

मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता-
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं श्रृंखला-मेरे मन/मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इस श्रृंखला की 67 th किश्त प्रसिद्ध शिक्षाविद्, विचारक और कथाकार श्री जगन्नाथ प्रसाद चौबे ‘ वनमाली ‘ की स्मृति को समर्पित है, जिन्होंने साहित्य और सामाजिक कार्यों के माध्यम से जीवन मूल्यों को बनाए रखने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। सन् 1962 में भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन ने शिक्षा के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए को सम्मानित किया था। साहित्य जगत में वे वनमाली जी के रूप में जाने जाते हैं। पिता का व्यक्तित्व आगे जाकर कैसे अपने पुत्र के विराट व्यक्तित्व में झलकता है यह इस संस्मरण से आप समझ सकते है।उनके पुत्र श्री संतोष चौबे भारत के दो प्रमुख निजी विश्वविद्यालयों- AISECT और डॉ. सी.वी. रमन विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। वे AISECT समूह के अध्यक्ष भी हैं।वे भारतीय सामाजिक उद्यमी और शिक्षाविद् हैं.भारतीय हिंदी साहित्य और कला को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों की विश्वव्यापी संकल्पना ‘विश्व रंग ‘ के दृष्टा और खुद एक संवेदनशील कवि ,कथाकार ,उपन्यासकार के रूप में वह ना सिर्फ मध्य प्रदेश बल्कि देश -विदेश में भी लोकप्रिय हैं,विश्व रंग ने उन्हें वैश्विक पटल पर स्थापित कर दिया है ।इस संस्मरण को लिखते हुए, अपने पिता को याद करते हुए वे अपने बचपन में चले जाते हैं और वहां से चलते हुए अपने लेखकीय व्यक्तित्व पर आकर रुकते हैं जहाँ यह यात्रा उन्हें यह याद दिलाती है कि—-
“कहानी का रास्ता कोई सपाट रास्ता नहीं, जैसा कि उन्होंने कहा था। वह स्मृति से स्मृति में, मन से मन में और समय से समय में प्रवेश कर जाने वाला रास्ता है। कभी टेढ़ा-मेढ़ा, कभी घुमावदार, कभी पहाड़ों और कन्दराओं से गुजरता और कभी मैदान में सरपट भागता।”
” मैं देखता हूँ कि मेरी कहानी का रास्ता उनकी कहानियों से होकर जाता है और उस पर चलते हुए वे अक्सर मेरे साथ होते हैं।शायद मेरे भीतर !”
और इस तरह हम भी इन रास्तों से गुजरते हुए पिता और पुत्र के संबंधों ,कार्यप्रणाली ,लेखन और व्यक्तित्व के साम्य को बहुत करीब से देख पाते हैं।
-स्वाति तिवारी ,सम्पादक
67 .In Memory of My Father-Shri Jagannath Prasad Choubey Vanmali : “मेरी कहानी का रास्ता उनकी कहानियों से होकर जाता है”
–संतोष चौबे
मुझे वे बीस साल एक सपने-से लगते हैं।
कभी खूबसूरत युवा और चमकीले उत्साह से भरा सपना और कभी दुःख और अपराधबोध की छाया-सा दुःस्वप्न। उस सपने की कुछ छवियाँ, अब भी मेरी स्मृति में अंकित हैं। खंडवा में पड़ावा का घर, पुरानी अँग्रेजी टाइल्स में ढँकी छत जिसके नीचे बड़े-बड़े कमरे, सामने एक बड़ा-सा वरांडा, घर के बीचोंबीच आँगन और उसमें तुलसी का पौधा, सामने एक खूबसूरत बगीचा और बगीचे में अमरूद के पेड़, दरवाजे पर कनेर की बेल और बगीचे में मोंगरे की क्यारियाँ, बगीचे के बीचोंबीच लाल पत्थरों से बनी एक षटकोणीय हौद और उसके केन्द्र में फव्वारा। घर के एक पक्ष में अम्मा की रसोई, दादी का पूजाघर और सामने की ओर किताबों और कागजों से भरा दादा का पढ़़ने का कमरा, उससे लगा हुआ दालान और दालान में रखीं दो आरामकुर्सियाँ।
मैं सुबह उठता तो दादा को अक्सर दालान में उसी आरामकुर्सी पर बैठे कुछ पढ़ते-लिखते पाता। कभी-कभी पालथी मारकर वे दालान की दूसरी ओर रखे तखत पर बैठ जाते और उनके चारों ओर कोई अधखुली किताब, कोई अखबार, कुछ अधलिखे कागज, पेन और दावात और एक पानदान उस तखत की शोभा बढ़ाते थे। उनके बैठते ही एक गम्भीर-सा वातावरण दालान में बन जाता। क्या मजाल कि हममें से कोई बच्चा उनके पठन-पाठन में खलल डाले! वे धोती-कुर्ता पहने आरामकुर्सी पर या तखत पर बैठे अपने अध्ययन में डूबे रहते थे और वहीं से कभी आती-जाती बहनों से, कभी अम्मा और घर के अन्य सदस्यों से और कभी मेल-मुलाकातियों से बतिया लिया करते थे। इस बीच चाय की फरमाइश होती रहती, लेकिन सुबह नौ बजे के आसपास उनका रूप अलग होता। साफ प्रेस करी हुई पैंट-कमीज और चमचमाते जूते पहन वे अपनी साइकिल उठाते और स्कूल की ओर चल पड़ते। ठंड में बन्द गले का कोट उन्हें और रौबीला स्वरूप प्रदान करता था।
मैं उनकी आठवीं सन्तान था। सात बहनों के बाद अकेला पुत्र। लेकिन इस कारण से कभी उनकी कोई विशेष कृपा-दृष्टि मुझ पर पड़ी हो, ऐसा याद नहीं पड़ता, बल्कि अधिकतर वे बहनों की समस्याएँ सुलझाने, उन्हें अँग्रेजी या अन्य विषय पढ़ाने और उनका उत्साह बढ़ाने पर ही ज्यादा ध्यान देते थे। बड़े होकर जब मैंने उनकी कहानी ‘पराया धन’ पढ़ी, तब मुझे उनके इस व्यवहार का मर्म समझ में आया।
मुझे काफी सजा-सँवारकर खंडवा के नॉर्मल स्कूल में पढ़ने भेजा गया था। बाकायदा सरस्वती पूजा के बाद कोसे का कुर्ता और पाजामा पहनाकर तथा सिर पर खूबसूरत टोपी लगाने के बाद। दादा वहाँ प्राचार्य नहीं थे, पर उनका पुत्र होने के नाते मुझे वहाँ भी एक विशेष दर्जा हासिल था। शाम को जब हम सब मोहल्ले के बच्चे घर के बाहर खेल जमाते, तभी अक्सर उनका आना होता। कभी साइकिल पर और कभी पैदल। मैं दौड़कर उनकी साइकिल पकड़ता या उनके पैरों से लिपटता। वे अक्सर मेरा सिर या पीठ थपथपाते और कहते- जाओ, खेलो। पर इतवार और छुट्टी के दिन उनका अँग्रेजी और गणित का पाठ अनिवार्य था, जिसमें मेरी अक्सर खिंचाई होती। कभी-कभी नॉर्मल स्कूल के शिक्षक भी बुलाये जाते और उनसे मेरी प्रगति का हाल-चाल पूछा जाता।
पाँचवीं या छठी कक्षा में ही रहा होऊँगा कि मुझे एक बार टायफॉइड हुआ। एक बार ठीक होने के बाद दोबारा हुआ। उस एक-डेढ़ महीने में मैंने दादा का एक अलग रूप देखा। वे चिन्तित-से सुबह-शाम मेरे बिस्तर पर आकर बैठते, कई बार शाम को डॉक्टर को लिये हुए और कभी-कभी हाथ में पुस्तकों का एक बंडल लिये हुए, जिसमें डेविड कॉपरफील्ड, रॉबिनसन क्रूसो, एलिस इन वंडरलैंड जैसे बच्चों के क्लासिक्स होते और कभी टैगोर, प्रेमचन्द, शरतचन्द्र और बंकिम की कहानियाँ। उन कहानियों के लिए शायद मैं अभी छोटा था, लेकिन वे चाहते थे कि मैं जल्दी से जल्दी दुनिया का सारा ज्ञान प्राप्त करूँ, एक आदर्श पुत्र और एक आदर्श व्यक्ति बनूँ और जीवन में कुछ बड़ा करके दिखाऊँ। मैं डॉक्टरों की काफी मेहनत के बाद ठीक हुआ, लेकिन इस बीच मुझे पढ़ने का चस्का लग चुका था।
खंडवा के वे कुछ साल पड़ावा, दूध तलाई और नॉर्मल स्कूल के मैदानों में खेलने के साथ-साथ गणेश उत्सव, शीतला माता पूजन और दीवाली तथा होली मनाने के साल थे। स्कूलों के सांस्कृतिक कार्यक्रम तथा नाटकों और सभाओं में उत्साहपूर्वक भाग लेने के साल थे। बहनों के साथ रक्षाबन्धन, गणगौर और संझा खेलने के साल थे। दशहरे पर नये कपड़े पहनकर दादा के साथ दशहरा मैदान जाने का उत्साह, दीवाली पर घर-भर को दियों से जगमग करने का उत्साह और हर समय कुछ न कुछ नया करने का उत्साह मन में भरा रहता था। मेरे इस उत्साह में बहनें, दादा-अम्मा और मुहल्ले के दोस्त अनायास ही शामिल हो जाया करते थे।
मुझे याद पड़ता है कि एक बार उनके स्कूल के शिक्षकों ने उनके साथ होली खेलने का निश्चय किया। उन्हें इसकी भनक लग चुकी थी। उस दिन वे बिल्कुल अलग रंग में थे। पंडित जी ने, जो वैसे तो स्कूल में सहायक थे पर हमारे घर के सदस्य की तरह थे, पीछे वाले आँगन में सिलबट्टे पर अंगूर और बादाम घोंटकर शानदार ठंडई तैयार की थी और अम्मा ने गरमागरम गूझों और समोसों का नाश्ता बनाया था। शिक्षक संख्या में तीस-चालीस रहे होंगे। पहले तो हल्का-हल्का रंग-गुलाल चलता रहा, फिर एक इशारा हुआ और सबने उठाकर ‘चौबे जी’ को रंगों से भरी हौद में डाल दिया। उन्होंने बिल्कुल भी बुरा नहीं माना और फिर तो ये सिलसिला हर शिक्षक के साथ चला। पूरा मोहल्ला इस होली को देखने के लिए वहाँ इकट्ठा था। अभी भी उस यादगार होली को याद करते कई शिक्षक और छात्र मिल जाएँगे।
प्राथमिक शाला के बाद मैंने खंडवा के मल्टीपरपज स्कूल में प्रवेश लिया, जहाँ वे प्राचार्य थे और वहाँ उनके गुरुत्व से मेरा परिचय हुआ। मल्टीपरपज स्कूल मुझे अत्यन्त विशाल और भव्य लगा था। वे उसके मैदान से सटे कोने वाले कमरे में बैठते थे। एक विशाल मेज के पीछे कमरे में गाँधी और नेहरू के फ्रेम करे हुए बड़े-बड़े चित्र, कोने में किताबों की एक-दो अलमारियाँ, स्कूल द्वारा जीते गये कप और ट्रॉफियाँ तथा उन सबके बीच एक तनाव-भरी चुप्पी। मैं क्या, कोई भी छात्र उनके कमरे में आसानी से नहीं जा सकता था।
प्रिंसिपल साहब के यहाँ बुलाया जाना एक विशेष घटना की तरह होता था। मैं उन्हें स्टाफ-रूम में लम्बी-लम्बी बैठकें करते देखता, प्रार्थना के समय छात्रें को सम्बोधित करते देखता, थियेटर कक्ष में ऊँची कक्षा के छात्रें को अँग्रेजी पढ़ाते देखता, कभी स्कूल की फुटबॉल या क्रिकेट टीम का उत्साह बढ़ाते, कभी खेल के मैदानों और बगीचे का निरीक्षण करते, कभी प्रयोगशाला में छात्रें से बात करते, कभी वार्षिक समारोह को सम्बोधित करते और कभी बाहर से आये विशेषज्ञों को स्कूल का अवलोकन कराते देखता और एक अजीब तरह के गर्व से भर जाता। जो ये सब कर रहे थे, वे मेरे पिता थे।
गर्मियों से ठीक पहले पूरे स्कूल में परीक्षा का तनाव फैल जाता। वे परीक्षा का संचालन पूरी गम्भीरता से करवाते थे और खुद केन्द्रीय सभाकक्ष में बैठते थे जहाँ ग्यारहवीं के छात्रों को बिठाया जाता। एक बड़ा ही रोमांचक तनाव और चुप्पी पूरे स्कूल पर छा जाती। पूरी परीक्षा के दौरान अक्सर मैं भी उनके पास ही बैठता, कोई किताब लिये हुए, उनके जैसा दिखने की कोशिश करते हुए। वे कनखियों से मुझे देखते और मुस्कराते।
फिर उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार मिला और जैसे हमारे परिवार में और पूरे खंडवा शहर में एक उत्साह की लहर फैल गयी। जगह-जगह उनका स्वागत किया गया। तत्कालीन मुख्यमन्त्री भगवन्त राव मंडलोई हमारे स्कूल में पधारे, चौबे जी के सम्मान समारोह में। उनकी प्रतिष्ठा और बढ़ी और प्रदेश के शिक्षा-जगत में उन्हें और ज्यादा सम्मान मिलने लगा।
इस बीच की जाने कितनी स्मृतियाँ मेरे मन में कौंधती हैं। शाम को बगीचे में पानी का छिड़काव और सोंधी मिट्टी की खुशबू, रात में घने तारों से घिरे आसमान के नीचे, चारपाइयाँ बिछाने और चादरें ठंडी करने के बाद, रात में देर तक बातें करते हुए बगीचे में सोना, गर्मियों में आम से लदी बैलगाड़ियों का आगमन और सुबह-सबेरे गाड़ीवान से मोलभाव करने के बाद आमों का नाश्ता, मल्टीपरपज स्कूल के मैदानों में दोस्तों के साथ साइकिल रेस और साइकिल रेस में साइकिल के स्लिप होने पर मेरी कोहनी की हड्डी का टूटना, नॉर्मल स्कूल के वार्षिक सम्मेलन में मेरा नाटक और खेलों में पाँच से अधिक पुरस्कार जीतना और दादा का खुश होकर मेरी पीठ थपथपाना, मेरा और उनका अलग-अलग साइकिलों पर बैठकर अमेरिकन शिक्षक लिंच के यहाँ क्रिसमस मनाने जाना, खंडवा के लोगों की मिठास और दादा से उनके सम्बन्ध, बड़े बम्ब की कर्मवीर प्रेस, माखनलाल चतुर्वेदी के अन्तिम दिन और मेरा अस्पताल में जाकर उनका पैर छूना- यह सब मेरे दिमाग में साफ-साफ अंकित है। बहनों की शादी के समय घर में तनाव, शादी के लिए हम सबका अक्सर आगरा जाना, आगरे का हमारा घर, बुआ और छोटे बाबा, दादी और छोटी दादी- इन सबके बीच दादा से बहस करती अम्मा, माँ के समान ही मेरी बहनें, ये सब भी मेरी स्मृति में अब तक जीवन्त हैं।
पर उस समय की सबसे बड़ी याद हमारे खंडवा छोड़ने की है। सैकड़ों छात्र और अभिभावक उन्हें स्टेशन पर छोड़ने आये थे। भीड़ इतनी कि पूरा प्लेटफॉर्म खचाखच भरा था और काफी देर तक गाड़ी चल न पायी थी। उन्हें फूल-मालाओं से लाद दिया गया था। छात्रें ने उन्हें कन्धों पर उठा लिया था और अभिभावक उन्हें गले लगा रहे थे। वह शहर से एक आदर्श नायक की अश्रुपूरित विदाई थी और हमारे जीवन में एक सुनहरे अध्याय की भी।
भोपाल उन्हें बहुत रास नहीं आया था। न तो उसमें खंडवा-जैसी सम्बन्धों की मिठास थी और न भाईचारे की वह ऊष्मा। भोपाल एक उभरती हुई राजधानी था जहाँ राजनीति कुछ ज्यादा तीखी, कुछ ज्यादा आक्रामक और ज्यादा कठोर थी। अध्ययन, अध्यापन में डूबे रहने वाले एक आदर्शवादी प्राचार्य के लिए कुछ ज्यादा असहनीय। टी.टी. नगर के मॉडल स्कूल में एक प्राचार्य के रूप में अभी उनकी छवि बन ही रही थी कि शिक्षकों के एक समूह ने राजनीति शुरू की। बहुत बाद में राजनीति के उस रंग को मैंने पहचाना। उनका रिटायरमेंट निकट था और दो बहनों की शादियाँ अभी बाकी थीं। मैं अभी भी स्कूल-कॉलेज की दुनिया में था और किसी लायक नहीं हुआ था। वे तनाव-भरे दिन थे।
लेकिन दादा ने अपनी कार्यशैली बहुत नहीं बदली। उसी तरह सुबह उठकर लिखना-पढ़ना, फिर स्कूल या कार्यालय की चिन्ता, शाम को मिलना-मिलाना और देर तक लेखन। वे अब मध्यप्रदेश के शिक्षक-जगत के प्रतिष्ठित नाम थे और बहस-मुबाहिसों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। दिल्ली स्थित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान परिषद् से उन्हें अक्सर बुलावा आता। उन्होंने भोपाल के बुद्धिजीवियों में जल्दी ही अपनी पहचान बना ली। कुछ दोस्ती की, कुछ दुश्मनी की, प्रदेश-भर के लेखक अक्सर उनसे मिलने आते। भवानी भाई, विनयमोहन शर्मा, दुष्यन्त कुमार, शरद जोशी, प्रभुदयाल अग्निहोत्री और अन्य लेखकों को मैंने उसी समय देखा-पहचाना। मैंने भी स्कूल में कुछ छोटे-मोटे व्यंग्य और कविताएँ लिखना शुरू किया था। कभी-कभी कहानी भी। दादा की सतर्क निगाह उन पर पड़ती। वे एक तरह से मेरे पहले कथा-गुरु थे। आसपास को देखना-समझना सबसे पहले उन्होंने ही सिखाया। बहुत सजी हुई भाषा या लम्बे वाक्य उन्हें पसन्द नहीं थे। ‘छोटे वाक्य लिखो।’ या ‘सीधा लिखो, सीधा।’ उनका तकिया-कलाम था। कभी वे दादी पर, कभी अम्मा पर, कभी बहनों पर या मोहल्ले के बारे में लिखवाते और फिर बताते कि क्या आ गया और क्या छूट गया। एक बार मैंने कोई कहानी लिखी और बड़े उत्साह से उनको सुनाने गया। सुनने के बाद उन्होंने कहा कि अच्छी है, लेकिन तीन-चार महीने अपने पास रखो और फिर दोबारा पढ़कर देखना। अगर फिर भी अच्छी लगे तो कहीं भेजना, नहीं तो फिर काम करेंगे। कहानी या रचना को भी पकाया जाता है और उसका भी तापक्रम घटता-बढ़ता है, यह मेरे लिए पहला पाठ था।
रचना-पाठ के तरीके पर भी उनका बहुत जोर रहता था। वे खुद अपनी रचनाएँ और व्यंग्य-लेख सभाओं और गोष्ठियों में पढ़कर सुनाते। अब उन्होंने मुझे भी साथ ले जाना शुरू कर दिया था। स्कूल और कॉलेज में आते-आते मैंने मंच से बोलना शुरू कर दिया। कभी-कभी दादा भी मेरे श्रोता होते थे। बोलने के पहले तैयारी की जानी चाहिए और बोलते समय मॉड्यूलेशन का ध्यान रखना चाहिए, कभी-कभी इम्प्रोवाइज कर सकें तो बहुत अच्छा- ये गुर दादा के ही दिये हुए हैं। मैं पढ़ाई में भी अच्छा निकला और खेलों में भी। जलतरंग वादक के रूप में मेरी प्रतिष्ठा शहर में बन चुकी थी और स्कूल तथा महाविद्यालय दोनों में ही मुझे सर्वश्रेष्ठ छात्र चुना गया था। मेरी उपलब्धियों पर उनका प्रसन्न होना स्वाभाविक था, लेकिन मुँह पर किसी की प्रशंसा करना उनका स्वभाव नहीं था। बस पीठ पर एक हल्की-सी थपथपाहट या आँखों में उभरता प्रशंसा, सन्तोष और सम्मान का भाव उनकी प्रसन्नता का पता देते थे। कॉलेज तक आते-आते मेरी उनसे दोस्ती-जैसी हो गयी। वे कई विषयों पर मुझसे बात करने लगे। उनकी पिटाई की बहुत चर्चा होती है, पर उन्होंने मुझे बहुत नहीं पीटा। बस प्राथमिक कक्षा में एक बार पिटना मुझे याद है और आठवीं का एक थप्पड़। मैंने उनकी इच्छाओं और कार्य-पद्धति को जैसे समझ लिया था और उनके कुछ कहने के पहले ही मैं उनका मनचाहा काम करके दिखा देता।
रिटायरमेंट के बाद उन्हें जीवन-यापन के साधनों की खोज में भोपाल से बाहर जाना पड़ा। तकरीबन दो साल बाद लौटकर उन्होंने अपना घर बनाने की योजना को हाथ में लिया। इस दौरान घर के संसाधन छीजते गये थे और दादा कड़ी मेहनत से नया रास्ता बनाने की कोशिश कर रहे थे। ये सारे काम वे ‘मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ’ की तर्ज पर करते, लेकिन उनका मन पढ़ने-लिखने में ही पड़ा रहता। पुराने लिखे को सजाना-सँवारना और प्रकाशन के लिए पांडुलिपियाँ तैयार करना उन्होंने शुरू कर दिया था।
अब मैं इतना बड़ा हो चुका था कि उनका ये जीवन-संघर्ष देख पाता। मुझे लगता था कि मैं जल्दी से जल्दी इंजीनियर बनूँ, कुछ काम-धाम शुरू करूँ और उनका हाथ बटाऊँ, कि उन्हें थोड़ा आराम मिले। लेकिन मेरी अन्तिम वर्ष की परीक्षा के दौरान अचानक उनका ब्रेन हेमरेज हुआ और अस्पताल में दो-तीन दिन के संघर्ष के बाद उनका निधन हो गया। जीवन में किसी भी घटना ने मुझे इतना अकेला नहीं किया था जितना उनके इस तरह अचानक चले जाने ने। अचानक एक पूरा अनजाना संसार मेरे सामने था, जिसे मुझे समझना था और अपने लिए जगह बनानी थी। जैसे आकाश सिर पर आ पड़ा था और पैरों के नीचे धरती नहीं थी। उनके लिए ज्यादा कुछ न कर पाने का अपराध-बोध भी मन को सालता था। जीवन को लेकर तरह-तरह के सवाल मन में आते-जाते थे। पहली बार दादा के सुरक्षा कवच के बिना मैं खुद के और दुनिया के आमने-सामने था।
तब मेरी उम्र कोई बीस साल रही होगी।
फिर नौकरियाँ मुझे बड़ौदा और दिल्ली ले गयीं और वापस भोपाल लायीं। दिल्ली में रहते वाम-जनवादी आन्दोलन और लेखकों से मेरा सम्पर्क बढ़ा और मार्क्सवाद और एक्टीविज्म ने मुझे व्यापक विश्व से जुड़ने का अवसर दिया। लेकिन इस बीच भी मैं जगह-जगह दादा के आभामंडल से टकराता रहा। अचानक उनका कोई छात्र जो अब शायद बड़ा अफसर, व्यापारी या मन्त्री होता, मेरा परिचय जानने के बाद बड़ी श्रद्धा और भक्ति से उन्हें याद करता; अचानक कोई माली, चौकीदार या अखबारों का हॉकर आकर उनके बारे में पूछता और उनकी किसी छुपी हुई अच्छाई के बारे में मुझे बताता, परिवार या समाज का कोई सदस्य थोड़े संकोच के साथ बताता कि दादा उसकी आर्थिक मदद करते रहे थे और उन्हीं के बल पर वह आज अपने पैरों पर खड़ा है। यह सब सुनकर मैं जानता कि मैं उनके बारे में कितना कम जानता था! मेरे मन में ये जिज्ञासा होती कि उनके कोई पुराने परिचित मिले, कि मैं उनके बारे में और जान सकूँ। अम्मा से भी अक्सर लम्बी बातचीत होती, उनके सुख-दुख और परिवेश के बारे में।
उनके जाने के बाद जो सबसे बड़ा खजाना मेरे हाथ लगा, वह था किताबों से भरे उनके बक्से, जिन्हें खोलकर और विषयवार व्यवस्थित कर मैंने घर में एक पुस्तकालय बनाया और उन्हें पढ़़ना शुरू किया। उनमें समरसेट मॉम भी थे और फ्लॉबेयर भी, स्टीफन ज्वाइग भी थे और अर्नेस्ट हेमिंग्वे भी, आर.एल. स्टीवेंसन भी थे और टी.एस. इलियट भी। हमारे अपने टैगोर, प्रेमचन्द, जैनेन्द्र और अज्ञेय भी विराजमान थे। वहाँ नेहरू की ‘विश्व इतिहास की एक झलक’ भी थी तो ‘कम्परेटिव वर्ल्ड रिलीजन’ जैसी अलबर्ट श्वाइतजर की किताब भी। कहानी, विश्वमित्र, भारती और सरस्वती की बहुत सहेजकर रखी गयी फाइलें थीं जिनमें उनकी कहानियाँ प्रकाशित थीं। खुद अपने हाथ से बनायी गयी उनकी कहानियों की पांडुलिपि भी थीं। अब मैंने उन्हें उनकी किताबों के माध्यम से जानना शुरू किया और जाना कि उनकी अभिरुचियाँ कितनी व्यापक थीं! पश्चिमी एवं भारतीय साहित्य दोनों में ही उनकी पैठ थी और बड़ी आसानी से वे कथा साहित्य से लेकर इतिहास और समाज तक के विषयों पर विद्वत्ता के साथ बात कर पाते थे।
इसी दौरान मुझे तीन ऐसी चीजें प्राप्त हुईं जिनसे मैं उनके और निकट पहुँच सका और उनके मन में प्रवेश कर सका। एक था उनका अपना बायोडाटा, दूसरा उनके द्वारा लिखे और उन्हें प्राप्त कुछ पत्र और तीसरा उन्हीं के द्वारा तैयार कहानियों की हस्तलिखित पांडुलिपि। मैंने जाना कि उनका जन्म 9 अगस्त 1912 को आगरा में हुआ था, कि वे होशंगाबाद और नागपुर में पढ़ते रहे थे और उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से ही अँग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया था। उसके बाद बिलासपुर और आसपास के शहरों से उन्होंने अपने शिक्षकीय जीवन की शुरुआत की और वहीं से लेखन की भी। उनके पत्रों में एक पत्र उनके द्वारा ‘माया’ के सम्पादक रामनाथ सुमन को लिखा पत्र था जिसे मैं आगे प्रस्तुत करूँगा और जिसके माध्यम से हमें कहानी के बारे में उनके दृष्टिकोण का पता चलेगा। कहानियों ने उनकी रोमांटिक दृष्टि, आदर्शवादी रुझान और अनुभूति की तीव्रता से मेरा परिचय कराया और व्यंग्य लेखों ने बताया कि वे परसाई से बहुत पहले चुटीले संवादों की शैली विकसित कर चुके थे।
उनकी पहली कहानी ‘जिल्दसाज’ कलकत्ते से निकलने वाले ‘विश्वमित्र’ मासिक में वर्ष 1934 में छपी, जब वे कुल बाइस साल के रहे होंगे। उसके बाद लगातार लगभग पच्चीस वर्षों तक वे सरस्वती, कहानी, विश्वमित्र, विशाल भारत, लोकमित्र, भारती, माया, माधुरी जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे।
वनमाली जी के लेखन-काल को मैं दो हिस्सों में बाँटकर देख पाता हूँ। उनमें से पहला है 1934 से 1950 के बीच का समय, जब उन्होंने रोमांटिक दृष्टि-सम्पन्न या आदर्शवाद से प्रेरित कहानियाँ लिखीं और दूसरा 1950 से 1965 के बीच का लेखन-काल, जब उन्होंने स्वतन्त्रता के बाद की विसंगतियों पर, समाज में उभरते भ्रष्टाचार पर तथा व्यक्तित्व के विभाजन पर अपने व्यंग्यों के माध्यम से चुटीले प्रहार किये। एक कथाकार के रूप में यह उनकी विकास-यात्रा का साक्ष्य भी है।
इसके पहले कि मैं उनकी कहानियों पर और बात करूँ, आइये देखें कि उस समय की कथा-प्रवृत्तियाँ क्या थीं! प्रेमचन्द उस समय कथा-साहित्य के सबसे बड़े नाम थे और अपने सामाजिक-राजनीतिक उपन्यासों तथा यथार्थवादी कहानियों के माध्यम से पहले ही कथा-परिदृश्य पर छाये हुए थे। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, प्रेमचन्द से भी पहले अपने समय की आधुनिक दृष्टि-सम्पन्न ‘उसने कहा था’ कहानी लिख चुके थे और प्रसाद अपनी तत्सम शब्दावली के बावजूद या शायद उसके कारण ही एक बहुत ही घनीभूत अनुभूति के कथाकार और नाटककार के रूप में अपनी पहचान बना चुके थे। प्रेमचन्द और प्रसाद की इन दो धाराओं को ही हमने आगे चलकर प्रेमचन्द और प्रसाद स्कूल के नाम से जाना। एक और बड़े कथाकार भगवती चरण वर्मा का नाम भी हमारे जेहन में उभरता है जिन्होंने आधुनिक भाषा और पैनी व्यंग्य-शैली के माध्यम से कथा-साहित्य में अपना स्थान बनाया। जैनेन्द्र और यशपाल को अभी आना था और अज्ञेय भी अभी क्षितिज पर उभरे नहीं थे। एक तरह से वह कहानी का सन्धिकाल था, जिसके भविष्य में नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी और उत्तर-आधुनिक कथा छुपी हुई थी। जैसा कि हम आगे देखेंगे, वनमाली अपने दृष्टिकोण और भाषा-शैली में एक आधुनिक (मॉडर्निस्ट) कथाकार के रूप में उभरते हैं और पात्रों के चयन तथा विकास में, अपनी भाषा और वाक्य-विन्यास में प्रेमचन्द के अधिक निकट ठहरते हैं।
सन् 1940 में वनमाली जी ने ‘माया’ के सम्पादक श्री रामनाथ सुमन को एक पत्र लिखा था, जिससे कहानी के बारे में उनका दृष्टिकोण स्पष्ट होता है-
पूज्य सुमन जी,
सादर नमस्ते। एक मुद्दत के बाद आपकी चिट्ठी मिली, कहानी छप गयी है, सो जानकर प्रसन्नता हुई। मगर छपने के पहले की या बाद की क्रिया छूट गयी है, यह देखकर कुछ खराब भी लगा। आपको अपनी कहानियों के प्रति ऐसा impersonal हो जाते देखकर मुझे सचमुच भय होने लगा है कि मुझे जरूर अपने पाठकों को पैदा करने की बात सोचनी चाहिए। गुस्ताखी माफी हो, तो मैं एक सवाल करूँ। जब आप–जैसे आदमी मेरे कुछ निकट हों, तब क्या कहानी का केवल छपना ही मेरे लिए एकमात्र सत्य होना चाहिए?
मैं इस बार आपकी बात और अधिक स्पष्ट ढंग से समझ गया हूँ, किन्तु आगे चलकर आपने अपनी चिट्ठी में लिखा है– ‘‘समालोचना की भाँति इनका महत्त्व है।’’ मेरी जिज्ञासा है कि कहानी में पहुँचकर भी क्या यह समालोचना, यह आलोचना और विश्लेषण वही बना रहता है? क्या उस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती? क्या उसका कोई संश्लिष्ट रूप नहीं बनता? क्या वह मिलकर अपनी कोई दुनिया नहीं खड़ा करता? यदि नहीं, तो सचमुच खतरे की बात है। मैं खुद महसूस करता हूँ कि प्लॉट और चरित्र के नाम पर मेरी कहानियों में बहुत थोड़ी चीज है– वातावरण की शायद मैंने कहीं–कहीं कोशिश की है, किन्तु मेरी कोई बात प्रबल हो पड़ी है, तो यह आलोचना और विश्लेषण। शायद यह दोष मेरी दृष्टि का हो। मेरे लिए जीवन नाम की चीज बड़ी gross है। वह शायद टुकड़ों में, प्रत्यालोचना में ही दिख जाता है, तो दिख जाता है। और फिर कहानी में मैं सब बातें छोड़ने को तैयार हूँ, पर उसमें intensity और dramatic element का होना मैं बहुत लाजिम समझता हूँ। शायद ये दो चीजें ही कहानी की technique की जान हैं। मैं यह नहीं कहता कि जीवन–तत्त्व अपने पूरे रूप में इन बातों में बाधा डालता है, किन्तु मेरे दिमाग में वह आलोचना और विश्लेषण ही बनकर आता है। क्या बताऊँ, filler का ही दोष समझिये। आदमी चाहकर भी कभी–कभी वह चीज नहीं दे पाता, जो वह देना चाहता है।
आपकी बतायी कहानियों पर (कौशिक जी की कहानियों पर) भी मैं कुछ कहना चाहूँगा। मैंने भी उन तीन कहानियों को पढ़ा है। उन तीनों में मुझे ‘उस लोक की छाया’ से ही अधिक मजा मिला है। मुझे बड़ा दुख है कि मैं आज तक भी कौशिक जी को appreciate नहीं कर सका। यह लेखक का कैसा आभार है कि जिसने इतनी कहानियाँ लिखी हों, उसकी दो–चार कहानियाँ भी मन में न घूमें। कौशिक जी में intensity के नाम पर तो मुझे कुछ मिलता ही नहीं, जैसे कहानी उनके लिए एक सपाट रास्ता है, जिसके आजू–बाजू सूखा लम्बा मैदान है। इसी से चरित्रों के प्रति पूरी संवेदना नहीं उमड़ती। ऐसा मालूम पड़ता है कि लेखक किसी खास परिणाम की ओर ढकेल रहा है। कभी–कभी तो मन उस परिणाम में भी अविश्वास करने लगता है। यही बात ‘गँवार’ की है। उसके सम्बन्ध की सारी बातें बनी–बनायी दिखती हैं। दिल उन्हें मानने से इंकार करता है। मैं यह नहीं कहता कि ऐसे भोले simpleton दुनिया में हैं ही नहीं, पर उनका भोलापन जी में भरना चाहिए। फिर दुनिया जब इतनी दूरी लाँघ आयी है, तब क्या इसी भोलेपन को सत्य होना चाहिए? यह भी सत्य हो सकता है, पर किसी दूसरे ढंग से, किसी अन्य तरीके से।
दूसरी कहानी ‘आज उसका ब्याह है’, हो सकता है कि average पाठक को इसने खूब स्पर्श किया हो, पर क्या average मानकर चलना ही सत्य है? जब इसे मैंने पढ़ना शुरू किया, तो दो–एक पेज तक अच्छी लगी, पर बाद को यह बड़ी गड़बड़ दिखी। मैं मानता हूँ कि लेखक ने सबकुछ, जितना उससे बना, उतना ठीक ढंग से रखा है, पर घटनाओं और चरित्रों के गुम्फन में क्या कहानी नाम की वस्तु खो नहीं गयी है? शरत् बाबू की कहानियाँ भी लम्बी–चौड़ी हैं, पर उनमें यह घटाटोप बुरा नहीं लगता। यहाँ मुझे लगता है कि कौशिक जी की कहानी बिल्कुल flat हो गयी है। इसी flatness के कारण मैं कहानी को खतम हुआ मानता हूँ।
तीसरी कहानी अपने अन्तिम अंश में बड़ी सुन्दर है। शायद उसको निकाल दिया जाए तो कहानी में कुछ नहीं देखता हूँ।
मैंने अभी तक तीन कहानियाँ आपके पास भेजी हैं, चौथी ‘जिन्दगी’ आपको मिली होगी। इनके जवाब में मुझे एक ही स्वर की अनुभूति हुई है– ‘पसन्द–पसन्द’। मगर आदमी क्या ऐसा अच्छा है कि वह अपनी बुराई देखना नहीं चाहेगा? तब वह बुराई, वह आलोचना मुझे क्यों नहीं मिल रही है? कल्पना का क्षेत्र विस्तृत हो, इसके सिवा कुछ और? आपके पास समय का तकाजा हो सकता है, मगर समय क्या मुझसे अधिक ‘पर्सनल’ है?
अट्ठाइस साल के एक युवा कथाकार द्वारा कहानी पर इस तरह की टिप्पणी और कहानी की तकनीक पर उसके परिपक्व सवाल आज के संवादहीन समय में मुझे बहुत ही आश्चर्यजनक लगते हैं। आज जब हम विवरण से भरी बोझिल कहानियाँ देखते हैं तब हमें वनमाली जी की ये बात याद आती है- कहानी में मैं सब बातें छोड़ने को तैयार हूँ पर उसमें इंटेंसिटी और ड्रामेटिक एलीमेंट का होना मैं बहुत लाजिम समझता हूँ, शायद ये दो चीजें ही कहानी की तकनीक की जान हैं।
मैं उनके इस कथन के आधार पर ही उनकी कहानियों की खोज में निकला। जो सबसे पहली बात उनकी कहानियों में देखने में आती है, वह है उनकी भाषा और उनका वाक्य-विन्यास। उनकी भाषा में कसावट सबसे पहले ध्यान आकर्षित करती है। छोटी कहानियाँ और कहानियों के बीच अचानक उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और आत्मालोचना में चले जाना, कहानी को एक तरह की गहराई प्रदान करता है। जिल्दसाज, सन्तरेवाली, पराया धन, माँझी, एक औरत, नौकर, आदमी और कुत्ता जैसी कहानियों में उनका ड्रामेटिक एलीमेंट उन्हें और असरदार बनाता है। अचानक चलते-चलते कहानी एक वैचारिक गहराई में उतर जाती है और हमें सोचने पर मजबूर कर देती है।
आइये कुछ बानगी देखते हैं।
‘क्योंकि कानून है जो चाहता है कि जिसे जितना आराम, जिस किसी तरह से मिल चुका है उससे वह बेदखल न किया जावे, क्योंकि धर्म है, जो सांत्वना देता है कि आराम और तकलीफ कुछ नहीं, केवल अपने कार्यों का भोग है जिसे अगर चुपचाप झेल लिया जाये तो उसी में वाह वाही है।’
(रेल का डिब्बा)
‘अवनि के इतवार को घर देखने आने की बात ने चन्दा के जीवन की धारा को एकाएक, एकदम बदल दिया। चन्दा कभी कड़ी थी, इसीलिये आज इतनी सरल है। कड़ाई को दबाकर जैसे सरलता ऊपर आयी है। उसमें क्रोध नहीं, हिंसा की ज्वाला नहीं, पाप का परिताप नहीं और वह बोझिल हो पैर की बेड़ी नहीं। वह तो फूल की सुगंध की भाँति सब ओर व्याप्त है। चन्दा जानती है कि एक बार उसकी अवहेलना हो चुकी है। वह कड़ी होकर एक बार अपने स्तुत्य को खो चुकी है। इसी से इस बार वह ज्वाला लेकर नहीं आयी है। वह तो सेवा भाव से, सहज में पा गये इस सरल से छोटे अवनि को लूट लेना चाहती है।’
(सन्तरे वाली)
‘राधे को भी यही लगा। उसके अन्दर अपने लिये बड़ा गुस्सा उमड़ने लगा। यह मनुष्य की करुणा भी कैसी कठोर है? यह भी बेमतलब अपने को किसी को देने नहीं देती। सभ्यता ने मनुष्य को अपने अन्दर कैसा दरिद्र और मरभुखी कर दिया है। बिना हिसाब किताब के अपना एक कन भी वह किसी पर खर्च नहीं करना चाहता। पर उस खर्च का मूल्य ही क्या, जिसका हिसाब हो? उस खर्च में मनुष्य खुलकर, खूब फैलकर अपने को कहाँ पा सकता है?’
(सभ्य)
वनमाली की कहानियों में स्थान स्थान पर आत्मालोचना के ये बिन्दु मिल जाते हैं जो कथा को अनुभूति की तीव्रता और गहराई प्रदान करते हैं।
कथा में वनमाली का दृष्टिकोण आधुनिक है और उनके पात्र अक्सर स्थापित मान्यताओं पर प्रश्न चिह्न खड़ा करते नजर आते हैं।
‘जिल्दसाज’ कहानी में जिल्दसाज के विचार देखिये,
‘खुदा? खुदा को वह क्या जानता है? कुल जमा अपनी दुकान से ही उसने जीने के लिये पूँजी पायी है। रोजगार, किताबें, कागज बस इन्हीं के बीच तो उसकी जिन्दगी के लम्बे-लम्बे बरस कटे हैं। उसने तो कभी नहीं महसूस किया कि इस जिन्दगी को चलाने के लिये खुदा की भी कहीं किसी तरह से जरूरत पड़ती है। तब खुदा क्या खाक मदद करेगा?’
‘पराया धन’ की सरला पूछती है,
‘क्या मेरे प्रेम, मेरी सेवा, मेरी मेहनत का कोई मूल्य नहीं है? क्या मैं छूंछी दासी हूँ? क्या अपनी ओर से मेरा कोई दावा ही नहीं है? क्या विवाह मात्र से पुरुष को स्त्री पर अधिकार मिल जाता है? इन सबके प्रतिकार के लिये क्या स्त्री का अपने ऊपर दावा भी तुम इन्कार करना चाहते हो?’
‘नौकर’ का नन्हें सवाल खड़े करता है,
‘साहब बेईमान मत कहिये। मैं नौकरी करने आया हूँ, अपनी इज्जत खोने नहीं। मेरी चुगली खाने की आदत नहीं। आप जब तब नाराजी में ऐरे-गैरे शब्द कहने लगते हैं, यह अच्छी बात नहीं।’
एक के बाद एक पात्र आते हैं और स्थापित मान्यताओं के खिलाफ, सत्ता के स्थापित ढांचों के खिलाफ, न्याय के पक्ष में अपनी आवाज उठाते हैं। वे आक्रामक नहीं हैं, तार्किक हैं। वे हमला नहीं करते, चेतना को बदलने की कोशिश करते हैं।
वनमाली जी की कहानियों के पात्र अक्सर उस वंचित तबके से आते हैं जिसे समाज ने सम्मानजनक ढंग से जीवन-यापन करने का अवसर नहीं दिया। वे अपनी जिजीविषा का प्रदर्शन भी करते हैं और कभी-कभी समाज से हार भी जाते हैं। पात्रों का चयन उनके यहाँ बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है। वह ‘जिल्दसाज’ का जिल्दसाज हो या ‘सन्तरेवाली’ की चम्पा, ‘सभ्य’ का भिखारी हो या ‘माँझी’ का मछुआरा, ‘छोटी जात’ की सुखनी हो या ‘भैंसागाड़ी’ का गाड़ीवान- वे सब अपने सामाजिक दृष्टिकोण के साथ कहानी में आते हैं और पाठक की सहानुभूति पाते हैं। कहानियों के मध्यवर्गीय पात्रों का दोमुँहापन बार-बार झलक जाता है जो उनके वर्ग-चरित्र को परिभाषित भी करता है। अचानक बीच बहस में से भारतीय समाज का पारम्परिक ज्ञान निकल आता है जो वनमाली जी की ज्ञान-विज्ञान की भारतीय परम्परा की समृद्ध समझ के कारण ही है।
वनमाली जी के स्त्री-पात्र प्रेम और रस से भरे हुए हैं, लेकिन अपनी मर्यादा के भीतर। शारीरिक होने के लिए उन्हें अभी जैनेन्द्र का इन्तजार करना होगा। लेकिन स्त्री-मन के भावनात्मक उतार-चढ़ाव को वे बड़ी खूबी के साथ पकड़ते हैं। ‘सन्तरेवाली’ की चम्पा की हॉस्टल के छात्र अवनि के साथ प्रेम-भरी चुहल, नवीन और उसकी पत्नी शरद के बीच एक रात की कथा, ‘काकी’ में काकी का मान-अभिमान, ‘स्वामी’ में कामिनी की प्यार की आकांक्षा, ‘पराया धन’ में सरला की बेचारगी और विद्रोह, ‘भूली बातें’ की कनक के दिल में छुपी प्रथम प्रेम की याद, ‘प्यार की बात’ की आधुनिका प्रमिला का उन्मुक्त प्रेम, ‘शहर’ की रहस्यमयी नारी विनोदमयी, ‘घर’ कहानी की घर-बार में उलझी पत्नी, ‘छोटी जात’ की सुखनी, ‘साँझबेला’ की प्रौढ़ा नायिका पार्वती और ‘एक औरत’ की चम्पा में स्त्री के इतने रूप वनमाली जी प्रस्तुत करते हैं कि उनकी विविधता और स्त्री-मन पर उनकी पकड़ पर आश्चर्य होने लगता है। उनकी स्त्री, पुरुष से कहीं कमजोर नहीं पड़ती। उसकी बौद्धिक चेतना अपने पुरुष से कहीं आगे नजर आती है। ‘साँझबेला’ की पार्वती हमें श्रीश बाबू से कहीं अधिक परिपक्व नजर आती है, ‘शहर’ की विनोदमयी में बंगाली नायिका का तेज दिखता है, ‘सन्तरेवाली’ की चम्पा कथा-नायक अवनि से कहीं आगे खड़ी प्रतीत होती है।
जो है, उसे बदलने की बेचैनी उनके पात्रों में बराबर नजर आती है। ‘रेल का डिब्बा’ कहानी एक ऐसा रूपक बनाती है, जिसमें विस्थापित मजदूर की व्यथा और समाज के द्वारा उस पर हो रहा अन्याय साफ झलक जाता है। किसी तरह का दान उस मजदूर की स्थिति को नहीं बदल सकेगा। उसे तो समाज में अपनी पूरी-पूरी जगह चाहिए। वह पूछता है- ‘बाबूजी यह कम्बल मेरा कहाँ-कहाँ साथ देगा? मुझे तो अपने बीवी-बच्चों के लिए काम चाहिए।’ इसी कहानी में वे लेखों और भाषणों द्वारा वर्ग-संघर्ष और क्रान्ति किये जाने की भी मजम्मत करते हैं। ‘पराया धन’ की सरला सिर्फ अच्छे घर में विवाह किये जाने से सन्तुष्ट नहीं है। वह अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती है और चाहती है कि लड़कियों को खूब-खूब पढ़ाया जाए। ‘नौकर’ कहानी का नौकर अपनी सामाजिक स्थिति को जानता है, लेकिन वह अपने साहब की सामाजिक स्थिति को भी खूब पहचानता है और उन्हें अपनी हद में रहने की सलाह दे डालता है। अपनी तरह की कहानियों में वनमाली एक तरह के रेडिकल रिफॉर्म के पक्षधर दिखायी देते हैं।
अपनी कहानियों के पात्रों के साथ उन्हें अगाध सहानुभूति है। ‘सभ्य’, ‘परिस्थितियाँ’ और ‘एक दर्जा’ का भिखारी और उसके साथ की लड़की, ‘छोटी जात’ की सुखनी, ‘रेल का डिब्बा’ का मजदूर परिवार, ‘एक औरत’ की चम्पा- ऐसे ढेरों उदाहरण दिये जा सकते हैं जहाँ पात्रों के साथ लेखक पूरे प्रेम, करुणा और सहानुभूति के साथ खड़ा नजर आता है। उनकी बेहतरी, समाज में उनकी जगह लेखक की चिन्ता के केन्द्र में है। कहानी का अन्त अक्सर एक सवाल, एक विश्लेषण से होता है जो पाठकों को अपना पक्ष निर्धारित करने की चुनौती देता है।
यहाँ मैं एक बात जोर देकर कहना चाहूँगा कि समाज-सुधार या रेडिकल रिफॉर्म भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के मूल अन्तर्धारा की तरह प्रवाहित होता दिखता है और स्त्री-पुरुष समानता, साक्षरता तथा शिक्षा के प्रसार, हरिजन-आदिवासी एवं वंचित तबकों के लिए समाज में सम्मानित स्थान की लड़ाई, स्वतन्त्रता की लड़ाई के साथ-साथ चलती दिखायी देती है। वनमाली जी की कहानियों में इस लड़ाई की झलक साफ-साफ देखी जा सकती है।
कुछ कहानियों की भाव-भूमि एक ही है, लेकिन उनका अन्त अलग-अलग निष्कर्षों के साथ होता है, जैसे ‘सभ्य’, ‘परिस्थितियाँ’ या ‘एक दर्जा’ में। इस तरह के प्रयोग आगे चलकर उदय प्रकाश ने अपनी कहानियों में किये हैं। ‘दो आँखें’ या ‘प्यार की बात’ जैसी कहानियाँ हमें इसलिए चकित करती हैं क्योंकि उनकी प्रतिध्वनि हमें राज कपूर की फिल्म (आग), हबीब तनवीर के नाटक (देख रहे हैं नैन), धर्मवीर भारती के उपन्यास (गुनाहों का देवता) तथा अज्ञेय और निर्मल वर्मा की कहानियों में भी सुनायी देती है।
इस पर बात करने के लिए शायद एक अलग निबन्ध की जरूरत पड़े। यहाँ इतना कहना काफी होगा कि वनमाली अपनी कहानियों में एक ऐसा वैविध्यमय संसार बनाते हैं जो अपने समय और समाज को प्रतिबिम्बित करता है और आगे आने वाली प्रवृत्तियों की ओर इंगित करता है।
भाषा के माध्यम से वनमाली जी ऐसा बिम्ब विधान रचते हैं जो एक त्रिआयामी चित्र की भाँति हमारी आँखों के सामने खिंच जाता है। ये जीवन पर उनकी गहरी और मजबूत पकड़ का ही परिचायक है।
‘रेल का डिब्बा’ से एक चित्र देखिये,
‘आदमी एक सफेद बण्डी पहने था। उसकी धोती घुटनों तक पहुँचती थी और उसके सिर पर एक पुरानी मैली पगड़ी थी। उसकी जोरू, जो स्त्री से मादा ही अधिक दिखती थी, एक चौड़े लाल पाड़ की मोटी धोती पहने थी, जिसमें उसके तीनों नंग-धड़ंग बच्चे, ठण्ड से बचने के लिये बारी-बारी से छिपने की कोशिश कर रहे थे। सामान की जगह उनके पास बाँस की टोकरी थी और एक फटा बोरा, जिसमें उनके मैले-कुचौले चीथड़े से कपड़े ठूंस-ठूंस कर भरे थे, जिनसे दुर्गन्ध चली आ रही थी’
‘पराया धन’ की सरला के मकान का चित्र देखिये,
‘सरला से पहले मैंने उसकी ससुराल का पुराना मकान देखा। दीवालों की ईंटें गल गई थीं और कई सालों से पुताई न होने की वजह से जिनका चितकबरापन बड़ा अशोभन लग रहा था। मकान के हाते में कहीं ईंट रोड़ों का ढेर और कहीं कूड़ा-कचरा फैला था। चारों ओर गन्दगी और मनहूसियत छायी दीख रही थी। बैठक के कमरे का फर्श, जहाँ मैं एक खाट पर बैठा था, जहाँ तहाँ उखड़ा हुआ था। केवल मेरी खाट को छोड़, कमरे में न कोई फर्नीचर था, न कोई चित्र। सूना कमरा भाँय-भाँय-सा करता लगता था।’
‘परदेशी’ की नायिका का खिड़की पर खड़ा होना किसी को भी दुख से भर सकता है,
‘मेरे घर के नीचे सड़क थी। मैं रोज ढेर के ढेर लोगों को अपने घर के नीचे जाते देखती। भाँति-भाँति के लोग। फूल वाले, फेरी वाले, शीशी-बोतल वाले आवाज लगाते, चले जाते। कभी धूमिल संजा में गाड़ियों की कतार की कतार निकलती जिनमें दिनभर के थके-मांदे गाड़ीवान गाते हुए सामने से निकलकर आँखों की ओट हो जाते। अपने सामने जीवन की इस हलचल को देखकर मेरे मन पर भी सपने छा जाते और मैं विचार करती कि दुनिया की सारी व्यवस्था मेरे लिये ही क्यों गलत हो गयी है? क्यों मैं इस जगत के घनेपन के बीच अकेली और बेगानी हूँ? क्यों मेरे भीतर कोई रंगीन चित्र नहीं है, जिसे लेकर मैं जीने का रस पाऊँ?’
वनमाली जी का बिम्ब विधान फ्लैट या द्विआयामी नहीं है। उसमें फैलाव भी है और गहराई भी। उसके रंग कहीं कहीं चटक और गाढ़े हैं और कहीं-कहीं फीके और उदास। वह त्रि-आयामी है।
वनमाली जी के यहाँ हिन्दी और उर्दू को लेकर प्रगतिशील किस्म का शोर नहीं है। हिन्दी और उर्दू के बीच एक किस्म की पारस्परिकता है जो उस समय के अनेक कथाकारों में देखने में आती है। वे विशुद्ध हिन्दी की शब्दावली जैसे विकल, अनुभूति, अर्ध्य, व्याघात, अवलंबित, निरवलंब, निर्बोध, प्रतिरूप, अनुष्ठान, व्यवधान, केन्द्रीभूत, अकिंचन, घनीभूत, अभिसार, अप्रतिम, अपरिचय, अवहेलना, उन्माद, प्रवाह, आकुल, अवरोध, अनुलिप्त, अनुताप, सृजन, अभ्यासगत, अशोभन, संवेदना, स्थूल, आत्मनिवेदन, अनुनय, आलोकित, कृपण, अशक्य, गुंफन, अंधकार और व्यथित के साथ-साथ बिना किसी संकोच के रहम, पैबंद, खाविंद, नालिश, कैफियत, फजीहत, मेहरबानी, फरेब, जीदार, तजबीज, मंसूख, माकूफ, ताईद, फरियाद, नामोशी, मुख्तसर, रुख्सत, मुबारकबाद, मालगुजार, आबाद, जिल्लत, दरियाफ्त, चीजबस्त, बदगोई, तफरीह, इत्तला, दरख्वास्त, जैसे उर्दू के शब्दों का प्रयोग करते हैं और उनका यथास्थान प्रयोग भाषा की ताकत को बढ़ाता है।
अपने विवरण की ताकत को बढ़ाने के लिए वे एक और डिवाइस का उपयोग करते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वह उनकी भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, और वह है शब्द युग्मों का व्यापक प्रयोग। उनकी कहानियों में गुन-एहसान, बकते-झकते, चहल-पहल, माँग-जाँच, रंज-गम, साज-संवार, तर्क-वितर्क, गाली-गुफ्तार, लात-घूंसे, सिकुड़-सिमट, भीड़-भभ्भड़, दान-प्रतिदान, लेन-देन, जोर-जबरदस्ती, उत्तर-प्रतिउत्तर, लक्का-चोरी, हँसती-बोलती, मोल-भाव, लोट-पोट, भाव-ताव, खंड-खंड, टूक-टूक, बिखरी-बिखरी, स्वाह-संकला, कहनी-अनकहनी, मूक-अरूप, मान-संभ्रम, उमड़-घुमड़, रोज-बरोज, माया-मोह, पल्ली-पार, सदे-बदे, लल्लो-चप्पो, भूखी-नंगी, उथल-पुथल, फफक-फफक, दुबका-चोरी, काँपती-रिरियाती, मोह-ममता, दबी-मुंदी, अनुनय-विनय, हीला-हवाला, डूबता-उतराता, खातिर-तवाजह, हिसाब-किताब जैसे शब्द युग्म अनायास ही आते हैं और उनकी भाषा को ताकतवर बनाते हैं। कुछ शब्द युग्मों, जैसे लस्टम-पस्टम को तो वे ही हिन्दी में लाये थे। शब्द युग्मों के प्रयोग से कोई कथन किस तरह ज्यादा प्रभावशील हो सकता है वनमाली के वाक्य इसका ज्वलंत उदाहरण हैं।
अगर उपरोक्त दो बातों के साथ उनकी कहानी में आने वाले लोक भाषा के शब्दों पर भी गौर किया जाए तब हमें उनके भाषा पर अधिकार और कथा में पड़ने वाले उसके प्रभाव का पूरा अंदाज हो सकेगा। दुलखना, आनगाँव, तुफंगा, छलना, छिनभिंगी, फजीता, शीतलपाटी, नखतौरे तोड़ना, छूंछी, अधीर जी, बिराना, जुज्बी, उलभला लेना, हिलंदे, मरभुखी, बुरज, पदीलना, हितू, बिथरना, तिनगकर, हिजों करवाना, फारखती, पारसाल, दिक करना जैसे शब्द वनमाली जी की भाषा को अलग रंगत, अलग खुशबू प्रदान करते हैं।
कहानियों में कहावतों का प्रयोग इस रंगत को और बढ़ाता है। उनके पात्रों को कहावतों का प्रयोग करने से कोई गुरेज नहीं। वे उसी भारतीय समाज से आते हैं जिसमें पारम्परिक ज्ञान कहावतों के माध्यम से प्रगट होता है और जिनका प्रयोग करने से लेखक की प्रतिष्ठा घट नहीं जाती। उनके पात्रें के लिए घटनाएँ जी का जंजाल बन जाती हैं। उन्हें घर की लाज बचानी पड़ती है ऐसे कि किसी को कानों-कान खबर न हो। वे किसी को दाना डाल सकते हैं, किसी पर भार बन सकते हैं और अपने पैरों पर भी खड़े हो सकते हैं। पगड़ी उछालने, कर्ज काढ़ने और दर-दर की ठोकरें खाने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं। वे चोर से कह सकते हैं कि चोरी करो और साव से कि जागते रहो। उनकी जैसी मंशा वैसी दशा हो जाती है। वो बने बनाए काम पर पानी फेर सकते हैं। वे कभी जाल फेंकते हैं, कभी बंधी लकीर पर चलते हैं और कभी पल्ला पकड़ते हैं। लड़कियाँ पहाड़ हो जाती हैं, अँगूर खट्टे हो जाते हैं, होश ठिकाने आ जाते हैं या कि फाखता हो जाते हैं। मुँह लड़ाने वाले सीधे सोंठ हो जाते हैं। अच्छे अच्छों के करम फूट जाते हैं या वे दूध की मक्खी की तरह बाहर निकाल दिए जाते हैं। घर की छेरी की हुमहुमी बन्द कर दी जाती है। कांटे से कांटे निकाल दिए जाते हैं। अक्ल पर पत्थर पड़ जाते हैं और रस्सियाँ जल जाती हैं लेकिन उनकी ऐंठन नहीं जाती। खाने के लाले पड़ना, आग बुझाना, जी छिपाना या खाट से लगना तो आम बात है। कई उस्ताद लोग अँगुली पकड़कर पहुँचा पकड़ने की कोशिश में लगे रहते हैं लेकिन कभी-कभी डूबते को तिनके का सहारा भी नहीं मिलता। इसलिए बिसमिल्लाह मैंने अर्ज किया है, ये वनमाली जी की भाषा है, इसे जरा गौर से देखिए।
वैसे तो वनमाली की कहानियों में व्यंग्य की एक अन्तरधारा सदा प्रवाहित होती रहती है, एक छुपी-सी क्षीण नदी की तरह, जो धरती के नीचे बहती रहती है, पर आगे चलकर उन्होंने व्यंग्य को ही अपनी केन्द्रीय विधा बनाया। उनके बहुत से प्रकाशित व्यंग्य लेख अब उपलब्ध नहीं, लेकिन ‘खरबूजे’ और ‘डालडा’ को मैंने यहाँ एक प्रवृत्ति के रूप में शामिल किया है। आजादी के बाद का कुछ समय भले ही आदर्शवाद और नवनिर्माण के जज्बे से ओतप्रोत रहा हो, जल्दी ही देश में उन प्रवृत्तियों ने घर कर लिया जो समाज और व्यक्ति के हित में नहीं थीं। साठ और सत्तर के दशक को नेहरूवादी विकास से मोहभंग का दशक माना जाता है। भ्रष्टाचार तब हर क्षेत्र में तेजी से जड़ जमाने लगा था। ‘खरबूजे’ और ‘डालडा’ उसी प्रवृत्ति को उघाड़ते हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘इबारत छोटी लेकिन सवाल मुश्किल है’।
उपभोक्तावादी समाज में विज्ञापन ही सबकुछ हो जायेगा और विज्ञापन के बल पर कुछ भी बेचा जा सकेगा, ऐसी हमारे आज के समय की आहट, ‘डालडा’ में मिलती है-
‘विज्ञापन था- डालडा हमेशा ताजा और शुद्ध होता है। इसमें गुण भी अधिक होते हैं। समझदार महिलाएँ यह जानती हैं कि डालडा स्वास्थ्यकारी विटामिन ‘ए’ का उतना ही अच्छा जरिया है जितना कि घी। मैं दो-तीन बार विज्ञापन को पढ़ गया और मैंने सोचा- लो, प्रचार के बल पर डालडा घी बन गया।’
‘जनता की सरकार’ में तिनका मोची से पूछता है-
‘क्यों भाई तेरी वह मर्जी थी या मजबूरी? मगर तिनके को क्या मालूम कि आदमी ने ‘जनता की सरकार’ नामक जो संस्था कायम की है उसकी जबान में मजबूरी के माने होते हैं मर्जी’।
‘कम्यूनिस्ट’ नामक व्यंग्य में सवाल पूछने वाले, अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले को कम्युनिस्ट घोषित कर दिया जाता है। मन्त्री के आगमन पर मातहतों की हरकतें लेखक को किसी ‘रामलीला’ की तरह लगती हैं। हम्मालों के सरदार को ‘स्वराज्य’ की परिभाषा समझ नहीं आती और वह कहता है- हम राजा नहीं हैं।
अपने व्यंग्य लेखों में वनमाली अपनी धारदार शैली में अपने समय की विडंबनाओं को परत दर परत खोलते जाते हैं। उनकी इस संवाद शैली को आगे चलकर कई व्यंग्यकारों ने अपनाया।
यूँ उनकी कहानियों से गुजरते हुए मैं उनके और निकट पहुँचता हूँ। उनके मन को पहचान पाता हूँ। उनकी भाषा, उनके विचार और उनके समय को पहचान पाता हूँ। अब उनकी कहानियों में कभी अम्मा, कभी बुआ, कभी बहनें, कभी पंडित जी और कभी शीतल भाई झलक जाते हैं। अचानक मैं देखता हूँ कि मेरे पहले उपन्यास में मेरा अपना बचपन, खंडवा और दादा कैसे चुपचाप प्रवेश कर गये थे, कि मेरी कहानी ‘बीच प्रेम में गाँधी’ की भाव-भूमि पचास साल की दूरी के बाद भी उनकी ‘पति’ कहानी के बहुत निकट है, कि ‘रामकुमार के जीवन का एक दिन’ का क्राफ्ट एक हद तक ‘घर’ के क्राफ्ट के आसपास पहुँचता है, और मैं मन ही मन मुस्कराता हूँ।
अचानक मैं पाता हूँ कि कहानी का रास्ता कोई सपाट रास्ता नहीं, जैसा कि उन्होंने कहा था। वह स्मृति से स्मृति में, मन से मन में और समय से समय में प्रवेश कर जाने वाला रास्ता है। कभी टेढ़ा-मेढ़ा, कभी घुमावदार, कभी पहाड़ों और कन्दराओं से गुजरता और कभी मैदान में सरपट भागता।
मैं देखता हूँ कि मेरी कहानी का रास्ता उनकी कहानियों से होकर जाता है और उस पर चलते हुए वे अक्सर मेरे साथ होते हैं।
शायद मेरे भीतर!
संतोष चौबे
मो.: 9826256733
ई–मेल: choubey@aisect.org
66.In Memory of My Father-shri Rajendra Yadav “पापा के नॉन-पापा-पन की बात” -रचना यादव /