
मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की62nd किस्त में आज हम प्रस्तुत कर रहे है ,इंदौर के वरिष्ठ पत्रकार डॉ. प्रतीक श्रीवास्तव को। DigianaNews के एसोसिएट इन चीफ डॉ. प्रतीक गुजराती महाविद्यालय में प्राध्यापक भी रहे हैं। मीडिया के कई प्रतिष्ठित संस्थानों में कार्यरत रहे हैं ,आपके पिताजी श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव “अतुल” मध्यप्रदेश में अपर आयुक्त सहकारिता से रिटायर्ड हुए ,वे बहुत ही उम्दा गजलकार थे. पिता के जाने के बाद जीवन में जो रिक्तता आती है उसी को परिभाषित करते हुए डॉ प्रतीक अपनी भावांजलि दे रहे हैं। ……याद आ रही हैं सुप्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश जी की पंक्तियाँ …..
एक-एक इमारत पर
उनकी कन्नियाँ सरकी थीं।
एक-एक दीवार पर
उनकी उँगलियों के निशान थे।
हर दरवाज़े की काठ पर
उनका रंदा चला था।
62 .In Memory of My Father: पिता आसमान से भी बड़ी और सुरक्षित छतरी है-डॉ.प्रतीक श्रीवास्तव
पिता का अवसान हृदयविदारक तो होता ही है, साथ ही एक बहुत बड़ा धक्का भी होता है। पिता के जाते ही आपको, तुरन्त जो बात सबसे पहले समझ में आती है ,वो ये कि अब आपका बेहद सुरक्षित बचपन खत्म हो गया है, और आप एकाएक बड़े हो गए हैं।
अकस्मात रूप से आपको खुद को बहुत सारी जिम्मेदारियों से घिरा पाते हैं। ऊपर से तुर्रा ये कि आपके सामने चुनोतियों का पहाड़ खड़ा दिखाई देता है ,मगर आपको राह दिखाने वाला शेरपा नहीं है। संघर्षों का समंदर सामने होता है ,मगर पार कराने वाला चप्पू ना जाने कहा खो गया है।
पिता आसमान से भी बड़ी और सुरक्षित छतरी है , जिसके साये तले आप खुद को पूरी तरह से महफूज़ पाते हैं। पिता का अवसान , एक ऐसी लम्बी और अंधेरी सुरंग में फस जाने के समान है, कि आप आज तक जिस जुगनू के भरोसे थे ,वो अब नहीं है ,और अब आप समस्याओं के चमगादडों के बीच घिरे हुए हैं।
अब तक आप जिन हिदायतों, नसीहतों और मशविरों को जाती जिंदगी में गैर जरूरी दख़ल मानते थे , वो अब खत्म हो चुका है, मगर रेतीले अंधड़ और तूफानी जंझावत से पार पाने का ग्यारन्टेड नुस्ख़ा बताने वाला सरपरस्त अब मौजूद नहीं है।
जिस बाल पके तजुर्बे को आप नास्टेल्जिया मानते थे,उसी को आप पूरी शिद्दत से मिस कर रहे होते हैं , और गाहे -बगाहे आप खुद नास्टेल्जिया यानी यादों की जुगाली के शिकार होने लगते हैं।
अब आप भले ही बरामदे में पड़ी उस आरामकुर्सी पर बैठने लगे हैं, जिस पर खाली होने के बाद भी आप पहले कभी नहीं बैठते थे। अब आप कुर्सी पर तो बैठे हैं, पर आराम कहाँ है।वो तो उस शख़्स के साथ जा चुका है , जिसे आप पापा कहते थे।
भले ही अब आप उस अनजाने भय से मुक्त हैं कि ,देर से घर पहुचने पर डॉट पड़ सकती है ,या किसी गलती पर रूखा सा उलाहना सुनना पड़ सकता है,बावजूद इसके आप के आस- पास बहुत सारा अनजाना सा डर -भय पसरा पड़ा हुआ है ,कि यदि ऐसा- वैसा कुछ हो गया तो कौन बचाएगा ? कौन कहेगा कि चल जाने दे मैं हूँ ना।
हमारा पैतृक ग्राम तलेन जिला राजगढ़ ब्यावरा है ,मेरे पिताजी श्री नरेन्द्र श्रीवास्तव “अतुल” को अपने गाँव से बहुत प्यार था .उनका जन्म 21जुलाई 1940 को हुआ था वे सहकारिता विभाग में अधिकारी बने और उनका विवाह श्रीमती मनोरमा श्रीवास्तव से 21जून1965 को हुआ था .पिताजी को लिखने पढ़ने में शुरू से ही बहुत रूचि थी उन्होंने कई गजल और कवितायें लिखी थी ,उनकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हुई थी तिश्नगी, अतुल काव्य, वह तीरथ गंगा इत्यादि .पिताजी ने अपने सेवा काल में बहुत ही निष्ठा से कार्य किया और वे अपर आयुक्त सहकारिता से रिटायर्ड हुए थे. वे अब नहीं हैं लेकिन उनकी स्मृति और उनका आशीर्वाद हम दोनों भाइयों के परिवार पर बना हुआ है .भगवान तो देखा नहीं। यकीनन अब देखूंगा भी नहीं, लेकिन ये तो तय है कि पिता भले ही भगवान ना हों, मगर भगवान से कम भी नहीं होते।
डॉ. प्रतीक श्रीवास्तव,डिजियाना न्यूज के एडिटर इन चीफ,इंदौर