
एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति:”मेरी माँ “-
माँ एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति है जो हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ‘मेरी माँ ‘श्रृंखला के माध्यम से हम अपनी माँ के प्रति अपना सम्मान ,अपनी संवेदना प्रकट कर सकते हैं. आज इस श्रृंखला में हम एक ऐसी क्रांतिकारी सशक्त महिला की बात कर रहे हैं जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में घर की चारदीवारी से बाहर निकल कर एक विशाल जुलूस का नेतृत्व किया था । उन्ही श्रीमती कमला बाई बरोनिया के बारे में बता रहे हैं उनके यशस्वी पुत्र श्री अशोक बरोनिया .वे अपनी माँ को याद करते हुए बता रहे हैं ,कैसे मां गिरफ्तार हुईं और उन्हें 6 माह के कारावास की सजा हुई। वह भी तब जब माँ दो छोटी बच्चियों की माँ थी और पूरा परिवार आजादी के आन्दोलन भाग लेने से जेल में था। आइये पढ़ते हैं एक माँ के बारे में जो स्वतंत्रता सेनानी थी —–उन्हें हम सब का विनम्र प्रणाम !
वह युद्ध-भूमि मेरी,
वह बुद्ध-भूमि मेरी।
वह मातृभूमि मेरी,
वह जन्मभूमि मेरी।
जन्मे जहाँ थे रघुपति,
जन्मी जहाँ थी सीता,
श्रीकृष्ण ने सुनाई,
वंशी पुनीत गीता।- सोहनलाल द्विवेदी
6 .My Mother-Smt. Kamla Bai Baronia: 1942 में “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन में जुलुस का नेतृत्व करने के कारण मां गिरफ्तार हुईं थी !
अशोक बरोनिया
1942 का समय। गांधी जी के आव्हान पर पूरे देश में “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन चरम पर था। उस समय एक सुंदर युवती अपने पति के नक्शेकदम पर चलते हुए घर की चारदीवारी से बाहर निकली और एक विशाल जुलूस का नेतृत्व किया। यह वह समय था जब महिलाओं का बाहर निकलना आपत्तिजनक माना जाता था। लेकिन इस पुरातनपंथी माहौल के बाद भी वे न केवल बाहर निकलीं अपितु एक विशाल जुलूस का नेतृत्व भी किया। ये महिला और कोई नहीं मेरी माँ श्रीमती कमला बाई बरोनिया थीं।

पिताजी ने किशोरावस्था में ही 1921 में व्यक्तिगत असहयोग आंदोलन में महात्मा गांधी के आव्हान पर भाग लिया था। तब आंदोलनकारियों की छोटी-छोटी टुकड़ियां होती थीं। अपनी टुकड़ी का नेतृत्व मेरे पिताजी श्री गोविंद लाल बरोनिया किया करते थे। मेरे दादा शिक्षा अधिकारी थे तो घर का माहौल भी अपेक्षाकृत खुला-खुला था। ऐसे में पिताजी को स्वतंत्रता संग्राम में उतरने में घर के सदस्यों का ज्यादा विरोध नहीं झेलना पड़ा। लेकिन जब मां 1942 में आंदोलन में उतरीं तब वे दो छोटी बच्चियों की मां भी थीं। ऐसे में नाते-रिश्तेदारों सभी ने मां के इस कदम की भरपूर आलोचना की लेकिन मां दृढ़ निश्चयी थीं। जो ठान लिया तो ठान लिया।
जुलूस में नेतृत्व करने के कारण मां गिरफ्तार हुईं और उन्हें 6 माह के कारावास की सजा हुई। पिताजी आंदोलन में पहले ही गिरफ्तार हो चुके थे। उन्हें एक वर्ष का कारावास भुगतना था। दोनों बच्चियां बहुत छोटी थीं इसलिए उन्हें भी मां के साथ जेल में रहना पड़ा।
एक बार पिताजी ने एक किस्सा बताया था कि एक बार अंग्रेज जिला कलेक्टर जेल के दौरे पर आए। कलेक्टर साहब भले आदमी थे। पिताजी को देखकर कहा “बरोनिया जी आपका तो पूरा परिवार जेल में है तो आपको परिवार की चिंता भी नहीं रहती होगी।” खैर यह साथ अधिक दिन नहीं रहा। कुछ दिनों बाद पिताजी को जबलपुर जेल ट्रांसफर कर दिया गया और मां सागर जेल में ही दोनों बच्चियों के साथ बनी रहीं।

माँ कभी-कभी जेल के अनेक किस्से सुनाया करती थीं। एक बार उन्होंने बताया कि जेल में कैदी गले के अंदर सिक्के छुपाकर रखते हैं ताकि प्रहरी को पैसे देकर बीड़ी तंबाखू या गांजा आदि बुलवा सकें। हमें आश्चर्यजनक लगा था कि गले के अंदर कैसे सिक्के छुपाए जाते होंगे। दरअसल मुंह के अंदर एक थैली जैसी आप्रेशन से बना दी जाती है। उसमें ये सिक्के आराम से बने रहते थे। बहुत बाद में दूरदर्शन पर “ब्योमकेश बख्शी” सीरियल में के एक एपीसोड में यह दिखाया भी गया कि किस तरह अपराधी गले के अंदर सिक्के छुपाकर रखते हैं।
माँ केवल 6 वीं क्लास तक पढ़ीं थीं। लेकिन उन्हें कहानी उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था। पढ़ाई लिखाई के शौक के कारण ही वे काम चलाऊ अंग्रेजी भी सीख चुकी थीं।
देश आजाद हुआ तो पिताजी ने शिक्षा विभाग में शिक्षक की नौकरी शुरु की ताकि अपने परिवार की गुजर-बसर कर सकें। इसी दौरान दोनों लड़कियों की बीमारी के चलते मृत्यु हो गई। 1947 के आसपास ही एक बेटा क्रांति हुए। हम उन्हें दादा कहते थे क्रांति दादा। क्रांति दादा की टायफाइड के कारण युवावस्था में ही मृत्यु हो गई। तब मैं बहुत छोटा था। मां इस सदमे को सहन नहीं कर पाईं और करीब साल भर मानसिक रूप से बीमार रहीं। लेकिन वे जीवट वाली महिला थीं। जल्द ही सदमे से उभर गईं। अब हम चार भाई बहन ही उनके जीवन का सहारा थे। पिताजी सिद्धांतों के पक्के थे। मुझे याद है कि कोरबा में एक बार उनका एक छात्र अपने घर से घी लेकर आया। लेकिन पिताजी ने वह घी लौटा दिया और उससे कहा कि अब कभी ऐसा मत करना वर्ना दंडित करूंगा। तब पिताजी स्कूल के प्राचार्य थे।
मां को एक बात का और दुख होता था। वे बताया करती थीं कि जो चोरी जेबकतरी आदि आपराधिक प्रकरणों में जेल में रहे उन्होंने भी रिश्वत देकर अपने को सरकार से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मनवा लिया। ऐसे लोगों को विभिन्न कार्यक्रमों में अपने समकक्ष बैठे देखकर मां को गुस्सा भी आता था लेकिन शांत स्वभाव की होने के कारण चुप रहती थीं।
हम जब छोटे थे तब से ही देखा है कि घर में सरिता मुक्ता पत्रिकाएं आती थीं। इस कारण परिवार में सभी हिंदु धर्म के ढकोसलों तथा अंधविश्वासों पर कतई विश्वास नहीं करते थे। मां पूजा जरूर करतीं लेकिन साधारण ढंग से। किसी को भी नहीं कहतीं कि पूजा-पाठ किया करो। उनका मानना था कि हम सभी समझदार हैं और स्वविवेक से इस संबंध में सोच समझ सकते हैं।
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मुझे याद है कि जब 1998 में मुझे कैलाश मानसरोवर यात्रा पर जाना था तो मां ने केवल इस कारण मना किया क्योंकि मुझे अस्थमा था और मैं उतनी ऊंचाई पर नहीं चल पाऊंगा। लेकिन जब मैंने माँ से कहा कि “मैं जिस भी स्तर पर जहां पर भी रिजेक्ट होऊंगा तो मैं तुरंत वापस आ जाऊंगा।” यह सुनकर मां ने मेरे जाने पर फिर आपत्ति नहीं ली।
1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया तो पिताजी और मां दोनों आपातकाल के विरोधी रहे। जेपी आंदोलन में इसीलिए उनका पूरा समर्थन आंदोलनकारियों के साथ रहा। लेकिन उनके ऊपर हम सबकी भारी-भरकम जिम्मेदारियां होने से वे सार्वजनिक रूप से न इंदिरा गांधी के विरोध में आए और न जेपी आंदोलन के पक्ष में। पिताजी जब 75 के दशक में रिटायर हुए तो उनकी सर्विस बहुत कम होने से पेंशन भी लगभग सौ रुपये मिला करती थी। इतनी कम राशि में हम चारों भाई बहन को पढ़ाना और घर खर्च चलाना केवल मां के बस की ही बात थी। मैं तब स्कूल के पास स्थित लाइब्रेरी का सदस्य बन गया। जब तक सागर में रहा हर हफ्ते साहित्यिक उपन्यास कहानियों की तीन किताबें लाया करता था। मैं तो पढ़ता ही मां भी हर किताब शौक से पढ़तीं थीं। मेरे सागर छोड़ने के बाद भैया लाइब्रेरी से किताबें लाया करते थे। जीवन के अंत समय तक मां अच्छा साहित्य पढ़ती रहीं थीं।
पिताजी मां की अपेक्षा हम से कम बात करते थे। सख्त भी थे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से उन्होंने बीए किया था। उस दौरान उन्होंने हाकी के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यान चंद के साथ कई बार हाकी खेली। मुझे याद है कि रिटायरमेन्ट के समय 55 वर्ष की उम्र में भी वे छात्रों के साथ हाकी खेला करते थे। संभवतः आज कल इतनी स्टेमिना वाले ढूंढें नहीं मिलेंगे।
1983 में पिताजी की मृत्यु के बाद मां ने ही हम सबको सहारा दिया। आसपड़ोस के लोगों का ध्यान रखना उनके सुख दुख में बराबरी से साथ देना उनके बड़प्पन का द्योतक तक था। वे मजबूत दिल की महिला थीं।
मां पिताजी के दिए संस्कार हम सब भाई बहनों में भी आए और हम में से किसी ने भी कभी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।
2009 में मां के निधन के 3-4 दिन पूर्व ही मेरे क्षेत्र में एक बाघिन खत्म हो गई थी। उसके बाद मां का जाना मुझे ऐसा लगा मानो 5-6 दिन में ही एक जंगल की सरताज तो दूसरी समाज की प्रेरणादायी नेत्री चली गई।

अशोक बरोनिया
– पूर्व IFS अधिकारी, मध्य प्रदेश शासन में मुख्य वन संरक्षक (Chief Conservator of Forest) के पद से सन 2015 में सेवानिवृत्त।
5. My Mother Aruna khare :-मेरी माँ की अंतिम इच्छा थी उनकी अस्थियां भारत में विसर्जित हो !





