48.In Memory of My Father-Shri Jugal Kishore Dubey : मेरे पिता को झूठ पसंद नहीं था- प्रवीण दुबे

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मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता-

पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 48th किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है प्रवीण दुबे को. पत्रकारिता के क्षेत्र में एक लब्ध प्रतिष्ठित और अनुभवी नाम , जिन्होंने पिछले तीन दशकों में विभिन्न मीडिया संस्थानों के साथ कार्य अनुभव लेकर अपनी अद्वितीय पहचान बनाई है। पत्रकारिता की सभी प्रमुख विधाओं—प्रिंट, मैगज़ीन, डिजिटल, और इलेक्ट्रॉनिक में उनकी गहरी पकड़ और कार्यकुशलता ने उन्हें इस क्षेत्र में एक विशेषज्ञ के रूप में स्थापित किया है। अपने करियर के दौरान, उन्होंने दैनिक भास्कर, अमर उजाला, आउटलुक, न्यूज़ 24, ज़ी न्यूज़, और नेटवर्क 18 जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों में संपादकीय पदों पर कार्य किया है। इन संस्थानों में उनकी भूमिका न केवल खबरों की प्रस्तुति और गुणवत्ता को सुनिश्चित करने तक सीमित रही, बल्कि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता और प्रबंधन कौशल से संपादकीय टीमों को भी सशक्त बनाया। वर्तमान में  मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के प्रमुख टीवी चैनलों में शुमार बीएसटीवी के एडिटर इन चीफ का दायित्व सम्भाल रहे हैं।

किसी के भी बचपन में ही पिता का जाना अत्यंत पीड़ादायक होता है। एक नन्हें से परिंदे से उसका आकाश छीन जाने जैसा। प्रवीण भी अपने पिता को बालपन में ही खो चुके थे।  अपने बालपन को याद करते हुए वे बाबूजी को अपनी सादर भावांजलि अर्पित कर रहे हैं…..

पिता अप्रदर्शित अनंत प्यार है।  

पिता है तो बच्चों को इन्तजार है।  

पिता से ही बच्चों के ढेर सारे सपने हैं।  

पिता है तो बाजार के सब खिलौने अपने हैं।  

पिता से ही परिवार में प्रतिपल राग है।  

पिता पालन है, पोषण है, परिवार का अनुशासन है।  

पिता धौंस से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है। -ओम व्यास

48.In Memory of My Father-Shri Jugal Kishore Dubey : मेरे पिता को झूठ पसंद नहीं था-प्रवीण दुबे

उज्जैन के मरहूम कवि ओम व्यास साहब ने पिता पर जो कविता लिखी थी उसकी कुछ लाइनें मैं यथावत अपने बाबूजी पर भी मौंजू पाता हूँ…पिता छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है…पिता है तो ढेर सारे सपने हैं, पिता है तो बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं…पिता धौंस से चलने वाला प्रेम का प्रशासन है. वगैरह वगैरह…

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यूँ तो बाबूजी हमें छोड़कर बहुत जल्दी चले गए. मैं 10th में था तब  हार्ट अटैक से उनकी  मृत्यु हो गई. मैंने पहली बार कोई मौत और पहली बार श्मशान घाट तभी देखा जब बाबूजी गए. बाबूजी आज के दौर के “पापा” या “डैड” नहीं थे. उन्हें प्रेम का बोध कराने की अभिव्यक्ति भी नहीं आती थी लेकिन फिर भी हम महसूस कर लेते थे.चूँकि उस दौर के पिता थे, जब कड़क होना पिता का पर्याय माना जाता है तो मैंने मार भी उनसे बहुत खाई.मगर प्यार भी उससे कहीं अधिक मिला.

मुझे याद है बाबूजी बहुत “पर्टिकुलर” थे अपनी बहुत सी चीजों को लेकर. तेल वो कैन्थ्राईडिन ही लगाते थे.साबुन हमेशा पीयर्स ही लगाते थे. कभी अपना ब्रांड उन्होंने नहीं बदला. हम लोग जो थोड़ी बहुत लिखना पढ़ना सीख पाए, किताबी पढ़ाई के अलावा तो उसके मूल में बाबूजी ही थे. बचपन में हमारे घर बहुत सारी पत्र पत्रिकाएं आती थीं. धर्मयुग, इलस्ट्रेड वीकली, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, माया, सरिता, मुक्ता, हंस, रीडर्स डायजेस्ट, स्पुतनिक और कभी कभी तो मैंने डेबोनियर भी रखी देखी उनके पास. हम लोगों के लिए हालांकि पंकज, नंदन, लोटपोट, चंदामामा ,अमर चित्र कथाएं जैसे बाल साहित्य आते थे लेकिन मैं बाबूजी के पढने के बाद उनकी पत्रिकाओं को भी पलटा लेता था. धर्मयुग का कार्टून  कोना जो डब्बू जी के नाम से आता था उस वक्त वो भी मैं पढ़ता था .साप्ताहिक हिंदुस्तान के पिछले पृष्ठ की कार्टून कथा को भी मैं पढता था.

एक बड़ा दिलचस्प वाकया मुझे याद आता है. बाबूजी के पढने के बाद उनकी किताबों को आम तौर पर मैं पलटा लेता था. उस क्रम में मेरे हाथ में दो किताबें लग गईं. एक थी डेबोनियर और दूसरी थी मंटों की बदनाम कहानियां. मैंने जैसे ही इन किताबों को हाथ में लिया और पलटा ही रहा था कि अचानक बाबूजी आ गए, उन्होंने तत्काल झपटते हुए मेरे हाथ से वो दोनों किताबें छीनी और डांटते हुए बोले कि “अभी तुम्हारी उम्र ये सब पढने की नहीं है रखो इसे”  मैं डर गया, मगर बाल मन ने ज़िद पकड़ ली कि ऐसा क्या है जो मुझे रोका जा रहा है. बाबूजी की ऐसी किताबें जो बच्चों से दूर रखी जाने वाली होती हैं,वो उनके तकिए के नीचे होती थीं. उस दिन मेरी छुट्टी थी मैंने डेबोनियर और मंटो की बदनाम कहानियां दोनों उनके ऑफिस जाते ही पढ़ लीं. यानी मैं 8 th क्लास में शहादत हसन मंटो को पढ़ चुका था (भले समझ में कुछ ना आया हो) ये कह सकता हूँ.

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बाबूजी स्कूली पढ़ाई के साथ साथ बेहतर इंसान बनने की तालीम बहुत अच्छे से देते थे. सारा जीवन ईमानदार रहे. उन दिनों सरकारी नौकरी लगवाना बहुत आसान बात थी. बाबूजी सक्षम थे लेकिन कभी भी किसी रिश्तेदार को उन्होंने नौकरी लगने जैसी सिफ़ारिश नहीं की. वो रास्ता बता देते थे कि ऐसे  इंटरव्यू होगा, ऐसे परीक्षा होगी, निकाल सकते हो तो निकाल लो. ये स्वभाव मेरे अंदर भी संभवतः उसी परवरिश के कारण आया होगा. मैं भी अब कई बार सिफ़ारिश करने में सक्षम हूँ लेकिन नहीं करता और रिश्तेदारों के बीच मेरी छवि ऐसी है कि उन्हें लगता है कि मैं जानबूझकर उनकी मदद नहीं करना चाहता. बाबूजी की तरह मैं भी मानता हूँ कि काबिलियत  ही आपकी पहली और आखरी सिफारिश होनी चाहिए.

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बाबूजी संवेदी बहुत थे. झूठ से सख्त नफ़रत करते थे. वो हमेशा कहते थे कि कितना भी बड़ा गुनाह हो जाए मुझे सारी बातें बिलकुल सच सच बताना. इससे जुड़ा एक प्रसंग मेरे मानस में पैबस्त है. मैं 9 th में था, तब स्कूलों में तिमाही परीक्षाएं होती थीं जिनका मूल रिजल्ट से कोई लेना-देना नहीं होता था. गणित विषय में मेरी क्लास के सारे लड़के फेल हुए सिर्फ एक लड़के को छोड़कर. तब परीक्षा की कॉपी में घर से पिताजी के दस्तख़त करवा कर जमा करना होता था और इसे ही आज के दौर का PTM समझ लिया जाता था. मैं डर गया गणित में 50 में से सिर्फ 7 नम्बर वाली कॉपी में कैसे बाबूजी के दस्तखत लूँगा. मेरा एक दोस्त था उसने मुझे सलाह दी कि बाबूजी सिर्फ बाहर बाहर देखेंगे सरसरी तौर पर. अंदर बारीकी से देखने से रहे, परीक्षा कॉपी के आवरण पृष्ठ पर नम्बर लाल पेन से बढ़ा लेते हैं और दस्तखत करा लेते हैं.

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ऐसा उसने अपने पिताजी के साथ भी करने का प्लान किया. मैंने आंशिक ना-नुकर के बाद सहमति दे दी.हम आम राय होकर इस अपराध के भागीदार बन गए. मैंने 7 को 27 किया और बाबूजी से कहा दस्तखत कर दीजिए.बाबूजी ने देखा ..चश्मे के अंदर उनकी भौहें थोड़ी सिकुड़ी. गुरू गंभीर वाणी में बोले..” ये तो बहुत कम नंबर हैं..तकरीबन 50 फीसदी.. तुम गणित में ज्यादा ध्यान दिया करो.” मैंने सिर हिलाया क्यूंकि मैं डर भी रहा था कि वे अंदर के पृष्ठ खोलकर सारे सवाल न देख लें. हालाँकि उन्होंने नहीं देखा और दस्तख़त करके मुझे कॉपी दे दी. मैंने फिर उस कॉपी में व्हाईटनर लगाया और 27 को फिर से 7 किया और टीचर के पास जमा कर दी. एक दिन बाबूजी ठण्ड के दिनों में ओवर कोट पहनकर किसी होटल में बैठे थे कि गणित के टीचर आ गए. बाबूजी से बोले, “दादा,मुन्ना गणित में थोड़ा कमज़ोर है उस पर ध्यान देना पड़ेगा.” बाबूजी बोले कि “हाँ मैं सहमत हूँ..50 प्रतिशत अंक कोई मायने नहीं रखता” अब चौंकने की बारी थी उस गणित के टीचर की. उसने कहा पचास प्रतिशत तो किसी के नहीं आए. मात्र एक लड़का पास हुआ है और उसके भी 17 नम्बर ही आए हैं. बाबूजी वहां से उठे सीधे घर आए. शाम को मैं कहीं से खेलकर लौटा था. हाफ पेंट पहना हुआ था. काम वाली बाई झाड़ू लगा रही थी .उन्होंने वो झाड़ू उसके हाथ से छीनी और ताबड़तोड़ झाड़ू के मजबूत वाले हिस्से से मुझे पीटा. अम्मा जो हमेशा मेरे लिए कवच की तरह रहती थीं, भागकर आईं ये कहते हुए कि क्या कर रहे हो,मर जाएगा लड़का.मेरी जांघ और पीठ में गहरे लाल निशान तब तक आ चुके थे. हाँफते हुए बाबूजी ने कहा कि मुझे अफ़सोस है कि ये झूठ बोलने लगा. षड्यंत्र करने लगा. कितने ग़लत राह पर ये निकल चुका है.उस रात बाबूजी रात भर नहीं सोए. ज़ाहिर है कि उन्हें मुझे पीटने की ग्लानि भी रही होगी और मेरी हरकत का दुःख भी. सुबह उन्होंने अपने पश्चाताप का प्रदर्शन ऐसे किया कि स्कूल जाते वक्त मेरे लिए ब्रेड की सैंडविच ख़ुद बनाई.बोले कुछ नहीं.. मैं फूट फूटकर रोया और सिर्फ एक शब्द बोला कि आज के बाद आपको कभी दुःख पहुंचाने की वज़ह नहीं बनूंगा. उसके बाद से लेकर आज तक मैंने कोई कूट रचित काम न ख़ुद किया और ना ही कभी उसका सहभागी बना.

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बाबूजी चाहते थे कि मैं कुछ बड़ा अधिकारी बनूँ. मेरे सवालों से प्रभावित होते थे,उन्हें लगता था कि मैं दिमागदार हूँ और यदि सही जगह अपनी ऊर्जा को लागा पाया तो कुछ बड़ा करूँगा. अफ़सोस कि मैं उनकी उमीदों पर वैसा खरा नहीं उतर पाया.वज़ह थी उनका जल्दी चले जाना.उनके जाने के बाद पढ़ाई समस्याओं में घिरी हुई ही रही.एकमात्र कमाने वाले व्यक्ति जा चुके थे. आर्थिक स्थिति डांवांडोल हो गई. जैसे तैसे मैंने कॉलेज किया. पत्रकारिता की पढ़ाई की. मगर हमेशा उनकी ईमानदार रहने, सच के लिए लड़ने की नसीहत को अपने साथ रखा.वे हमेशा कहते थे कि यदि आप सच्चे हो तो आपके अंदर इतनी शक्ति होती है कि आप इंदिरा गांधी से भी नज़र मिलाकर बात कर सकते हो. इंदिरा गांधी तब प्रधानमंत्री हुआ करती थीं. सच्चाई थोड़ी परेशान करेगी लेकिन आपके मनोबल को हमेशा ऊँचा रखेगी ये सलाह वो हमेशा देते थे. मैंने आज तक उनकी इस समझाइश को छोड़ा नहीं है.

बाबूजी को अच्छा पढ़ना, बड़े बड़े कवि सम्मेलनों में जाना,लेखकों से मिलना बहुत पसंद था.मुझे अब अफ़सोस होता है कि यदि बाबूजी जल्दी नहीं जाते तो उनका ये शौक मैं अब बहुत अच्छे से पूरा करवा सकता था.बाबूजी को घूमने का भी बहुत शौक था. नई नई जगह जाना, नए लोगों से मिलना, जिसे आजकल की भाषा में एक्सप्लोर करना कहते हैं.वो डायरी भी लिखते थे और बहुत सुन्दर राइटिंग में इंग्लिश में लिखते थे.तब डायरियां उतनी होती नहीं थीं तो प्लेन पेपर में लिखते थे. अभी कुछ साल पहले मुझे बाबूजी के वो डायरी लिखे हुए पेज मिले जो उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में इंग्लिश में लिखे थे. उसमें जिक्र है ये कि अपने कुछ दोस्तों के साथ बनारस घूमने गए.शौक की इंतिहा देखिये कि कोई कार मंडला से बनारस तक किराए में लेकर गए थे.तब कार के पहियों में स्पोक्स होते थे. बनारस की किसी धर्मशाला में ये लोग रुके. सामने की धर्मशाला में कोई सुंदर सी लड़की सामने की छत में इन्हें अक्सर दिखती जो इनमें से किसी को ज़रा भी भाव नहीं देती थी. बाबूजी के किसी दोस्त को वो लड़की भा गई.एक रात बाबूजी ने कहा कि मैं कुछ ऐसा करवा दूंगा कि वो तुम्हें भाव देने लगेगी. वो दोस्त इनकी जमकर चिरौरी करते हुए ज़रिया पूछने लगा.बाबूजी ने कहा कि वो लड़की हाथ में जो नॉवेल लिए दिखती है उसका नाम “ए पैसेज टू इंडिया” है.

      A Passage to India

इसमें एक मुस्लिम भारतीय डॉक्टर और अंग्रेजी स्कूल की टीचर के संबंधों की कहानी है. बाबूजी ने रात भर अपने उस गैर साहित्यिक अभिरुचि वाले दोस्त को कहानी रटाई और कहा अगली सुबह जब वो लड़की मंदिर जाए तो उसे रोककर बोलना आपका लिटरेचर का टेस्ट बहुत अच्छा है और”ए पैसेज टू इंडिया” के कुछ प्रसंग सुना देना.अगली सुबह हुआ भी वही…वो लड़की बाबूजी के दोस्त से सिर्फ इस वज़ह से प्रभावित हो गई कि न केवल उसने वो नॉवेल पढ़ा है बल्कि उतनी दूर से उसका आवरण देखकर पहचान भी गया.हालाँकि ये प्रेम कितना और कब तक परवान चढ़ा इसका जिक्र उनकी डायरी में नहीं मिला.

 परिवार में बाबूजी के  चार भाई बहुत अल्प आयु में ही ख़त्म हो गए थे तो उनकी मां यानी हमारी दादी ने उनसे पांच नौकरियां छुडवा दी…वो फ़ूड ऑफिसर बने, तहसीलदार बने… और भी कुछ पदों पर उनका सिलेक्शन हुआ लेकिन दादी ने ये कहकर नहीं जाने दिया कि भले चपरासी रहे लेकिन बिना ट्रांसफर वाली नौकरी ही करेगा नज़र के सामने रहना चाहिए ये तर्क था दादी का.बाबूजी रीडर थे कलेक्टर के.

बहरहाल, बाबूजी के अंदर संचय की आदत ज़रा भी नहीं थी .बहुत कम में संतुष्ट रहते थे और ज़िन्दगी से उन्हें कभी शिकायत करते भी मैंने नहीं देखा.शुक्र है कि ये सारे गुण हम लोगों के अंदर भी आ गए.दुःख सिर्फ इसी बात का है कि बाबूजी ये सब देखने के लिए रहे नहीं…

 

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प्रवीण दुबे, पत्रकार
भोपाल

 

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