In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता
पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला- मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। इसकी आठवीं क़िस्त मे देश की जानी-मानी साहित्यकार सुषमा मुनीन्द्र हमारे साथ हैं. उनके पिता जिला एवं सत्र न्यायाधीश जैसे वरिष्ठ और सम्मानित पद पर रहे। एक वरिष्ठ साहित्यकार कथाकार की शैली और भाषा भी बहती हुई भावों की नदी ही होती है –सतत प्रवाहित इस धार में नैहर के वो धूप–छॉंव के दिन याद करते हुए वे अपने पिता को और उनसे मिले संस्कारों की स्मृतियों की उस धूप छाँव में हमें भी ले जा रही हैं ,पिता के उस न भूलने वाले आँगन में-
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश
जे बाबुल घर आपना मैं पीया के देश
बाबुल मोरा ...
वाजिद अली शाह
8.In Memory of My Father : कैसे भूलूं ‘वो धूप-छॉंव के दिन’
– सुषमा मुनीन्द्र
आज याद नहीं वह कौन सा दिन था, कौन सी तारीख पर याद है वह 1994 का जनवरी माह था जब भाई फोन पर था – ‘’बाबूजी को लखनऊ से लेकर लौट आये हैं। वहॉं के डॉंक्टरों ने जवाब दे दिया। परिजनों की किडनी ट्रान्सप्लान्ट की जा सकती है पर बाबू जी अपने बच्चों की किडनी लेने को तैयार नहीं हैं। ……… आजकल में उन्हें यहॉं के अस्पताल में भर्ती कराना है। बाबूजी तुम्हें पूछ रहे थे। आ जाना ……….।‘’
तब फोन कॉल आज की तरह सेकण्डों में नहीं लगते थे। एस0टी0डी0 लाइन के लिये कोशिश करते हुये घण्टों लग जाते थे तब बात हो पाती थी। पितृ गृह से किसी सदस्य का फोन आता था तो पूरा दिन एक किस्म की खुमारी और खुशी में बीतता था पर भाई का डूबता स्वर अनिष्ट की भीति जगा रहा था। खिंचड़ी केश, चश्मे, जनेऊ, पंचा (लुंगी की तरह का लट्ठे का वस्त्र) पहने हुये बाबू जी की नितांत आम सी छवि सामने उभर आई थी। ‘जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये’ के समर्थक परम संतोषी बाबू जी की अंतिम नियति अस्पताल का बिस्तर बनेगी सोच कर दिल भर आया था।
वैसे बाबू जी को पूरी तरह स्वस्थ हमने कभी नहीं देखा। उच्च रक्तचाप, रीढ़ में दर्द, सर्दी – जुकाम, गर्मियों में उभर आता पैरों का उकमत (एग्जिमा)। यह जरूर था वे कचहरी जाना तभी स्थगित करते थे जब चिकित्सक बेड रेस्ट के लिये बाध्य कर देते थे। अम्मा कहती थीं ‘’दाई (दादी) ने तुम्हारे बाबू जी को नींबू तक कभी खाने नहीं दिया कि जुकाम हो जायेगा। रेजिस्टेन्स पावर नहीं है। बीमार तो पड़ेंगे ही।‘’
‘’दाई क्या करती ? चौदह भाई – बहनों में सिर्फ मैं बचा। पालन – पोषण में इतनी सतर्कता बरती गई तो अचरज क्या ?’’ बाबू जी स्थिति स्पष्ट करते।
और सारी सतर्कता – सावधानी निष्फल होने को थी।
मैं रीवा पहुँची तो मेरी चारों बहनें जो संयोगवश रीवा में रहती हैं घर में उपस्थित थीं। दोनों भाई बाबू जी के साथ रहते थे और बेटों के सानिध्य में बाबू जी के आखिरी बरस अच्छे गुजर रहे थे।
‘’कैसे हैं बाबू जी ?’’ मैंने पूछा था।
‘’अपने कमरे में हैं।‘’ अम्मा ने यह उत्तर दिया था।
इस तरह दिन दहाड़े बाबू जी का कमरे में होना अस्वाभाविक लगा था। वे ऑंगन, दालान, छत, अटारी कहीं भी हो सकते थे पर कमरे में सोने के समय ही हुआ करते थे। बाबू जी के बिस्तर में मसहरी तनी थी। एक ओर कुर्सी में बड़े मामा बैठे थे जिनकी प्राय: आधी जिंदगी हमारे घर में रहते हुये बीती।
‘’आ गई ? दिन में भी मच्छर मंडराते हैं तो तुम्हारी अम्मा ने मुझे मसहरी में कैद कर रखा है। चलो, मसहरी ऊपर टॉंग दो।‘’
मसहरी उठाते हुये मैं स्याह हो गई थी। ठीक सामने बाबू जी। चेहरे की सूजन उनके चेहरे को पहले की अपेक्षा सुडौल बना रही थी, ऑंखों के आस – पास की महीन सलवटें जिनके कारण वे तनाव में दिखते थे, कुछ कम दिख रही थीं पर बाबू जी का चेहरा उनके पैंसठ वर्षीय जीवन में इतना स्याह और बुझा हुआ कभी नहीं रहा। चेहरे में तॉंबई रंगत और झॉंइयॉं थीं पर उस दिन तो ………..।
अम्मा, बाबू जी को झॉंइयों में कच्चा दूध लगाने की सलाह दिया करती थीं। बाबू जी हँस देते, ‘’जो सुंदर न हो वह दूध लीप – पोत कर सुंदर बने, मैं तो अच्छा खासा हूँ।‘’
अम्मा तुनक जातीं।
आज सोचती हूँ पिता सुंदर या असुंदर नहीं वरन अच्छे या बुरे होते हैं। बाबू जी हमें बहुत अच्छे लगते थे, अपचकारी थी उनकी धुर ईमानदारी और कट्टर सिद्धान्तप्रियता।
अम्मा तुनक कर आगे कहतीं, ‘’बाबू जी का चेहरा पहले साफ था। परेशानियों के बुरे प्रभाव से सँवला गया है। पॉंच लड़कियॉं इस ईमानदारी में कैसे पार होंगी यह चिंता इन्हें लीले जाती है। वरना ऐसे दुबले – पतले इंसान को हाई ब्लड प्रेशर होना चाहिये ?’’
‘’बच्चों के सामने ऐसी बातें की जाती हैं ? सब अपना भाग्य लेकर आई हैं।‘’
जिला एवं सत्र न्यायाधीश जैसे ऊँचे पद पर आरूढ़ व्यक्ति के साथ जुड़ी इस तरह की चिंतायें और परेशानियॉं सुनने में अविश्वसनीय लग सकती हैं पर मजिस्ट्रेट के आरम्भिक पद से आरम्भ की गई ईमानदार जिंदगी ऐसी ही होती है। प्रोन्नति हुई तो मँहगाई, खर्च, परिवार, दायित्व दुगनी गति से बढ़ते गये। झुकी कमर वाली दाई, नेत्रहीन बाबा, बाबा के नि:संतान छोटे भाई कक्का, काकी के लिये रीवा (पैतृक नगर) पैसे भेजना होता था। सार जैसे कच्चे घर की मरम्मत के नाम पर कक्का, बाबू जी से पैसे ऐंठते रहे और भॉंग और जुये की महफिल सजाते रहे। पॉंच लड़कियों को ठौर – ठिकाने लगाने के लिये आवश्यक बचत। अम्मा ठीक कहती थीं चिंता और तनाव ने बाबू जी की रंगत बिगाड़ दी थी।
अम्मा का संताप सुन बड़ी बहन, मझली बहन से कहती ‘’दाई के इतने बच्चे मरे। हममें से एक – दो बहनें मर जायें तो बाबू जी को चिंता कम जो जाये।‘’
मझली बहन विरोध करती ‘’हम क्यों मरें ? मैं इसलिये पैदा नहीं हुई कि मर जाऊँ ?’’
‘’इस बार भाई हो जाये तो अच्छा हो।‘’ बड़ी बहन शायद समझती थी दाई – बाबा को वंशधर की प्रतीक्षा है।
बड़ी बहन से आठ वर्ष छोटी मैं, आशय ठीक – ठीक नहीं समझती थी पर कुछ समझ लेती थी। शेष दोनों बहनें बहुत छोटी थीं इसलिये बेफिक्र भी कि वे दोनों भी बाबू जी के तनाव का कारण हैं।
बाबू जी कहने लगे ‘’अच्छा हुआ तुम आ गई। बाकी लड़कियॉं तो यहीं रहती हैं। समय निकाल कर आ जाती हैं। घर में सब ठीक है न ?’’
‘’हॉं, आपके लिये सभी चिंतित हैं।‘’
‘’मैं तो अच्छा खासा हूँ। क्या कहूँ इन दोनों लड़कों और डॉंक्टरों को। डॉंक्टरों ने कहा गुर्दे खराब हैं, लखनऊ ले जाओ, ये लड़के लेकर चल दिये। फूँक डाला इतना पैसा। चलो लखनऊ नहीं देखा था तो देख लिया। नवाबों का शहर। तहजीब वाला ………..। बहुत देर से लेटा हूँ।‘’ कह कर बाबू जी अचानक उठे और उस आयताकार कक्ष में टहलने लगे।
उनका टहलना मुझे हरदम बेचैनी भरा लगता था। रात का खाना खाकर जब वे कम्पाउण्ड में टहलते थे तब मुझे लगता था वे बेचैन हैं और कुछ सोच रहे हैं। मैं बड़ी बहन से पूछती थी –
‘’बाबू जी टहलते हुये क्या सोचते हैं ?’’
‘’कल किसी को फॉंसी की सजा सुनाने वाले होंगे। वही सोच रहे होंगे।‘’
फॉंसी शब्द मुझे डराता था। फॉंसी अर्थात मृत्यु। तो बाबू जी के अचानक इस तरह टहलने का प्रयोजन ? अवसान की कल्पना तो बेचैन नहीं कर रही थी ?
बाबू जी, अस्पताल जाने के लिये घर से निकल रहे थे। पैरों में सूजन और डगमगाते छोटे – छोटे कदम। वे अपने इस पैतृक घर को बार – बार निहार रहे थे। सहसा बरामदे में पड़े दीवान पर बैठ गये। मेरे भाई श्रीनाथ से बोले ‘’बेटा, तुमने घर को सुधरवा कर पितृ ऋण चुका दिया है। यह घर मुझे प्रिय है, भले ही मैं कभी इसकी मरम्मत नहीं करा सका।‘’
‘’बाबू जी, आपसे जो हो सका आपने किया।‘’ बाबू जी की आधी उम्र से भी छोटा श्रीनाथ उन्हें बुजुर्ग की तरह समझता – सम्भालता था।
‘’कभी – कभी लगता है मैं पिता धर्म भली प्रकार नहीं निभा सका। मुझे तो फिर भी ईमानदार होने का सम्मान और संतोष मिला पर तुम लोगों को वह सुख सुविधा नहीं मिली जो मिलनी चाहिये थी।‘’
‘’सब ठीक था। चलिये बाबू जी।‘’ सबसे छोटे भाई गुड्डू ने उन्हें थाम लिया था।
सेवानिवृत्ति पर बड़े बँगले से निकल कर इस पैतृक घर में आकर अम्मा निराश थीं –
‘’आफीसरों ने बिल्डिगें बनवा लीं और हमारे पास एक ठीक – ठाक घर नहीं है। कक्का पर भरोसा कर पैसा भेजते रहे कि मरम्मत करवा देंगे, नल – बिजली लगवा देंगे। नल, बिजली ही दिख रही है, बस। पैसा भॉंग, जुए में गँवा दिया। और लो जिंदगी बीतने को आई।‘’
‘’श्री नाथ सहायक प्राध्यापक हो गया है। घर ठीक करा देगा।‘’
और उस दिन घर से निकलते हुये अब घर लौटना होगा कि नहीं के अनिश्चय में ठहरते हुये बाबू जी ने सोचा तो होगा सुख – वैभव भोगा नहीं, आराम – चैन जाना नहीं और सचमुच जिंदगी बीत चली।
बाबू जी गॉंधी मेमोरियल शासकीय चिकित्सालय में दाखिल हुए। मेडिकल कॉलेज होने से अस्पताल में तमाम सुविधाओं के साथ डायलिसिस की सुविधा भी थी।
‘’चिकित्सक ने पूछा था ‘’पाण्डेश् जी, आप कैसे हैं ?’’
‘’बहुत बढि़या।‘’ बाबू जी मुस्कुराये थे।
इस चिरंतन मुस्कान की आड़ में इसी तरह सफलतापूर्वक अपने तनाव, अवसाद, विषाद छिपाते रहे हैं।
रूम से बाहर आकर चिकित्सक मेरे चिकित्सक बहनोई से कहने लगे, ‘’पाण्डेय जी जानते हैं लखनऊ के नेफ्रोलॉजी विभाग के विशेषज्ञों ने जवाब दे दिया है, जानते हैं डायलिसिस की तैयारी है और कहते हैं बहुत बढि़या। ऐसा जीवट का आदमी नहीं देखा।‘’
उस जीवट के आदमी के पैरों की धमनियों में दो मोटी सुइयॉं लगी हुई थीं। एक से यूरिया मिश्रित अशुद्ध रक्त निकल रहा था दूसरी से परिशोधित रक्त प्रविष्ट हो रहा था। एक ऊँचे पद की गरिमा के साथ रहने वाले बाबू जी को सुइयों और नलियों के बीच देखना हम लोगों के भीतर पराजय का सा भाव भरने लगा था। हम लोग
मौन हो गये थे। बातें सूझती नहीं थीं जबकि बाबू जी को देखने बहुत लोग आते थे और हम लोगों को बोलना पड़ता था।
बाबू जी को एलॉट हुये रूम में आकर गिरिजा चाचा पूछने लगे ‘’अरे ……… जज साहब कहॉं हैं ?’’
‘’उन्हें डायलिसिस के लिये ले गये हैं।‘’ गुड्डू ने बताया।
पड़ोसी होने का लाभ ले वे कुछ तल्ख बातें कर बैठे थे, ‘’बताओ, तुम्हारे बाबू जी उम्र में हमसे आठ – दस साल छोटे हैं। उनकी यह दशा। खाने में कंजूसी, पहनने में कंजूसी। पॉंच लड़कियों का बोझ। ईमानदारी में लड़कियॉं कैसे बरी – बियाहीं वे ही जानते होंगे। घुटन आदमी को जीने देती है ?’’
बात को घूम फिर कर पॉंच लड़कियों पर अटकते हुये तब से देख रही हूँ जबसे बात को समझने की तमीज आने लगी थी। हम सभी बहनें अपनी दुनिया में खुश हैं पर पॉंच लड़कियों को ठिकाने लगाना वह भी इस ईमानदारी में। पाण्डेय जी आपको तो भगवान का सहारा है। बार – बार सुना है।
अम्मा बताती हैं जीजी (बड़ी बहन) को छोड़ कर सभी लड़कियों के जन्म पर दाई अररा कर रोती थीं और नेत्रहीन बाबा रिसा कर लाठी टेकते हुये गाय की सार में जाकर बैठ जाते थे कि यह घर रहने लायक नहीं रहा। अम्मा निपूती घोषित कर दी गईं। श्री नाथ ने अम्मा को पूत वाली बनाया। वंश बेलि ने कल्ले फोड़े पर परिवार इतना बढ़ गया कि आय – व्यय और बचत की गणित में उलझे बाबू जी कृपण होते चले गये।
गिरिजा चाचा की नसीहतें जारी थीं ‘’जज साहब तीस – पैंतीस के थे तब से कर्म काण्ड कर रहे हैं। बाबा, फिर दाई, काकी अभी कुछ साल पहले कक्का का। श्री नाथ तुम तो शायद तीस के भी नहीं हो। और तुम्हें ……।‘’ श्री नाथ घबरा गया था ‘’चाचा, यह समय ईश्वर को याद करने का है।‘’
डायलिसिस के बाद बाबू जी कुछ स्वस्थ महसूस कर रहे थे। शुद्ध रक्त की ताकत कुछ और होती है। पर उस रक्त को तो प्रतिक्षण अशुद्ध होते जाना था। बाबू जी ने मामा से पूछा –
‘’और सुनाइये शुकुल जी। खेती – बाड़ी, बाल – बच्चे ठीक हैं न।‘’
मृत्यु शैय्या पर पड़े हुये बाबू जी की सबकी कुशल क्षेम पूछने की जिज्ञासा चकित कर रही थी।
‘’कुछ ठीक नहीं है जज साहब। चार लड़के पर सब बेवकूफ। अधिक पढ़े – लिखे होते तो कहीं नौकरी पकड़ डुड़हा (गॉंव) से टल जाते। चालीस एकड़ खेतिहर जमीन जो कभी बहुत थी, चार हिस्सों में बँट गई है। सब उसी में जूझते हैं। बहुयें, नाती – पोते इतने हो गये हैं कि घर में नहीं समाते। आपने भी तो किसी को नौकरी नहीं दिलवाई। कितना कहा।‘’
‘’शुकुल जी आपकी बात सुनकर लग रहा है अच्छा हुआ जो हमारे घर में इतने लड़के न हुये। लड़कियॉ अपने भाग्य का पा रही हैं। श्री नाथ कमाने लगा है। गुड्डू की पढ़ाई भी अच्छी चल रही है। आज सोचता हूँ मैं लड़कियों को अधिक स्नेह, अच्छा खाना – कपड़ा दे सकता था। इसी संकोच में रहा आया कैसे क्या होगा। वह आत्मीयता नहीं बरत पाया जो जरूरी थी। और लड़कियॉं जो था, जितना था उसी में संतोष करती रहीं। सब
अपना – अपना भाग्य लेकर आई हैं। सभी की शादी सरलता से हो गई और अच्छी हो गई।‘’ बाबू जी कमजोरी के कारण चुप हो गये थे या विगत त्रास दे रहा था।
‘’सोच न कीजिये। आपसे जो बना किया। लड़कियॉं आपकी परिस्थिति को समझती हैं।‘’ मामा, बाबू जी को पश्चाताप से बचा रहे थे।
मुझे याद है चार सपूतों के जनक मामा का दम्भ। डुड़हा में इनका चित्त न लगता था और नये – नये नगर देखने के बहाने ये हमारे घर आते और महीनों आसन जमाये रहते1 एक ही राग – ‘’जज साहब इन लड़कियों ने आपको तोड़ डाला है। झुराते – सूखते जा रहे हैं। मैं उम्र में आपसे बड़ा हूँ पर हृष्ट – पुष्ट हूँ। चार लड़के हैं, जिम्मेदारी कोई नहीं। आप तो जैसे – तैसे इन लड़कियों को निपटाते चलिये। बड़ी (जीजी) कॉलेज में आ गई है, कहें तो मैं कहीं बात चलाऊँ।‘’
‘’शुकुल जी, आप परेशान न हों। लड़कियों को कुछ दे सकूँ या नहीं, पढ़ने का पूरा – पूरा अवसर दूँगा। आगे उनका भाग्य।‘’
लड़कियों का भाग्य बनाते हुये प्रत्येक लड़की के विवाह में बाबू जी का जी0पी0एफ0 और अम्मा की साडि़यों वाली पेटी खाली होती रही। श्री नाथ को विरासत में मिला धसक रहे घर की रिपेयरिंग और गुड्डू की शिक्षा पूरी कराने का दायित्व।
रक्त में यूरिया का प्रतिशत बढ़ता जा रहा था। बाबू जी रूम से डायलिसिस कक्ष तक स्ट्रेचर में लाये – ले जाये जाते थे। असहायता की कोई सीमा नहीं होती। नमक पहले ही बंद था, अब खाना भी बंद। उपवास करने में वे दक्ष थे। सर्दी – जुकाम हो, सिर दर्द, हरारत, बढ़ा रक्तचाप, कार्यालयीन तनाव बाबू जी कचहरी से लौटते ही रात का खाना न खाने की घोषणा कर देते थे।
‘’आज लंघन करूँगा। एक लंघन सौ बीमारियों की दवा।‘’
मुझे तब भूख बहुत लगती थी। मैं सोचती थी मैं उपवास कभी नहीं करूँगी। भूख का क्या कीजियेगा ? बाबू जी अंतिम समय में थे और हम लोगों को भूख लगी थी। भूख से जुड़ी चीजों को याद किया जा रहा था।
छोटी बहन बोली थी, ‘’बाबू जी ठीक हो जायें तो मुगौड़ी बनायेंगे। उन्हें मुगौड़ी और कढ़ी पसंद है।‘’
‘’अभी एक दिन मुगौड़ी के लिये कह रहे थे पर ……..।‘’
अम्मा की बातें नमी में बिलाने लगी थीं।
बाबू जी नाग पंचमी, खिचड़ी (मकर संक्रॉंति), अक्ति जैसे छोटे त्योहारों का उल्लेख करना न भूलते थे –
‘’नाग पंचमी आ रही है, मुगौड़ी बना देना। बच्चे खा लेंगे।‘’
और किसी बच्चे का जन्म दिन हो तो फुलौरी वाली कढ़ी बन जाती। मुझे छोड़कर क्योंकि मैं पितृ पक्ष में जन्मी हूँ। पितृ पक्ष में कढ़ी नहीं बनाई जाती।
‘’दही जमा लेना, कढ़ी बनेगी। कल इस बच्चे की वर्षगॉंठ है।‘’
मुगौड़ी बन गई, हो गया त्योहार।
कढ़ी बन गई, हो गई वर्ष गॉंठ।
जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक के बच्चों की बर्थ डे पार्टी का धूम – धड़ाका देख हम लोगों को अपना जन्म दिन सबसे बुरा दिन लगता था। बाबू जी की ईमानदारी बहुत संताप देती थी। और जब दीपावली पर सेठों – व्यापारियों द्वारा लाये गये आतिशबाजी, मेवा – मिष्ठान के बड़े और सुंदर पैकेट बाबू जी लौटा देते तब वे हमें दुनिया के सबसे खराब व्यक्ति लगते थे। खुद को ईमानदार साबित करने के लिये बच्चों की हालत बिगाड़ दे रहे हैं। बाबू जी बच्चों का संताप भॉंप लेते थे। कहने लगते –
‘’त्योहार आ रहा है। अपनी अम्मा के साथ जाकर कपड़ा खरीद लाओ। समय से सिला लो। फुलझड़ी और टिकिया खरीद लेना। घर में रसगुल्ला, नमकीन बन जायेगा। खूब खा लेना।‘’
बाबू जी दिलासा देते थे पर वे दिलासे लौट गये सुंदर पैकेटों की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकते थे। एक बार यह हुआ। एक सज्जन दोपहर में बाबू जी की अनुपस्थिति में दो बड़े झोले भर कर उपहार सामग्री लाये और अम्मा के मना करने के बावजूद झोले छोड़ चले गये कि इस बँगले में मैं हर साल यह सब लेकर आता हूँ। बाबू जी उसी वर्ष तबादले में टीकमगढ़ पहुँचे थे और उन सज्जन को शायद बाबू जी के स्वभाव की जानकारी नहीं रही होगी। अम्मा उस सामग्री को देख कर दहशत में थीं। आरोप उन्हीं पर तय होता तुमने ठीक से मना नहीं किया होगा। मुझे याद है बाबू जी से पूरी तरह गुप्त रख कर ढेर मिढाई और मेवे खाये गये और आतिशबाजी बाबू जी की अनुपस्थिति में दोपहर में चलाई गई। रात में बाबू जी घर में होते थे अत: तब बड़े फटाके नहीं फोड़े जा सकते थे। पड़ोस में रहने वाले बड़े इंजीनियर का इकलौता लड़का खूब हँसता था – तुम लोग बेवकूफ हो, फटाके रात को नहीं दोपहर में फोड़ते हो।
अम्मा तब हम लोगों को अक्सर समझाती थीं ‘’किसी की चीज का आसरा नहीं करना चाहिये। मिठाई – मेवा लौटा दिया गया, ठीक ही हुआ। यह जरूर है ईमानदारी सुनने में अच्छी लगती है, बाकी कष्ट बहुत देती है। बाबू जी क्या करें ? ईमानदारी उनकी आदत बन गई है, आदत नहीं छूटती। यह कहो जज्जी पा गये और सरकार इतनी भली बिना मॉंगे वेतन दे देती है वरना ये महाराज वेतन भी न मॉंग पाते। एक – दो साल इन्होंने वकालत की है। कोई चार गज लट्ठा (मोटा कपड़ा) पकड़ा जाता था, कोई घी। फीस न मॉंगी, न मिली। कक्का तब पोस्ट मास्टर थे। घर चलाते थे, तो उनकी अकड़ खूब सहनी पड़ी। हमने तो इस घर में ऐसी नौटंकी देखी कि कहते नहीं बनता।‘’
‘’नौटंकी …….. हा ………..हा……….।‘’ बाबू जी इसी तरह हँसने के कुछ मौके निकाल लेते थे।
बाबू जी का हँसना हमारी खीझ को बढ़ा देता था। अब वह हँसी याद आती है। ईमानदारी देवताओं की कोई चीज लगती है। आज भी लोग कहते हैं – ऐसा ईमानदार आदमी नहीं देखा। सुन कर मस्तक ऐसा ऊँचा हो जाता है जैसे हमारी कोई उपलब्धि मेन्शन की जा रही हो।
एक दिन छोड़ कर डायलिसिस चल रही थी फिर भी यूरिया का प्रतिशत बढ़ता जा रहा था। यही है प्राकृतिक और अप्राकृतिक के बीच का फासला। प्राकृतिक वृक्क जो कार्य कर सकता है, कृत्रिम वृक्क कब तक करेगा ? डॉंक्टर ने स्पष्ट कर दिया पाण्डे जी को इसी तरह रहना होगा। इस तरह जीने का अर्थ क्या था सिवाय इसके कि बाबू जी की सॉंसें चल रही थीं। किसी क्षण आयेगा सॉंसों का मालिक और समेट ले जायेगा सॉंसें। मैं बहुत पहले जब छोटी थी, सॉंसों के बंद होने का अर्थ नहीं जानती थी। बाबू जी तब तबादले पर डेरा समेट नये शहर चले आये थे। जबकि सिंह साहब (जिनके स्थान पर बाबू जी आये थे) बंगला खाली नहीं कर रहे थे। वे अपना तबादला रुकवाने के लिये भोपाल में पड़े हुये थे। हम लोग दिनों तक सर्किट हाउस में ठहरे। तबादला स्थगित न होने का सदमा था या जो भी, खबर आई थी सिंह साहब नहीं रहे। बाबू जी बता रहे थे ‘’लोग बताते हैं रात को सोये थे तो स्वस्थ थे, सुबह सॉंसें बंद। बच्चों की जिंदगी बर्बाद हो गई।‘’
अम्मा बोली थीं ‘’किसी के साथ ऐसा न हो। जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है। हमारे पास तो न खेती – बाड़ी है, न सम्पत्ति, न घर। बस वेतन का सहारा है। भगवान पार लगायेंगे ……..।‘’
अर्थात बाबू जी की सॉंसों का चलते रहना बहुत जरूरी था वरना हम सभी किसी गहरी खंदक में जा गिरते। किसी ने ठीक कहा है – लोग मरने वाले के लिये कम उन सुखों के छिन जाने के लिये अधिक रोते हैं जो मरने वाले से प्राप्त होते थे। सत्य ऐसा ही नृशंस और वीभत्स होता है। …….. पर अब तो सचमुच सॉंसों के बंद होने का वक्त आ गया। बाबू जी के चेहरे को देख पता नहीं कैसा लग रहा था और वे अचानक ऑंखें उघाड़ कहने लगे थे ‘’बाहर खूब धूप फैली है न ? लड़कों ने यह कहॉं लाकर पटक दिया। घर में होता तो ऑंगन में धूप में बैठ अखबार बॉंचता।‘’
स्ट्रेचर पर चलते हैं लेकिन धूप और अखबार की बात। अम्मा चौंकी थीं ‘’हॉं बाहर धूप है पर यहॉं कमरे में गलन है। अच्छी तरह कम्बल ओढ़े रहो।‘’
‘’बाजार में अमरूद खूब आये होंगे।‘’
‘’हॉं आये हैं।‘’
सेवानिवृत्ति के बाद बाबू जी को किसी हद तक मौजू होते देखा है। (वैसे वे सेवानिवृत्त हुये ही कब ? न्यायाधीश पद से सेवानिवृत्ति के बाद कन्ज्यूमर फोरम के अध्यक्ष बना दिये गये। तब मध्यप्रदेश में शायद दो – तीन पद ही थे। इस पद से सेवानिवृत्त होने में तीन माह शेष थे और ……..) धूप की, अमरूद की, क्रिकेट की, खुरचन की, मुगौड़ी की छोटी – छोटी बातें करने लगे थे।
‘’आज मुगौड़ी बनाओ। अब अपने मन का खा – पहन लूँ। लड़कियॉं अपने घर में सुखी हैं, श्री नाथ कमाने लगा है, मैं पेन्शन और इस नई नौकरी का वेतन पा रहा हूँ। इतने आराम की मैंने कल्पना नहीं की थी।‘’ इच्छाओं को मारते – कुचलते कैसे एक पूरी उम्र खत्म हो जाती है। अपने मन का खा – पहन लूँ कहने वाले बाबू जी श्री नाथ और गुड्डू की पुरानी शर्टे पहनने लगे थे। शर्टें दोनों भाईयों को चार – छ: माह में पुरानी लगने लगती थीं जिन्हें बाबू जी वर्षों पहने रहे। ढलती उम्र और चटख रंगों का संयोजन न बैठता था पर वस्त्र का उपयोग हो जाता था। अंत समय में गुड्डू का डिजाइनर स्वेटर पहने हुये थे जिसे पहनना गुड्डू पसंद नहीं करता था।
‘’अमरूद खूब आ रहे हैं तो तुमने खाये कि नहीं ?’’ बाबू जी, अम्मा को निहार रहे थे।
‘’खा लेंगे। कौन सा अमृत है।‘’
‘’अमृत। तुम्हें तो छोटी – छोटी चीजें नहीं मिलीं। सोचता हूँ तुम सहयोग न देती तो मैं ईमानदार न रह पाता। तुमने अभाव में जीना सीख लिया था।‘’
‘’ऐसा भी अभाव नहीं था।‘’
अभाव था पर फ्री फर्निश्ड बैंगलो, होम गार्ड, विस्तृत भूखण्ड, सब्जियों– फूलों की क्यारियों, आम, इमली, बेर, नींबू के वृक्षों के कारण उस तरह नहीं दिखता था जितना दिखना चाहिये था। कुक मिला था पर खाना अम्मा को बनाना पड़ता था कि वह बंगले के चर्चे बाहर ले जायेगा कि डी0जे0 साहब की रसोई में बहुत साधारण खाना बनता है।
बाबू जी कोमा में चले गये थे। ई0सी0जी0 के मानीटर पर ऊँची – नीची तरंगें देख डॉंक्टर ने कहा ‘’फ्लैक्चुयेटिंग कण्डीशन है। कभी भी कुछ भी हो सकता है।‘’
श्लथ भाव पूरे घर को तेजी से घेरने लगा था। श्री नाथ अपने तीन वर्षीय और दस माह के दोनों बेटों को अस्पताल ले आया था –
‘’चलो, बब्बा के पैर छू लो।‘’
कभी बाबू जी और श्री नाथ के मध्य शीत युद्ध चला करता था। कॉलेज में पहुँच कर वह खुद को स्वतंत्र समझने लगा था।
वह जज का बेटा है इसलिये एक – दो दादा टाइप के लड़कों ने उससे मित्रता कर ली थी कि कभी कुछ संकट आयेगा तो श्री नाथ के माध्यम से कुछ मदद मिलेगी। कभी विचलित न होने वाले बाबू जी विचलित हो उठे थे –
‘’श्री नाथ, तुमने जिन लड़कों की संगत की है, वे अपराधी प्रवृत्ति के हैं। इन्होंने तुमसे दोस्ती इसलिये की है कि उन्हें तुम्हारे माधम से मेरे या मेरे अधीनस्थ अधिकारियों से सुविधा मिल सके। मैं सुविधा दूँगा नहीं, तुम जानते हो। मेरे ऐसा करने पर वे तुम्हें क्षति पहुँचायें तब मैं कुछ न करूँगा यह मैं जानता हूँ। गलत लोगों से संगत का नतीजा गलत होता है। मेरे पास प्रतिष्ठा के अलावा कुछ नहीं है, तुम समझते क्यों नहीं ? तुम समझते क्यों नहीं तुम मुझे कितने प्रिय हो।‘’
बाबू जी का क्रोध भी सात्विक होता था और यह विलक्षण बात थी। श्री नाथ की ओर से कुछ निराश हो गये बाबू जी, अम्मा से बोलते थे, ‘’अब क्या कहूँ ? लड़कों से तो ये लड़कियॉं अच्छी। स्कूल – कॉलेज से सीधे घर आती हैं, अनुशासन में रहती हैं, तर्क नहीं करतीं, मन लगा कर पढ़ती हैं।‘’
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बाबू जी के नियंत्रण में हम लोगों के लिये और बचा भी क्या था। हम बहनें खेलने के नाम पर भी कभी बाहर न जायें इसलिये ट्यूटर ठीक उस वक्त के लिये तय किया गया जब शाम को अन्य बच्चे बाहर खेल रहे होते थे। हम लोगों ने जिद की ट्यूशन रखनी ही है तो विज्ञान के विषयों के लिये रखें पर हम सभी भाई – बहनों को एक साथ बैठा कर अँग्रेजी, हिन्दी, संस्कृत पढ़वाई जा रही थी कि भाषा का ज्ञान जरूरी है। खाली वक्त के लिये नंदन, पराग, धर्मयुग और जब छ: साल इन्दौर में रहे तब नई दुनिया समाचार पत्र मँगाया जाता कि पढ़ो और कुछ सीखो। सम्भव है लिखने – पढ़ने का संस्कार मुझे उन्हीं वर्षों में मिला हो। हम लोग बिनाका गीत माला सुनने
के लिये आजाद नहीं थे। वस्तुत: रेडियो की उपयोगिता समाचारों तक सीमित थी। फिल्म एक माह में एक वह भी गहन पूछताछ के बाद कि साफ – सुथरी है कि नहीं। इस नियंत्रण का परिणाम यह कि मुझे प्रेम शब्द अनैतिक लगने लगा था। मैंने इतनी कहानियॉं लिखीं पर एक अच्छी प्रेम कहानी नहीं लिख सकी। वस्तुत: एक उम्र होती है जब पिता का नियंत्रण, दिशा निर्देश इतना बुरा लगता है कि पिता ही बुरे लगने लगते हैं। एक और उम्र होती है जब लगता है वह सख्ती न होती तो हम यह न बन पाते जो बन गये हैं। यह समझ पहले आ गई होती तो और बेहतर बन पाते। पछतावा होता है। एकाएक पिता से संधि हो जाती है। पिता अच्छे लगने लगते हैं। बहुत अच्छे। नियंता।
बाबू जी कोमा में थे। घर में त्रिवेदी जी की चिट्ठी आई। बाबू जी के स्वास्थ्य के लिये चिंतित, पुराने वक्त को याद करती चिट्ठी। आज लिखते हुये केदारनाथ सिंह की पंक्तियॉं याद आ गईं –
फिर अगले दिन डाकिया आया,
और डाल गया एक चिट्ठी।
जो उनके नाम थी और चकित था मैं, कि
मृत्यु के बाद भी मृत्यु को
नकारती हुई आ सकती है एक चिट्ठी।
यह बहुत बड़ा संयोग था बाबू जी और त्रिवेदी जी रीवा के एक ही मोहल्ले में जन्मे, एक साथ पढ़े, आगे – पीछे के बैच में सिविल जज चुने गये और एक बार इन्दौर में एक कॉलोनी में रहे। त्रिवेदी जी के ठाट – बाट ऊँचे थे।
बाबू जी टोंक देते ‘’तुम कुछ ऊपरी तो नहीं लेने लगे ? वेतन में यह ठाट – बाट कहॉं हो पाता है ?’’
‘’तुम्हारी ईमानदारी की छूत से बचूँ तब ऊपरी लूँ। मेरा छोटा परिवार है। सिर्फ दो बेटे। घर से सम्पन्न हूँ। खूब खेती – बाड़ी है। देवी प्रसाद, तुम जानते तो हो तुम्हारा परिवार बड़ा है। उस पर भी पॉंच लड़कियॉं। तुम इनके लिये बचत करते हो। स्तर कायम नहीं रख पाते हो। बड़े परिवार की जरूरतें बहुत अधिक होती हैं।‘’
सत्य शाश्वत होता है। बाबू जी उदास हो जाते थे। सोचते रहे हांगे परेशानियॉं ईमानदारी के कारण कम बड़े परिवार के कारण अधिक हैं। शायद इसीलिये मेरी छोटी बहन की दो बेटियॉं देख जब अम्मा ने कहा ‘’एक बेटा हो जाये।‘’
बाबू जी क्षुब्ध हो गये थे। ‘’बकवास है। बेटा न होगा तो वंश कैसे चलेगा, मुखाग्नि कौन देगा ….. सोच कर ही लोग जनसंख्या बढ़ा लेते हैं। न खुद आराम से रहते हैं न बच्चों को आराम देते हैं। देश पर तो भार पड़ता ही है।‘’
बाबू जी कोमा में थे। उन्हें देखने निरंतर लोग आ रहे थे। रूम के समीप मेडिकल वार्ड में एक कैदी भर्ती था। उसने साथ के पुलिस के जवान से पूछा था ‘’आखिर यह कौन भर्ती है जिसे देखने रीवा के जजों से लेकर कौन – कौन आ रहे हैं।‘’
जवान ने बताया, ‘’जो भरती हैं वे जज रह चुके हैं। पाण्डे जी।‘’ कैदी की स्मृति में कुछ था। ‘’पूरा नाम बतायेंगे।‘’
‘’देवी प्रसाद पाण्डे। डी0पी0 पाण्डे।‘’
रीवा सेन्ट्रल जेल में आजीवन कारावास की सजा काट रहा एक कैदी जिसका उस अस्ताल में उपचार चल रहा था सहसा आकर बाबू जी के पैर छुयेगा यह किसी की कल्पना में नहीं था। वह स्तब्ध था ‘’जज साहब जब छतरपुर कोर्ट में थे, तब हमको उम्र कैद की सजा सुनाई थी। हम वही सजा काट रहे हैं। उस समय हमको बहुत गुस्सा आया था पर अचरज भी हुआ था। ऐसा लग रहा था जज साहब ने हमको जुर्म करते मानो खुद देखा हो। इस तरह फैसला सुनाया था।‘’
बाबू जी के द्वारा दी गई सजा को भोग रहा कैदी उनके पैर छू रहा था। बाबू जी को ईमानदारी का अवार्ड तब मिला जब वे कोमा में थे। और ठीक उसी दिन 29 जनवरी की दोपहर ढलने और शाम आने के बीच के उन शीतोष्ण क्षणों में सॉंसों का मालिक बाबू जी की सॉंसें समेट ले गया। सर्वग्रासी अँधेरा पूरे घर को तेजी से घेरता चला गया था।
ऑंगन की गोबर लीपी भूमि पर सफेद खोल वाले कम्बल से ढके हुये बाबू जी की वह आखिरी छवि मैं कभी नहीं भूल सकती।
वह चौबारा तब से सूना पड़ा है जहॉं बच्चों के आने की आहट पाकर सबसे पहले बाबू जी निकल कर आते थे।
…………………..
सुषमा मुनीन्द्र
कहानी की दुनिया में सशक्त हस्ताक्षर। सभी पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। रिश्तों पर आधारित कहानियां खासियत,साहित्य की सभी विधाओं में लेखन ,कई पुरस्कारों से सम्मानित .
द्वारा श्री एम. के. मिश्र
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