In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला- मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी 5 वीं क़िस्त में वरिष्ठ पत्रकार श्री आरिफ मिर्ज़ा अपने पिता मरहूम श्री मिर्ज़ा अब्दुल समद बेग के व्यक्तित्व और संघर्ष को याद करते हुए उन्हें सादर नमन कर रहे हैं –
तुम्हारी निश्चल आँखें
तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में
प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता
ईथर की तरह होता है
ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें
नुकीले पत्थरों-सी
5.In Memory of My Father: मेरे SDM पिता ने जब जान पर खेल कर बिरला के MD को बचाया था-घनश्याम दास बिरला ने की थी मुलाकात!
आरिफ मिर्ज़ा
मेरे वालिद मरहूम का नाम था मिर्ज़ा अब्दुल समद बेग। आज़ादी से पहले संभवतः 1943 में इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में एमए की क्लास में वे सजीले जवान हुआ करते थे । निहायत गौरे खूबसूरत। चेहरा इतना रौबदार की हर कोई उनसे बेतकल्लुफ नहीं हो सकता था। पिता ने स्कूल में उर्दू, फारसी के साथ ही अंग्रेज़ी भी पढ़ी। इंदौर से उन्होंने एलएलबी इस लिहाज से किया था कि वकालत कर लेंगे। उन्होंने वकालत की सनद हासिल कर किसी वकील के यहां प्रेक्टिस भी शुरु की थी। लेकिन उनके वालिद यानी हमारे दादा मिर्ज़ा उमराव बेग जो उस वक्त होलकर स्टेट में महाराजा के मानकरी के ओहदे पर थे, उनका खयाल था कि वकालत के पेशे में झूठ का सहारा लेना होता है। वकील की कमाई में बरकत नहीं होती। लिहाजा तुम सरकारी मुलाज़मत करो तो बेहतर। सन 1946 में मेरे वालिद होलकर स्टेट में फ़ूड इंस्पेक्टर हो गए।
मुल्क आज़ाद हुआ और सन 1948 में वालिद साहब की शादी सुसनेर (ज़िला आगर) के एक छोटे किसान परिवार की कन्या राबिया बेगम से कर दी गई। सन 1950 या 51 में मिर्ज़ा अब्दुल समद बेग साहब नायब तहसीलदार हो गए। नायब तहसीलदारी से शुरू हुआ सरकारी मुलाज़मत का सिलसिला डिप्टी कलेक्टरी तक पहुंचा। वे 14 वर्ष तक डिप्टी कलेक्टर रहे। 1971 में नागदा में बिड़लाजी के कारखाने ग्रेसिम मिल में हिंसक मजदूरों ने मिल और बिरला हाउस को आग लगा कर खाक कर दिया था। उस वक्त मेरे पिता नागदा के एसडीएम थे। उनके आदेश से नागदा गोली कांड हुआ। जिसमें 2 श्रमिक मारे गए थे। पत्थर बाज़ी में कई पुलिस वालों के साथ ही वालिद के सर में गहरी चोट लगी थी। उन्हें 10 टांके आये थे। जल रहे भव्य बिरला हाउस में फसे बिड़ला जी के एमडी डी. पी. मंडेलिया{दुर्गा प्रसाद मंडेलिया} को वालिद साहब ने रेस्क्यू कर निकलवाया था। दस मिनट तक मंडेलिया के मुंह से धुआं निकलता रहा था। देशभर के अखबारों में ये खबर लीड बनी थी। बीबीसी ने रेडियो से वालिद साब के नाम के साथ घायल होने की खबर दी थी।
नागदा में हालात सामान्य होने पर स्वयं घनश्यामदास बिड़ला नागदा आये थे। उन्होंने वालिद साहब स पूछा था कि आपके बच्चे क्या कर रहे हैं। जवाब मिला अभी पढ़ रहे हैं। बिड़लाजी ने कहा था आप किसी बच्चे को बिड़ला समूह में मुलाज़िम रखवा सकते हैं। लेकिन वालिद साहब ने पद का कभी लाभ नही लिया।
उस वक्त परिवार में हम 7 भाई बहन और वालदा उज्जैन के सरकारी मकान में रहते थे। तत्कालीन कलेक्टर समर सिंह के यहां से हमारे सरकारी फोन पर वालिद की खैरियत की जानकारी दी जाती। गोलीकांड की मजिस्ट्रियल जांच के बाद उज्जैन के सरकारी अफसर कहते थे के अब तो बेग साब का तबादला बस्तर होने वाला है। लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाशचंद्र सेठी ने उनका तबादला तो दूर की बात उन्हें 3 साल की बजाए 5 साल तक उज्जैन में रखा।
आपातकाल के दौरान 1975 से 78 के दरम्यान वालिद साहब दमोह में एडीएम के ओहदे पर रहे। उस वक्त
दमोह में करीब हज़ार लोगों की गिरफ़्तारी हुई थी । जो प्रदेश में सबसे ज़्यादा थी । सभी के केस वालिद साहब ने तैयार किये थे। दिल्ली में उन केसेस को लेकर डिप्टी अटॉर्नी जनरल से उनका डिस्कशन हुआ तब उसने कहा कि आपने बहुत वाटर टाइट केस बनाये हैं । इतना क़ाबिल वकील नोकरी क्यों कर रहा है । आप चाहें तो इस्तेफ़ा देकर मेरे साथ काम कर सकते हैं । मेरी फर्म में आपका स्वागत है । आप रिटायरमेंट के बाद भी आ सकते हैं।
अपने सर्विस पीरियड में वालिद साहब इंदौर, देवास, जावरा, जावद, मनासा, रतलाम, सैलाना, शिवपुरी, उज्जैन, रहली,दमोह और भोपाल में पोस्टेड रहे। वालिद साहब नफ़ीस अंदाज़ और अदबी मिजाज़ के अफसर थे । मिर्ज़ा ग़ालिब और अल्लामा इक़बाल उनके पसंदीदा शायरों में से थे ।
मुझे याद है मेरे बचपन मे हमारे यहां उर्दू रिसालों के साथ ही धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, पराग और रीडर्स डाइजेस्ट आया करती थी । उनका ज़ोर रहता कि हम सात भाई-बहन ये रिसाले पढ़ें । वो अपने दोस्तों और रिश्तेदारोंको खत लिखते। अपने गृह नगर सारंगपुर (ज़िला राजगढ़) में उनके कई कज़िन रहते थे। जिन्हें वो महीने में एक बार जरूर खत लिखते। अपने बड़े भाई मिर्ज़ा मन्नान बेग, मिर्ज़ा गुफरान बेग अपने कज़िन मरहूम अमानुल्लाह खां लोदी, विलायतुल्ला खां लोदी, हबीबुल्लाह खां लोदी के अलावा वालिद अपने छोटे भाई और हमारे चाचा मरहूम इरफान बेग और अपने भांजे इकबाल हुसैन खां लोदी (अब मरहूम) को नियमित खत लिखते। बड़े ही अदबी अंदाज़ में ये खतों किताबत होती। खत ज़्यादातर उर्दू या अंग्रेज़ी में लिखे जाते।
हमारे बड़े ताया मिर्ज़ा उस्मान बैग जो अंग्रेजों के ज़माने के थानेदार थे, से उनकी बड़ी रोचक अंदाज़ में खतो किताबत होती। वे पोस्ट मेन का बड़ा ध्यान रखते। दिवाली या ईद के मौके पर उन्हें बख्शीश दी जाती। बड़े ओहदे पर रहते हुए उन्हीं से हमने डॉउन टू अर्थ रहना और गुरूर-तकब्बुर से दूर रहना सीखा । उन्होनें न जाने कितनों की नॉकरियाँ लगवाईं और एडीएम रहते हुए न जाने कितनों के हक़ में फैसले दिए । वो शिवपुरी, उज्जैन, रहली ( सागर ) और दमोह में डिप्टी कलेक्टर रहे । ये 1965 से 78 का दौर था ।
दमोह में (जहां वो एडीएम रहे) उन्हें लंग्स कैंसर डायग्नोस हुआ । मेरे बड़े भाई मिर्ज़ा इमरान बेग उन्हें मुम्बई के टाटा मेमोरियल अस्पताल लेकर गए। इंदौर के कैंसर अस्पताल में भी उनका इलाज चला । करीब दो बरस इस बीमारी से लड़ते हुए 4 जुलाई 1979 को 57 बरस की उम्र में भोपाल में उनका इन्तेकाल हुआ । हमीदिया रोड पर जेके बिल्डिंग के पीछे जुल्फिकार साहब के प्राइवेट कब्रिस्तान में उन्हें दफनाया गया।
हम सात भाई बहनों में से मुझे सबसे ज्यादा उनकी खिदमत का मौका मिला । मुम्बई के टाटा मेमोरियल में कीमोथेरेपी के लिए मैं तीन बार उनके साथ रहा। कुछ अरसा ठीक रहे। मार्च 1979 में उनकी हालत फिर बिगड़ी तो हेल्थ डायरेक्टर डॉ. आरएन नागू ने उन्हें केंसर अस्पताल इंदौर पहुंचाया। यहां भी करीब पौने दो महीने मैं उनकी खिदमत में रहा। तब मेरे फुफ़िज़ाद भाई डॉ ज़काउल्लाह ख़िलजी (अब मरहूम) एमवाय अस्पताल मे ही पोस्टेड थे। मेरे चचा मरहूम इरफान बेग इंदौर में ही सेंट्रल एक्ससाइज एंड कस्टम्स में थे। फुफ़िज़ाद भाई अज़ीज़उल्ला खां (अब मरहूम) खिलजी और शाहेदा भाभी अक्सर अस्पताल आते। वे कई बार खाना भी साथ लाते। इंदौर के मशहूर पालमोनोलॉजिस्ट डॉ एस जेड जाफ़री के वालिद मरहूम और इनकी वालिदा मेरी फुफ़िज़ाद बहन तनवीर आपा भी कैंसर अस्पताल आते और घंटों बैठते।
पापा के इंदौर क्रिश्चियन कालेज के कई साथी भी उनसे मिलने आते। तब सख्त बीमार होने पर भी वालिद दोस्तों के साथ ठहाके लगाते। तब बड़े भाई शाहिद मिर्ज़ा (अब मरहूम) की नई दुनिया इन्दौर में नई नई नोकरी लगी थी। वो भी अक्सर देर शाम को अस्पताल आते। मर्ज बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन कैंसर अस्पताल के अधीक्षक डॉक्टर द्विवेदी ने मुझे बुलाकर कहा- बेटे अब फादर को भोपाल ले जाओ। मई 1979 के आखिर में हम उन्हें भोपाल ले आये। यहां शिवाजी नगर के सरकारी बंगले (ई- 117/17) में वालिद ने 4 जुलाई 1979 को आखरी सांस ली। तब उनके के सिरहाने मेरी नूर फूफी और फूफी की बेटी अनीसा (अब दोनों मरहूम) कुरान शरीफ पढ़ रही थी। आज मैं जो कुछ भी हूं मरहूम वालिद साब की दुआओं की वजह से हूं । हम में से कुछ उनके नाम और दाम से ऐश-ओ-आराम की ज़िंदगी बसर कर रहे हैं । अल्लाह उनकी मगफिरत करे।
मेरे वालिद नायब तहसीलदार, तहसीलदार, बीडीओ, डिप्टी कलेक्टर जैसे ओहदों पर रहे। अपनी 32 वर्ष की सरकारी नोकरी में वे अपने लिए बमुश्किल एक प्लाट भर खरीद पाए। प्लाट पर मकान बनाने का सपना पूरा होने के पहले ही वे इस दुनिया से कूच कर गए। अपने पूरे सर्विस पीरियड में उन पर कोई दाग नहीं लगा।
आरिफ मिर्ज़ा
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