9.In Memory of My Father : राष्ट्र सेवक थे मेरे पिता

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प्रो एस. एन. मनवानी
प्रो एस. एन. मनवानी
In Memory of My Father / मेरी स्मृतियों में मेरे पिता

 पिता को लेकर mediawala.in में शुरू की हैं शृंखला- मेरे मन /मेरी स्मृतियों में मेरे पिता। आज नौवीं क़िस्त में श्री अशोक मनवानी अपने पिता  के व्यक्तित्व की विराटता में एक राष्ट्र सेवक को देखते हैं और इससे जुड़ा प्रेरक और बहुत ही  मार्मिक प्रसंग  याद करते हुए उन्हें  अपनी सलामी दे  रहे हैं –

राष्ट्र पूज्य सर्वश्व राष्ट्र है,
तन मन राष्ट्र रमाता है।
राष्ट्र हित नित करे जो सेवा,
गीत राष्ट्र के गाता है।।

राष्ट्र धर्म का पाठ पढ़ाए,
कर्म है क्या समुझाता है।
राष्ट्रविधि का पालन करके,
नियम कठोर बनाता है।।-- आशुतोष सिंह,

9.In Memory of My Father :  राष्ट्र सेवक थे मेरे पिता 

अशोक मनवानी

लगभग 20 वर्ष हुए हैं पिता प्रो एस. एन. मनवानी इस संसार को त्याग चुके हैं। लेकिन शायद ही कोई ऐसा दिन बीता हो जब मैं उनसे रूबरू ना हुआ हूं।अभी भी रोज मिलता हूं यादों में।पिता के साथ जीवन के लगभग 40 वर्ष बिताए। इस दिनों को जब याद करता हूं तो पाता हूं कि उनमें एक राष्ट्र सेवक विद्यमान था।

वे अविभाजित भारत के सिंध में जन्मे और जन्म का स्थान था ग्राम डूका।यह लड़काना जिले में स्थित है जहां विश्व की प्राचीनतम सिंधु घाटी सभ्यता के अवशेष हैं।मोहनजोदड़ो से महज 10 या 15 किलोमीटर की दूरी पर पिता का गांव था।
राष्ट्र विभाजन के बाद वे मुंबई के पास उल्हासनगर आ गए ,परिजन के साथ। विस्थापन का यह सफर कष्टदायक था। ना कोई ठौर न ठिकाना। सबसे बुरा हाल शिक्षा का हुआ। खिचड़ी खाकर ही सबने पेट भरा होगा।संपन्न परिवार अभावग्रस्त बन गए थे। विश्व के बड़े विस्थापनों में से एक था सिंध से सिंधी भाषा भाषियों का भारत के किसी एक नहीं अलग-अलग प्रांतों में जाकर बस जाना।
धर्म रक्षा की खातिर यह विस्थापन हुआ।सिंध के सिंधी अब अखिल भारतीय हो गए थे फिर कब वैश्विक हो गए कैसे हो गए यह सब इतिहास के महत्वपूर्ण अध्याय हैं।

पिता , अध्ययन में रुचि होने के कारण शिक्षक बनना चाहा और बने भी। उल्हासनगर में लघु व्यवसाय चला नहीं तो मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ अंचल में पहुंचे। जहां मुंगेली कस्बे में जो उस समय एक गांव ही था, मेरे ताऊजी शिक्षक हो गए। दादाजी ने आढ़त (अनाज) का व्यवसाय शुरू किया। उनके नाम पर आज भी कृषि उपज मंडी के एक द्वार का नाम नवल मनवाणी द्वार है। अध्ययन में गहरी रुचि होने के कारण पिता बिलासपुर आ गए।

स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि उत्तर प्राचीन इतिहास से की। पूरे मध्य प्रदेश में टॉपर रहे।उन्हें स्वर्ण पदक मिले। सागर विश्वविद्यालय ही एकमात्र विश्वविद्यालय हुआ करता था। प्राचीन इतिहास विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर कृष्ण दत्त वाजपेयी ने पिता को व्याख्याता के पद पर काम संभालने का आग्रह किया और पिता एक आदर्श शिक्षक के रूप में अपनी पहचान बनाने में सफल हुए।
वे एनसीसी अधिकारी भी थे। आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थियों को किताबें दिलवाते। क्रिकेट खेलने में जिन युवाओं की रुचि है उन्हें क्रिकेट किट अपने वेतन के पैसों से दिलवाते। विश्वविद्यालय से बजट मिलता तो विद्यार्थियों को अजंता एलोरा जैसे स्थानों पर ले जाते। बजट नहीं मिलता तो अपना पैसा व्यय कर खजुराहो, विदिशा, सांची,ग्यारसपुर,उदयगिरी,उदयपुर आदि की सैर उनको करवाते। वे सागर नगर की दलित बस्तियों में निर्धन परिवारों के बच्चों को टूथपेस्ट और टूथ ब्रश वितरित करते। उन्हें दांत साफ करने का तरीका भी समझाते। कहते टूथपेस्ट कम लगाओ जिससे ज्यादा चले। आज जब विज्ञापन कंपनियां तेजी से टूथपेस्ट खत्म करने की प्रेरणा देने के लिए विज्ञापन दिखाती हैं तो पिता का वह दर्शन याद आता है।

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सागर नगर के रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के सार्वजनिक शौचालयों को उस दौर के विद्यार्थी साफ करते।हाथों में सुतली से कागज बांधकर ग्लोब्स बनाते जिन्हें टाइट कर ब्रश और क्लीनर का इस्तेमाल करते। एनसीसी के विद्यार्थियों से यह सेवा करवाने पर पिता को कई विद्यार्थियों के परिजन ने टोका भी कि डॉक्टर साहब यह बच्चों से कैसा कार्य करवा रहे हैं? तब पिता कहते हैं यह राष्ट्र के निर्माण का कार्य है। वे घर के कार्यों में भी दक्ष हो जाएंगे। उन्हें इस पूरे समाज को परिवार मानकर कार्य करना है। उस दौर में कोई प्रचार तंत्र नहीं था। यह सब कार्य बिना शोहरत लेने की इच्छा के ही किया जाता था।

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पिता ने एक बार गुजरात में मोरबी कस्बे में बांध के टूट जाने की खबर रेडियो पर सुनते ही सागर से एनसीसी विद्यार्थियों का राहत दल रवाना कर दिया था। वे खुद स्वस्थ नहीं थे उन दिनों इसलिए नेतृत्व के लिए कुछ विद्यार्थियों को जिम्मा दिया था। आज भी मोरबी कस्बे में नागरिक सागर के विद्यार्थियों के श्रमदान और राहत कार्यों को याद करते हैं। संभवत: वर्ष 1979 में यह हादसा हुआ था। इसके साथ ही इस तरह के सेवा कार्यों के लिए सागर नगर से जन सहयोग जुटाने में समय-समय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य सामाजिक संस्थाओं का सहयोग भी पिता लेते थे। वे आपातकाल की अवधि में विश्वविद्यालय प्रशासन और जिला प्रशासन की आंख की किरकिरी भी बने। लेकिन अध्यापक गण एकजुट थे इसलिए उन्हें जेल भेजने जैसा कोई कदम नहीं उठाया जा सका।

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कहने को बहुत से कल्याणकारी कार्यों की बात कही जा सकती है जो पिता के नेतृत्व में सागर नगर में संपन्न हुई लेकिन उसके लिए एक 20 पृष्ठ का अध्याय लिखना होगा। आज इतना ही।पिता किन मामलों में मेरे आदर्श थे यह बताने का प्रयास किया है।धन्यवाद मीडिया वाला को कि मुझे अपने हृदय में समाए विचारों को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया।

Ashok Manwani subhchoupal

अशोक मनवानी, भोपाल

सिंधी के युवा साहित्यकार के तौर पर ख्याति प्राप्त हैं, मध्यप्रदेश के जनसम्पर्क विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं .

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[आसुतोष सिंह की कविता अमर उजाला से साभार]