने दादा ,अपनी माँ और अपने पिता के घर के साहित्यिक सांस्कृतिक परिवेश के साथ उस काल खंड को जब उनमे सांस्कृतिक और साहित्यिक अभिरुचियों के संस्कार पल्लवित होना शुरू हुए थे .इन स्मृतियों के ताने बाने बुनते हुए अपने पिता को भावांजलि दे रही हैं- दिव्या माथुर .
तुम्हारी छाया तले
हम अँकुराए, अखुआए
तुमने निराई हमारी खरपतवारें
ताकि हम पौधों की तरह समूचे लहलहा सके
हमारे वास्ते
तुम इन्द्र बनकर लाए मेघों का अमृत
हमारी जड़ों को अपनी धूप से सहलाकर
अपने मचानों पर तुम जागते रहे रात रात भर
तुम्हारी बदौलत
हम पेड़ बने छायादार
हमारी डालों पर फूल खिले फल आये
बचपन में हम सोचते थे
काश कोई सीढ़ी होती
जिस पर चढ़ते चढ़ते हम छू आते आसमान
अब बहुत उड़कर जाना
कि हम कितना भी उड़े
तुम्हारी ऊॅचाई तक नहीं पहुचा जा सकता कभी- गोविन्द कुमार ‘गुंजन’
47.In Memory of My Father-shri Anand Prakash Srivastava: मेरे पापा एक जाने माने सूफ़ी थे
दिव्या माथुर
हमारे पिता, जिन्हें हम पापा कह कर पुकारते थे, स्वर्गीय आनंद प्रकाश श्रीवास्तव, राष्ट्रपति भवन में मुख्य वास्तुकार थे। उनके पिता, मुंशी बिशन दयाल, मशहूर मुग़ल आर्टिस्ट, ख़ुश नवीस और शायर थे। उनके कुछ गुण पापा में भी आए, खुशनवीस तो थे ही, साथ ही साथ वह एक जाने माने नक्शानवीस भी बने। 10 भाई बहनों में वह सबसे बड़े थे; सभी उनकी बड़ी इज़्ज़त करते थे। दादी बताया करती थीं कि अपनी किशोरावस्था में वह किसी अघोरी के चक्कर में आ गए थे और तांत्रिक बन गए; मैंने बहुत से किस्से सुने हैं कि कैसे अघोरी उन्हें छोड़ने को तैयार नहीं थे, ताले लगे कमरे से भी निकाल ले जाते थे। एक बार, उनके प्रतिरोध करने पर, किसी अदृश्य शक्ति ने उनके गाल पर ऐसा तमाचा जड़ा कि उनका चेहरा टेढ़ा हो गया, जो पूरी तरह से कभी ठीक न हो पाया। खैर, बड़ी कठिनाइयों का सामना करते हुए वह गृहस्थ जीवन की ओर लौटे और फिर उनका वैवाहिक जीवन सुखद रहा।
सरकारी नौकरी के बावजूद, उन्होंने जीवन भर पैंट-कमीज नहीं पहने, खादी के बने सफेद कुर्ते-पायजामे में दफ़्तर जाते थे, सर्दियों में कुर्ते के नीचे वह स्वेटर पहन लेते। बेहद सादा जीवन पर खान पान में अव्वल, हमारे दादा और पड़दादा की भांति, पापा को भी पार्टीज़ का बहुत शौक था, कुछ और करने को न हो तो वह अपना जन्मदिन ही साल में दो तीन बार मना लेते थे। अपने गुरु, महाराज बृज मोहन लाल जी की तरह ही, पापा भी एक जाने माने सूफ़ी थे। हर सप्ताहांत पर हमारे यहाँ नियमित सत्संग होता था, जिसमें दुनिया भर के लोग हमारे घर में इकट्ठे होते, नामी गुरु और विद्वान अपने शागिर्दों के साथ हमारे घर में नियमित रूप से ठहरते, हमारा चौका चौबीसों घंटे आबाद रहता। संतसंग के बाद प्रसाद में छोले पूरी औरहलवे के भोग लगता था; यह प्रसाद सैकड़ों में बँटता किंतु मजाल है कि कभी कोई भूखा उठा हो।
व्यवहारिक भूतल पर मुझे लगता है हमारी मम्मी उनसे कहीं अधिक सूफ़ी थीं। पिता के अपने शिष्य, उनके गुरु, और गुरु जी के अपने शिष्य दिन रात नहीं देखते थे, बोरिया बिस्तर बांधे वे आधी आधी रात को चले आते थे, अंगीठी सुलगा कर मम्मी उनके लिए ताज़ा भोजन पकातीं। पिता के प्रति उनका अगाध प्रेम था और शायद भक्ति भी, उन्होंने कभी पलट कर प्रश्न नहीं किया। चकर घिन्नी सी नाचती वह फिर भी अपने सात बच्चों से कभी सहायता न लेकर हमसे सिर्फ पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा करतीं थीं। वह अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं, शायद इसलिए चाहती थीं कि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण करें।
कुछ शिष्यों की पत्नियों की अकाल मृत्यु हो जाने पर पिता उनके बच्चों को भी मम्मी की रखवाली में छोड़ दिया करते थे, जिन्हें वह अपना समझ कर पालती थीं। ऐसे बहुत से बच्चों ने पापा-मम्मी को जीवनपर्यंत पिता और माँ का दर्जा दिया और हमें अपने भाई बहन का। हमारे घर में, जो तुलसी और गुलाब के पौधों से लदा-फदा रहता था, हर समय एक मजमा लगा रहता था; हमारे पड़ोसी मज़ाक में कहा करते थे कि आपके घर पर तो सदा उत्सव-महोत्सव की रौनक रहती है, युवा हो जाने पर यदि आप अपने बच्चों (पाँच बेटियाँ और दो बेटे) के रिश्ते बैंड-बाजे, हलवाई, फ़ोटोग्राफर्स, टैंट वालों के यहाँ कर दें तो बहुत पैसे बच जाएंगे! यही पड़ोसी नियमित रूप से अपने बच्चों को शाम के 4 से पाँच बजे के बीच हमारे घर भेजा करते थे।
पापा के नियम के अनुसार, हर दिन सात भजनों के अलावा, हनुमान चालीसा, श्री राम स्तुति, दो आरतियाँ और दादा के लिखे हुए भजन नियमित रूप से गाए जाते थे, जिसमें हमारे दादा द्वारा रचित जय जय पिता परम आनंद दाता, जगत आदि कारण हों मुक्ति प्रदाता। अनंत और अनादि विशेषण है तेरे, तू धरती का भर्ता, तू कर्ता सँघरता; और दूसरा एक काया का पिंजरा डोले रे, एक सांस का पंछी बोले। तन नगरी है मन मंदिर, परमात्मा जिसके अंदर, दो नैन है पाक़ समंदर, जो नेकी बड़ी को तोले रे, एक साँस का पंछी बोले, शामिल रहते। हमारी कुछ पड़ोसने भी अच्छे भजन गाती थीं और यदि कहीं हमारी कोई बुआ या चाचा घर में होते तो महफ़िल देर तक जमती, क्योंकि गाने बजाने में सब एक से बढ़ कर एक थे।
पिता के पास एक पुराना रिकॉर्ड -प्लेयर था और थोड़े से रिकॉर्डस, जिन्हें वह सुबह पाँच बजे नियमित रूप से सुना करते थे, यह हम बच्चों को जागने का संदेश होता था। हर दिन वही रिकॉर्डस, पंडित जसराज, भीम सेन जोशी, कुमार गंधर्व, सुब्बुलक्ष्मी, बेग़म अख़्तर, किशोरी अमोनकर इत्यादि। जब घर में रेडियो आया तो पिता अधिकतर तपसिरे सुना करते जो हम बच्चों के लिए बहुत बोरिंग हुआ करते। जब वह दफ़्तर जाते तो हम चुपके चुपके सुगम संगीत सुनते, सहगल, पंकज मालिक, जुथिका राय, आदि, उन दिनों फ़िल्में देखने और फ़िल्मी गाने सुनने का रिवाज़ नहीं था पर हम उनसे कैसे और कब तक अछूते रहते? जल्दी ही मुहम्मद रफ़ी, तलत महमूद, लता और आशा मंगेशकर, सुधा मल्होत्रा और कई ग़ज़ल
गायकों से परिचय हुआ। बाद में जाना कि पिता को मन्ना डे, रफ़ी और लता मंगेशकर के भजन बहुत प्रिय थे। सत्संग में वह हमसे ‘भगत के बस में हैं भगवान’, ‘जय जय पिता परम आनंद दाता’, ‘पग घुँघरू बांध मीरा नाची रे’, ‘माटी कहे कुम्हार से’, आदि सुनाने काआग्रह किया करते थे। उन्हें गर्व था कि उनके बच्चों को संगीत से लगाव था, सभी को हार्मोनियम, तबला ढोलक इत्यादि बजाने आते थे और सबसे बड़ी बात, हम सब सुंदर कांड और अखंड रामायण का पाठ सस्वर किया करते थे। ह
मारे दादा की तरह ही पापा भी पाक-कला में निपुण थे; लज़ीज़ खाना पकाते थे, विशेषतःशाम के भोजन की मुख्य डिश वही बनाया करते थे, हाँ, उन्हें प्याज़ लहसन सब कटा मिलना चाहिए था, भीगी हुई केसर, ताज़ा कुटे गरम मसाले, बारीक कटा धनिया। हम बहनों का काम था घर को सजा-सँवार कर रखना, शाम को खाने की मेज़ सजाना और सलाद काटना।भाइयों पर कभी पापा को ग़ुस्सा आ जाता तो वह कहते थे, इन दो नालायकों की जगह भी मेरी दो बेटियाँ और हो जातीं तो कितना अच्छा होता। दादा भी अपनी बेटियों सेज़्यादा प्यार करते थे, यहाँ तक कि पिता और तीनों चाचा उपेक्षित महसूस किया करते थे। स्कूल के दौरान, तुलसीदास, सूरदास, कबीर और मीरा के अलावा कुछ आधुनिक कवियों,महादेवी वर्मा, मैथिली शरण गुप्त और निराला आदि को भी पढ़ा पर मेरी रूचि भजनों में अधिक थी, शायद इसलिए कि बचपन से ही हमारे घर में भजन-कीर्तन का माहौल रहा था।
शिक्षा को लेकर पिता ने कभी व्यवधान नहीं डाला, उन्हें समय ही नहीं था। जब मुझे एम्स-दिल्ली के नेत्र विज्ञान केंद्र में नौकरी मिली, दफ़्तर जाने वाली मैं अपने ख़ानदान की पहली लड़की थी। लोगों ने हो-हल्ला मचाया कि लड़की होकर अब यह दफ़्तर जाएगी, किंतु पिता ने एक शब्द नहीं कहा। उन्हें तसल्ली थी कि मैं एक नामी अस्पताल में काम कर रही हूँ, किसी आम दफ़्तर में नहीं। मेरा वैवाहिक जीवन बहुत ही कँटीला रहा और पंद्रह लंबे वर्षों के बाद जब मैंने ससुराल त्यागने का फ़ैसला किया तो पापा-मम्मी और भाई-भाभी ने मुझे और बच्चों को बहुत प्यार और सम्मान से घर पर रखा। वे कर्मयोगी थे, दिखावे में विश्वास नहीं करते थे। दान-दहेज के बेहद खिलाफ़ थे, विदाई के समय जब दादी और बुआएं रो-धो रही थीं तो बड़ी सफ़ाई से उन्होंने बेटी-दामाद को कार में ढकेल दिया था। वैसे ही, किसी की मृत्यु पर भी वह रोने धोने के खिलाफ़ थे, कहते कि शोक मनाने की बजाय मृतक की अच्छी अच्छी बातें याद करो, प्रार्थना करो कि जहां भी हो शांति में हो, प्रसन्न हो। यही वजह है कि मृत्यु के 35 वर्षों के बाद आज भी लोग उन्हें बड़े प्यार और सम्मान से याद करते हैं।
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पापा और गुरु महाराज के बहुत से संस्मरण हैं, जो हमारे और उनके शिष्यों द्वारा दोहराए जाते हैं और रहेंगे। पिता की शांतिपूर्ण और अद्भुत मृत्यु के बाद एक बार जब मैं दिल्ली में थी, ग्रीन-पार्क में स्थित पिता के एक भक्त परिवार में आयोजित एक ऐसे ही सत्संग में मुझे सम्मिलित होने का मौक़ा मिला; मिया-बीवी दोनों डॉक्टर हैं, जो हमें अपने परिवार का सदस्य मानते हैं। दोपहर को परदे बंद कर हम उनकी बैठक में ध्यान में लीन थे; क़रीब पंद्रह लोग थे। कुछ ही देर में लगा कि जैसे एक अदृश्य शक्ति मेरा सिर ऊपर की ओर खीँच रही थी। मैंने अपनी टांगे कुर्सी की टांगों में लपेट लीं, दबाव बढ़ता जा रहा था; लगा कि मेरा सिर गर्दन से उखड़ने वाला है। मैंने घबरा कर आँखें खोल लीं, कमरे में सब ध्यान में लीन थे। मैंने फिर आँखें बंद कीं और कुछ ही देर में फिर वही अजीब दबाव। मैं बौखलाई हुई बालकनी में आ खड़ी हुई; कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे चाचा ने बाहर आकर पूछा कि क्या हुआ। मैंने उन्हें अपने अनुभव के विषय में बताया तो उन्होंने कहा कि मुझे उस अदृश्य शक्ति से लड़ना नहीं चाहिए था।
मैंने इस विषय पर बहुत सी पुस्तकें पढ़ीं, लोगों के अनुभव सुने तो बरबस पापा और उनके गुरु की बातें समरण हो आयीं। अपनी लंबी बीमारी के दौरान मुझे लगा कि पापा-मम्मी और गुरु महाराज सदा मेरे साथ रहे। अस्पताल में मैंने पंडित जसराज, भीम सेन जोशी और कुमार गंधर्व के भजनों को फिर से सुनना शुरू किया, मुझे बहुत सुक़ून मिला। मैंने पापा के गुरु महाराज से एक बार सुना था कि मृत्यु का प्रसन्नता से वरण करना चाहिए; मृत्यु के समय जो इससे लड़ेगा, उसकी मृत्यु उतनी ही दुखदायी होगी, उसके अपने लिये और उसके प्रियजनों के लिये भी। इसीलिये जब-जब मेरी मृत्यु से भेंट हुई, मेरी सहज स्वीकृति और सादगी पर प्रसन्न होकर शायद वह मुझे छोड़ गई। अपनी लंबी बीमारी के दौरान मुझे लगा कि पिता माँ और गुरु सदा मेरे साथ रहे। अपने लंदन प्रस्थान के पूर्व, बेटी जब अपने नाना-नानी से मिलने गई तो 75 वर्ष की उम्र में भी नाना गली के बच्चों के साथ क्रिकेट खेल रहे थे।
उनकी मृत्यु इतनी अचानक हुई कि किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। अपने दो परम प्रिय शिष्यों के साथ वह अजमेर की यात्रा पर गए थे। लौटते वक्त जयपुर में वह अपनी बड़ी बेटी के घर पर रुके; दामाद से भी उनकी घनिष्ठता थी। दोपहर के भोजन के बाद उन्होंने कुल्ला किया और फिर ‘श्री राम जय राम, जय जय राम’ कहते हुए वह सोफ़े पर आराम फ़रमाने बैठे तो बैठे ही रह गए, हाथ में राम नामी थामे और चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कुराहट लिए।
बहन को शक हुआ तो वह पड़ोस में डॉक्टर को बुलाने दौड़ी। डाक्टर ने कहा इनकी तो मृत्यु हो चुकी है। उनकी शव यात्रा में सैकड़ों शामिल थे, जान पहचान वाले और शोकाकुल अजनबी, जिसने सुना, दौड़ा चला आया, पंडित-पादरी, डाकिए, नगर के सफ़ाई कर्मचारी, जिन्हें वह दैनिन्दिन चाय नाश्ते के लिए जबरन रोक लिया करते थे।
पापा-मम्मी का प्रभाव हम सभी भाई बहनों पर बहुत गहरा है और परिस्थियों के बदल जाने के बावजूद हम आज भी संयुक्त परिवार में विश्वास रखते हैं। मेरा लेखन भी जाने अनजाने में सदा बचपन के दिनों के इर्द गिर्द घूमता है; चालीस वर्ष ब्रिटेन में रहने के बाद, कई मायनों में पश्चिमी संस्कृति व तौर-तरीकों से प्रभावित हो जाने के बावजूद (कभी कभी चाहे आलोचनात्मक हो उठूँ), मैं भारतीय संस्कृति और तौर तरीकों को, सकारात्मक रूप में ही दिखाने का प्रयत्न करती हूँ। सामूहिकता और सामाजिकता पर बल देती हूँ, बिल्कुल अपने पापा-मम्मी की तरह। कहते हैं न कि हर सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती हैं, मम्मी के बिना पापा पापा न हो पाते। मम्मी ने अपना जीवन पति और बच्चों के लिए होम कर दिया ताकि वह अपना जीवन समाज को अर्पित कर सकें।
दिव्या माथुर