52 .In Memory of My Father-shri Harilal Das: पिता की बातों में एक अटलता, विश्वास से भरी, जीवन के प्रति ललक हमेशा देखी -रीता दास राम

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मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता।इस श्रृंखला की 52 nd  किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है मुंबई की सुप्रसिद्ध  कवयित्री / लेखिका डॉ. रीता दास राम को। रीता जी ने स्त्री दर्पण  पत्रिका में हमारी अम्मा शृंखला का सम्पादन किया है ,इसके साथ ही उन्होंने पुरुष कवियों की कविता में स्त्री विषयक कविताओं पर भी एक  पुस्तक संपादित की है ,इस शृंखला में रीता बहुत ही द्वावित मन से शामिल हुई  हैं क्योंकि उनके पिताजी विगत जनवरी में ही दिवंगत हुए थे ,उनके लिए उन स्मृतियों से बाहर आना निशिचित ही कठिन रहा होगा फिर  भी उन्होंने  उन यादों को लिखा,इस संस्मरण में एक एसा राज उन्हें अपने पिता से पता लगा जिसकी उन्हें शायद कल्पना भी नहीं थी ,परिवार के लिए एक अत्यंत संवेदनशील  विषय ,रीता ने इसे यहाँ उल्लेख करते हुए अपने पापा के साथ अपने महत्वपूर्ण भावनात्मक क्षणों को सहेजा है-“पापा यहीं है मेरे आसपास”। यही उनकी अपने पिता को भावांजलि है। …..

52 .In Memory of My Father-shri Harilal Das: पिता की बातों में एक अटलता, विश्वास से भरी, जीवन के प्रति ललक हमेशा देखी -रीता दास राम

– रीता दास राम

“पापा यहीं है मेरे आसपास”

     पिता के बारे बात करना या लिखना मेरे लिए बहुत संवेदनशील मुद्दा है। सभी के लिए हो सकता है परंतु मेरे लिए इसलिए है कि बीते साल 22 जनवरी 2024 में पापा का जाना ठीक उनके जन्मदिन के 9 दिन पहले दिल खराब कर गया जबकि अपने जन्मदिन की आस लगाए वे कब से बैठे थे। पापा बूढ़े हो चुके थे पर अशक्त नहीं थे। उठने बैठने में उन्हें मुश्किल जरूर होती थी पर हमेशा मैंने उन्हें सीधे चलते देखा। अंत समय में भी वे किसी बीमारी से ग्रस्त नहीं थे। 31 जनवरी 1931 को जन्में मेरे पापा 93 वर्ष पूरा करने ही वाले थे कि चल बसे।

     उनकी बातों में एक अटलता, विश्वास से भरी  और जीवन के प्रति ललक हमेशा देखती रही। पिछले साल ही नवंबर माह 2023 को पापा ने मुझसे कहा – ‘मेरे जन्मदिन में आएगी ना… मैंने कहा – ‘पापा अभी तो आपके जन्मदिन को दो महीने बाकी हैं। पापा कहने लगे – ‘अच्छा दो महीने बचे हैं ..! ठीक है, लेकिन तू आएगी ना बेटा ?’ मैंने कहा – ‘आऊँगी ना, बताइए आपको जन्मदिन में क्या गिफ्ट चाहिए !’। पापा खुश हुए और हँसते हुए कहा – ‘मेरे लिए रिस्ट वॉच लेकर आना।’ उनका कहना ही था कि हम खुद को दो महीना रोक नहीं पाए।

     मैं, पति नरेश और बेटे सैश ने दो महीने का भी इंतजार नहीं किया, सप्ताहांत की फ्लाइट ली और नागपुर पहुँचे। बुढ़ापे में पापा बोलते-बोलते भूल जरूर जाते थे पर किसी भी बात का वे तर्क बराबर रखते। पापा से होती रही बातचीत से मुझे पापा के बारे में पता चलता रहा था, कि पापा के पूर्वज कलकत्ता के रहवासी थे। रोजगार के चलते वे सिगरेट फैक्ट्री में काम के चलते बिहार की ओर आए और मुंगेर में बस गए। मुझे लगता है उनका जीवन किसी कहानी से कम नहीं।

     पिताजी अपने बचपन की बातें बताया करते थे। बचपन में गाँधीजी ने उन्हें अपनी अपने गोद में लिया यह उनका सौभाग्य था। उनके मुहल्ले में आए गाँधीजी को देखने लोगों की भीड़ इकट्ठी हुईं और वहीं उनकी माँ की गोद से गाँधीजी ने पिताजी को गोद में लिया और आशीर्वचन कहे। पिता की शिक्षा मुंगेर में ही हुईं। कक्षा में अव्वल आने की वजह से प्रतियोगिताओं के उपहारों का फायदा उन्हें मिला करता। वे मुझसे कभी-कभी खुल कर बात किया करते। मैं कुछ उनसे जुड़ी उनकी पुरानी बातें पूछा करती थी। पापा बहुत चाव से बीती बातें सुनाया करते थे। एक बार उन्होंने बचपन की बात बताई। उनके स्कूल में घर से हैलिकॉप्टर बनाकर लाने कहा गया तो उन्होंने खुद अपने हाथों से एक कार्ड बोर्ड का हैलिकॉप्टर बनाया। जिसके चक्के भी बनाए और ऊपर पंखे भी, जो धीरे से चलाओ तो चक्कों पर चलता भी था। अपने प्रोजेक्ट को रस्सी से बाँधकर चलाते हुए वें स्कूल चले जा रहे थे। उनकी यह उत्साह भरी खुशी ज्यादा देर नहीं टिक पाई। उन्होंने बताया, एक अंग्रेज अफसर पास से गुजरा। उसने ठहर कर उनके प्रोजेक्ट को ध्यान से देखा, कुछ देर देखता रहा और फिर लात से ठोकर मार कर चला गया। गत्ते की चीज थी, सो टूट गई। पिता सहमकर एक ओर खड़े हो गए। अंग्रेज के जाने के बाद अपने टूटे हैलिकॉप्टर को समेट कर स्कूल चले गए। मैंने पूछा – “पापा आपको बुरा नहीं लगा, गुस्सा नहीं आया?” बोले – ‘बेटा यह वह समय था जब अंग्रेजों का बहुत आतंक हुआ करता था। उनके सामने कोई कुछ नहीं बोलता था। वें हमारे भारत पर राज जो कर रहे थे। मैं सुनकर सन्न रह गई थी।

     वे बताते थे अध्यापक उनसे हमेशा खुश रहते। बड़ी कक्षाओं में खुद की पढ़ाई के साथ उन्होंने बच्चों के ट्यूशन लेने शुरू कर दिए। साथ ही अपनी पढ़ाई भी किया करते। 12 वीं के बाद कॉलेज की पढ़ाई पूरी करते-करते उन्हें आस-पड़ोस के परिचितों ने रेल्वे की परीक्षा देने के लिए प्रोत्साहित किया गया। परीक्षा देकर उत्तीर्ण होने के बाद उन्हें रेलवे में टिकिट चेकर की नौकरी मिली। रेल्वे की इसी नौकरी की परीक्षा और स्थानांतरण ने उन्हें बिहार से कलकत्ता, भागलपुर, रायपुर और फिर नागपुर पहुँचाया। पिता लौटकर कभी बिहार वापस नहीं जा पाए। उसका कारण आज समझ में आता है। जब से मैंने होश संभाला पिता को कभी बिहार अपने गाँव जाते नहीं देखा। हम पूरा  परिवार हमेशा नानी के घर जाया करते थे। नौकरी और फिर शादी के बाद वे घरेलू जीवन में संघर्षशील रहे। हम चार बेटियों और एक बेटे की गृहस्थी में जुटे पिता ने जीवन की कई महत्वपूर्ण बातें अपने भीतर दबाए, छिपाए रखी लेकिन कभी किसी को कुछ बताया नहीं।

     रेलवे की नौकरी में उन्हें एक शहर से दूसरे शहर घूमना पड़ता। टिकिट चेकर से प्रमोशन के बाद वे टीटीई बन गए। रिटायरमेंट के वक्त वें ‘चीफ टिकिट इंस्पेक्टर’ (CTI) के पद से रिटायर हुए। इस नौकरी ने उनके जीवन को बेहिसाब गति दी हुईं थी। सुबह की गाड़ी से जाना तो दो दिन बाद वापस लौटना और आने के एक दिन बाद फिर ड्यूटी पर निकल जाना, यही उनका डेली रूटीन था। हम भाई-बहनों को माँ का ही संग-साथ ज्यादा मिला। पिता जब तब थकान से भरे हुए आते आराम करते और दूसरे दिन फिर चले जाते। हममें से कोई उन्हें डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं करता था। वें हमसे जितना प्यार करते उतना गुस्सा करने  वाले भी थे। मेरे मौसा जी पिता के आने पर हमारे बीच पसरी खामोशी देख कहते – ‘घर में कर्फ्यू लगा है’ और हम सभी के चेहरे मुस्कुरा उठते।

     पिताजी सिनेमा के शौकीन थे। जो कोई भी फिल्म उन्हें अच्छी लगती वें खुद पहले देखते फिर हम सभी को साथ दिखाने ले जाते। अमूमन पापा और मम्मा अकेले कई बार सिनेमा देखने जाते रहे। हम बच्चे मम्मी-पापा के ना रहते घर में धमा-चौकड़ी मचाते।

     पापा शौकिया कविता लिखा करते। उनकी ही ये रुचि मेरे भीतर विस्तार पाती रही। मेरे साहित्य प्रेम को उन्होंने मेरे बचपन में ही ताड़ लिया था। मेरी कक्षाओं की परीक्षा के बाद रिजल्ट से पहले और गर्मी की छुट्टियों के खाली समय में मैं उनके साहित्यिक उपन्यास चुरा कर पढ़ा करती थी। आचार्य चतुरसेन शास्त्री की ‘वयं रक्षाम’ और यशपाल की ‘मनुष्य के रूप’ मैंने उनसे छुपकर ही पढे थे। बाकी उपन्यासों के नाम भूल रही हूँ। दसवीं में गणित और विज्ञान में डिस्टिगशन लाने के बावजूद उन्होंने मुझे आर्ट्स लेने के लिए प्रोत्साहित किया। बीए के बाद मेरी शादी तो हो गई लेकिन मेरा साहित्यिक रुझान तब भी चालू रहा जिसने मुझे आगे चलकर पीएचडी दिलाई और आगे भी लेखन की निरंतर राहे ईजाद होती रही और होती रहेंगी जिसने मुझे संघर्ष रत जीवन में सुकून के कुछ पल मुहैया कराए। पिताजी ने मुझे लिखने के लिए निरंतर प्रोत्साहित किया। वें कहते थे – ‘जो मन करता है लिखा करो, कभी किसी से डरना नहीं’।

     नागपूर जैसे शहर में 1960 में प्रेम विवाह की सोच बड़ी बात थी जो पिता ने की। पिता ने माँ को देखा, पसंद किया, उन्हें प्रेम हो गया और उन्होंने विवाह करने की ठानी। मेरे नानाजी से माँ का हाथ माँगा। नानाजी के सहमति का इंतजार किया और 1 जनवरी 1960 को कोर्ट में जाकर रजिस्टर मैरिज की। नानाजी ‘सिंह’ हिन्दू परिवार से थे और हालात के चलते ईसाई धर्म को अपनाए अपने ‘पिता’ के अनुसार ‘मार्टिन’ सरनेम के साथ जीवन बसर कर रहे थे। मेरे पापा ‘दास’ हिन्दू दलित थे जैसा उस समय उन्होंने हमें बताया था। नानाजी की सहमति मिलना, उस पर ‘शादी’, बिना किसी रीति-रिवाज के कोर्ट में करना, उस समय के अनुसार एक बड़ा, अलहदा, निडर और अनोखा फैसला था, जो पिता ने किया। माँ ने प्यार से हुईं इस शादी में पिताजी का हमेशा साथ दिया और आजीवन उनके साथ रही।

     आज पिता नहीं है। माँ उनके बिना दुखी हैं। उनके प्यार को, अच्छाई को याद करती है। कहती है – ‘मुझे अकेले छोड़कर क्यों चले गए’। उनकी इस स्थिति को देख समझ में आता है कि पिता कितने अच्छे थे, माँ से कितना प्यार करते थे। वें अब पिता की याद करती अकेली जीवन यापन कर रही है। मुझ से हरदम कहा करती है – ‘जल्दी मिलने आ’। मेरा जाना, मिलना, उनके लिए अगली  बार फिर से मिलने आने का इंतजार शुरू कर देता है। जबकि अब हर बार पिता को याद करती है और जल्दी मृत्यु की कामना करती है, जो मुझे सुनना बिलकुल अच्छा नहीं लगता।

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  बुढ़ापे में पापा फोन पर बात कम ही किया करते थे। मम्मी उनकी न सुन पाने की तकलीफ देखकर फोन पर बात करने के लिए मना किया करती थी। मैं जब भी उनके पास नागपुर जाती मेहमानों की गहमागहमी, रिश्तेदारों की उपस्थिति उनसे अंतरंग रूप से मुखातिब होने का मौका कम ही देती थी। पिताजी से जब बात होती वे हर समय अपनी उम्र को जाँचा करते, दो साल पहले मुझसे कहा था – ‘बेटा डेढ़ साल तो मुझे कुछ नहीं होगा’। मैं चकित हो पूछती कि ‘डेढ़ ही क्यों?’ वें मुस्कुरा देते। जाने क्या मन ही मन हिसाब-किताब गुनते रहते। नवंबर 2023 में पेंशन ऑफिसर से कह आए थे – ‘दो महीना और … फिर मैं नहीं रहूँगा’ और जनवरी में ही वाकई परलोक सिधार गए।

पिताजी के देहांत के ठीक ढेड़ साल पहले मैंने फोन पर पिता से बात की थी। माँ से जबरदस्ती पिता को फोन देने कहा और पिता से मुखातिब हुईं, उन्होंने मुझे अपने पास नागपुर आने का आग्रह किया। कहा – ‘तुमसे कोई जरूरी बात करनी है’। मैंने पूछा – ‘क्या बात है पापा?’ कहने लगे – ‘हम ‘दास’ नहीं ‘मिश्रा’ हैं बेटा। मैं सुनकर चौंक गई। उधर माँ और फोन के इधर मैं दोनों अवाक रह गए। मम्मा तो लगभग लड़ पड़ी कि ‘आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया’। मेरे ‘कब क्या कैसे ये सब?’ के जवाब में पिता कहने लगे –‘तू यहाँ आएगी तो सब बताऊँगा। फोन पर इतनी बात नहीं कर सकता बेटा !’। मेरे आठ दिन का मॉरिशियस का सफर था, जाहीर है बेचैनी से बीता। मैं मॉरिशियस से लौटते ही उनसे मिलने नागपुर भागी। भूली-बिसरी कहानी नहीं बल्कि पिता के जीवन की सच्चाई पता चली।

     पिता ने जैसे अपने अंतिम समय में जीवन की बात मुझसे साझा की। उन्होंने बताया – ‘मैं बहुत छोटा था। मेरी माता का नाम रुकमणी और पिता का नाम हरिवर चंद्रमणि मिश्रा था। एक दिन माता-पिता के बीच जोरदार झगड़ा हुआ। झगड़ा अलगाव की हद तक बढ़ा। पिता घर छोड़कर जाने लगे। माँ उन्हें रोकने उनके पीछे पीछे जाने लगी। मैं बहुत छोटा था। सड़क पर बैठकर रोने लगा। माँ ने पड़ोस के एक मोची को मुझे सौंपते हुए कहा कि इसके पिता जंगल की ओर निकल गए हैं। मैं उन्हें लेकर वापस आती हूँ। तबतक आप इसका ध्यान रखिएगा। मोची के आश्वासन पर वें जंगल की ओर पिता के पीछे हो ली। पिता तीर की तरह सीधे निकल पड़े थे। रास्ते में ही उन्हें एक साँप ने काट लिया। जगह पर ही पिता की मृत्यु हो गई। माँ ने उनकी अंतेष्टि कराई। उसी मोची के पास मुझे छोड़कर कहा – ‘कुछ जरूरी काम के लिए जा रही हूँ। दो-तीन दिन के बाद लौटकर आऊँगी और बेटे को साथ  ले जाऊँगी’ और वें चली गई। मोची और उसकी पत्नी ने मेरे पिताजी को बहुत प्यार से रखा। पापा बताते हैं – ‘माँ गई तो दुबारा वापस नहीं लौटी। उनके साथ जाने क्या दुर्घटना हुईं कोई नहीं जान पाया। मोची और उसकी पत्नी ने ही मेरे पिताजी को पाला पोसा।

     इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि पिताजी एक संत रोहि दास से मिले। उन्होंने पिताजी को खुद का नाम ‘रोहि दास’ अपनाने की सलाह दी और कहा किसी से कभी इसका जिक्र नहीं करना। अपने अंतिम समय में किसी को बताना चाहो तो बता देना। पिता ने उनकी बात मानी और अपना नाम ‘हरीलाल दास’ कर लिया। पिता जी ने मुझसे कहा – ‘बेटा अब मैं शायद जाने वाला हूँ इसलिए तुमको बता रहा हूँ’। मैं अवाक थी और उनका जाना नकारती रही। इस तरह उन्होंने अपने अंतिम समय का आभास होते मुझे दो बार नागपुर बुलाया। बातचीत की, अपने मन की कही, सविस्तार अपनी बातें बताई और चले तो गए लेकिन पापा के जीवन की इस कहानी ने सभी को झकझोर कर रख दिया। मम्मा का कहना था – ‘सबसे पहले मुझे बताना चाहिए था, मुझे अबतक क्यों नहीं बताया था उन्होंने ?’ जिसका जवाब खुद पापा के पास भी नहीं था। पापा के कहे अनुसार मैंने अपने भाई-बहनों को उनके जीवन की सारी बातें बताई। सभी चकित हुए सभी का कहना था कि ‘हम सभी को क्यों नहीं बताया…! क्यों अब तक बातें मन में रखी।’ सक्ते में भरे भाई-बहनों ने कम से कम पूछकर-पूछकर पापा को पेशोपेश में नहीं डाला बल्कि उन्हें प्यार से सहेजते रहे।

     वें बिना माता-पिता, भाई-बहन, रिश्तेदार के जीवन में इतने अकेले थे, कभी पता ही नहीं चला। पिताजी ने हम बच्चों के अन्तर्जातीय विवाह कराए। कभी कोई धर्म-जाति भेद को नहीं माना। मानवता और इंसानियत की सीख दी। नैतिकता से जीना सिखाया। एक इंसान के लिए अपने आप में इतना सशक्त होना वाकई अद्भुत मिसाल है। वाकई पापा एक चट्टान की तरह थे जिनसे टकरा कर हर तकलीफें टूटती आई थी। उनके जीवन ने मुझे मजबूत होना और मजबूत रहना सिखाया। आज भी लगता है पापा यहीं हैं मेरे आसपास।

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– रीता दास राम
(कवयित्री / लेखिका)

51.In Memory of My Father-Dr. Vinayak Keshav Mahajan: “स्वयंसेवक” रहे मेरे पिता के जीवन का आदर्श वाक्य ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’