7. My Mother Dhapu Bai Bhandari: “रोज सुबह दुकान पर बैठे नईदुनिया अखबार पढ़ना जीजी की दिनचर्या का प्रमुख हिस्सा रहा”हंसा दीप

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एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति:”मेरी माँ “- 

माँ एक अद्भुत और अद्वितीय व्यक्ति है जो हर किसी के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।   ‘मेरी माँ ‘श्रृंखला के माध्यम से हम अपनी माँ के प्रति अपना  सम्मान ,अपनी संवेदना प्रकट कर सकते हैं. आज इस श्रृंखला में हम  याद कर रहे हैं मध्यप्रदेश की बेटी और यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार, कथाकार हंसा दीप की माँ धापूबाई भंडारी को।  चौथी क्लास तक पढ़ी एक ग्रामीण स्त्री कैसे खेरची अनाज की दुकान का काम, हिसाब-किताब सँभालती थीं।और उन्हा शगल था रोज सुभ अख़बार पढ़ना। माँ के लोक गीतों से  से गूँजता घर का माहौल कैसे उनकी बेटी हंसा में प्रवाहित हो गया और एक दिन वही गीत उनके कैरियर का एक और उच्च मुकाम बने पढिये आप कनाडा से भेजा हुआ हंसा दीप का यह संस्मरण ,और याद आया एक लोक गीत- 

‘काहे को व्याही विदेशी रे बाबुल मोरे
हम तो बाबूल तोरे अंगने की चिडिया
भोर होते उड ज़ाए रे बाबुल मोरे।
विरन को दीनी महल अटरिया
हमको दीनी परदेस रे बाबुल मोरे।’

7.My Mother Dhapu Bai Bhandari: “रोज सुबह दुकान पर बैठे नईदुनिया अखबार पढ़ना जीजी की दिनचर्या का प्रमुख हिस्सा रहा’ हंसा दीप

हंसा दीप 

जीजी (माँ) श्रीमती धापूबाई भंडारी को गए बरसों हो गए। समय के चक्र को पूरा करने उन्हें जाना ही था। मुझे याद नहीं, उनके जाने के महीने भर बाद से अब तक उनकी याद में मैंने एक भी आँसू बहाया हो। हाँ, आँसू की जगह मुस्कुराहट होती, यह देखकर कि मैं बिल्कुल उनके जैसी होती जा रही थी। वो मुझे छोड़कर गई ही नहीं, यहीं रहीं। सारी चेतावनियाँ, हिदायतें, डाँट-फटकार। फिर पुचकारती आवाज। सब कुछ मुझ में समा गए। जीजी वहीं रहीं, मेरे आसपास। मेरे साथ। मेरे भीतर।
वह लाड़-दुलार जब स्कूल में परीक्षा से पहले कहती थीं- “सो जा, तुझे सब आता है। इतना पढ़ने की क्या जरूरत।” और मैं गुस्सा करते हुए बगैर प्रतिवाद के सो जाती थी। अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण होने पर जीजी कहतीं- “देखा, कहती थी न, तुझे सब आता है। कभी रात माथे लेकर मत पढ़ना।”

आज तक वे शब्द गहरे पैठे हुए हैं। बरसों हो गए, कभी दस बजे के बाद पढ़ने-लिखने का कोई काम नहीं किया। अपनी दोनों बेटियों को और उनके बच्चों को भी दस बजे सोने जाते हुए देखकर जीजी के बोए वे बीज अंकुरित नजर आते हैं।
कई बार जीजी की टोका-टाकी से परेशान होकर खीजकर कहती थी मैं- “आपको कुछ पता नहीं।” उन्हें इगनोर भी करती। जीजी के चेहरे पर वही जानी-पहचानी मुस्कुराहट होती। तब कहाँ जानती थी कि इस मुस्कान के क्या अर्थ हैं।
शादी के बाद एक और माँ थीं, सासूमाँ जिनके साए में पति देव की शिकायत करके प्यार पाने का सुकून मिलता था। उन दिनों दो माँओं की छत्रछाया में मैं हर थपेड़े से सुरक्षित रही।

मेरे भीतर की नन्हीं बच्ची के माँ बनते ही वो सब प्रत्यक्षत: सामने आने लगा। माहौल बदला, परिवेश बदला। अपनी बाँहों में भरने के लिए मेरे पास कोई था। मेरी बिटिया, परी सी, छुई-मुई सी। बच्चों को बनाने-बढ़ाने-बिगाड़ने के वे सारे गुण मुझमें आ गए थे जो जीजी ने मुझमें रोप दिए थे।

मुझे गाना कभी अच्छा नहीं लगा। लेकिन जीजी बहुत गाती थीं। लोकगीतों की सुरीली आवाज से गूँजता घर का माहौल। साथ ही पूरे गाँव में उनके लोकगीतों की उपस्थिति के बगैर कोई कार्यक्रम नहीं होता। कालांतर में अनायास ही लोकगीतों पर पीएचडी करते हुए मैंने महसूस किया कि ये मैं नहीं हूँ, जीजी का वह शौक है जो एकाएक मेरे भीतर से प्रस्फुटित हुआ। जीजी की वह विरासत जिसे अनायास ही मैंने तीन सालों की अथक मेहनत से करियर की एक पायदान ऊपर कदम रखा था। उन तमाम लोकगीतों को अपने भीतर बजते हुए पाया था। हर गीत के हर शब्द का मलतब और अर्थ दोहराया था। जीजी की विरासत को अनजाने ही आगे बढ़ाने का वह सुख रोमांचित करता है।

जीजी चौथी क्लास तक पढ़ पाई थीं। आज से साठ साल पहले हमारे गाँव में लड़की की इतनी पढ़ाई भी बहुत मानी जाती थी। जीजी को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था। खेरची अनाज की दुकान का काम, हिसाब-किताब वे ही सँभालती थीं। दासाहब (पिताजी) सारा बाजार का काम करते थे। दुकान पर बैठे रोज सुबह मध्यप्रदेश राज्य का प्रमुख अखबार नईदुनिया पढ़ना जीजी की दिनचर्या का प्रमुख हिस्सा था। उनका रोज अखबार पढ़ना और प्रमुख खबरों के बारे में हम बच्चों को बताना, मुझे आज भी याद है। मैं कहीं भी रहूँ, मुझे भी अखबार पढ़े बगैर चैन नहीं मिलता। चाहे वेब पर पढ़ूँ, और मैं भी अनजाने ही अपने बच्चों के व्यस्त समय के चलते उन्हें खास खबरें जरूर बताती हूँ। ऐसी कई छोटी-छोटी बातें जो अनायास ही बीजारोपण से लेकर फसल उगने तक की कहानी दोहरा जाती हैं।

यूँ बरस दर बरस माँ शब्द को परिभाषित करते आज नानी का रोल निभा रही हूँ। हर लगाव, टोका-टाकी, हिदायतें, चेतावनियाँ दोगुनी हो गयीं। माँ की माँ। दोहरा ममत्व। जो कुछ माँ न दे, वह नानी से मिल जाएगा। बच्चों के माथे पर और उनके बच्चों के माथे पर, एक शिकन भी कितनी तकलीफ देती है, मुझसे अच्छी तरह कौन जानता है!
माँ से नानी तक, प्यार कितना गुणित हो जाता होगा इस बात का अहसास जब मुझे होने लगा तब मैं समझ पायी कि बचपन में जो मैं जीजी को इग्नोर करने का नाटक करती थी वह वास्तव में सब कुछ अंदर तक पहुँचने का संदेश था। इस बात को वे अच्छी तरह जानती थीं।
बेटी-बहू-माँ और नानी का रोल निभाते हुए आज भी अगर परेशानी में कुछ याद आता है तो वह है माँ के कहे गए शब्द- “तुमको सब आता है।” इन्हीं शब्दों की ताकत ने देश-विदेश, अध्ययन-अध्यापन-लेखन, हर कहीं, बेखौफ अंदाज में जीना सिखाया। आगे बढ़ना सिखाया। वह पल्लू मेरे इर्द-गिर्द है जिसे पकड़ कर मैं स्वयं को आज भी सुरक्षित महसूस करती हूँ।
सालों बाद भी वे सारी बातें वैसी की वैसी सामने होती हैं जैसी बचपन में थीं, शायद उससे भी कहीं ज़्यादा। माँएँ कभी जातीं नहीं, अपना अंश छोड़कर जाती हैं। विरासत को आगे बढ़ाने। जीजी चली भी गयीं तो क्या, मुझमें खुद को छोड़ कर गयी हैं।
मैं अपनी जीजी का अक्स हूँ।

hansa deep
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संक्षिप्त परिचय
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक।मेघनगर (जिला झाबुआ, मध्यप्रदेश) में  जन्म। लोक साहित्य पर पुस्तक, चार उपन्यास एवं आठ कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी, बांग्ला, अंग्रेजी, उर्दू, तमिल एवं पंजाबी में पुस्तकों व रचनाओं का अनुवाद। हंस, वनमाली, वागर्थ, भाषा, कथादेश, नया ज्ञानोदय, पाखी आदि कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। राष्ट्रीय निर्मल वर्मा सम्मान।

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