9 पार्टियों ने 127 दलबदलू उतारे जनता की अदालत में,पर दो तिहाई को जनमत ने ठुकरा दिया
विश्लेषक,वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल का एक रोचक विश्लेषण
भारतीय राजनीति में राजनीतिक अवसरवादिता,राजनीतिक सुविधाभोगिता,राजनीतिक स्वार्थ की चर्चा बुद्धिजीवियों से लेकर आम जनता तक में विगत कई सालों से खूब होती रही है। मैने कल रात इस बार के लोकसभा चुनाव 2024 के चुनावी समर से इसे करीब से,सटीक रूप से समझने की कोशिश करी कि वास्तव में,वर्तमान में, आम जनता इस मामले में कितनी जागरूक है। तो मैने पाया कि दलबदल कर टिकट पा चुनाव लड़ने वाले करीब दो तिहाई या 66 फीसदी उम्मीदवार इस बार चुनाव हार गए। संकेत साफ है कि केवल टिकट पाने के लिए अपनी राजनीतिक निष्ठा,विचारधारा, अपने सिद्धांत बदल लेने वाले ऐसे नेताओं को जनता ने इस बार नकार कर यह जतला दिया है कि उसे बरगलाना आसान नहीं। सभी पार्टियों ने दूसरी पार्टी से आए या इंपोर्ट किए गए कुल 127 दलबदलू नेताओं को इस बार के लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया था। पर इनमें से केवल 43 ही जीत दर्ज करने में सफल रहे, जबकि 84 दलबदलुओं को हार का सामना करना पड़ा।
भारतीय जनता पार्टी ने दलबदलकर पार्टी में आए सर्वाधिक 56 नेताओं को इस बार उम्मीदवार बनाया था। अतः सबसे ज्यादा नुकसान भी उसे ही हुआ। क्योंकि इनमें से केवल 22 ही जीत पाए। 36 को हार का कड़वा घूंट पीना पड़ा और अपनी पार्टी को भी इन्होंने अकेले अपनी दम पर बहुमत के आंकड़े से दूर कर भारी नुकसान पहुंचाया। कांग्रेस को इन चुनावों में चाहे पिछले चुनाव की तुलना में अच्छी सफलता मिली हो, लेकिन उसने भी दूसरी पार्टी से आए 29 उम्मीदवारों को टिकिट देने की बड़ी भूल की क्योंकि इनमें से केवल 7 ही जीत सके। 22 को हार का सामना करना पड़ा। बंगाल में बड़ी जीत दर्ज करने वाली ममता बनर्जी ने भी 6 पार्टी बदलकर आए नेताओं को टिकट दिए थे लेकिन आसनसोल से जीते फिल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा को छोड़कर शेष सभी पांचों उम्मीदवार चुनाव हार गए।
हालांकि दलबदल के कुछ सुखद परिणाम भी अपवाद रूप में सामने आए हैं। कांग्रेस के कद्दावार नेता जितेंद्र प्रसाद के पुत्र जितिन प्रसाद को भाजपा ने वरुण गांधी का टिकट काटकर पीलीभीत से उम्मीदवार बनाया। पर वे बड़े अंतर से जीते। ज्ञात रहे कि शत्रुघ्न सिन्हा ने भाजपा छोड़ टीएमसी का दामन थामा था। आसनसोल से उन्होंने भाजपा के सुरेंद्रजीत सिंह अहलुवालिया को 59,564 मतों से हराया। कर्नाटक के पूर्व सीएम जगदीश शेट्टार कांग्रेस में चले गए थे। चुनाव से पहले फिर भाजपा में लौटे और उन्होंने बेलगाम से कांग्रेस के मृणाल हेवलकर को 1,78,437 वोटों से हराया।
हालांकि दो पार्टियों के दलबदलू को प्रत्याशी बनाने का निर्णय तुलनात्मक रूप से अधिक सफल रहा। समाजवादी पार्टी की रणनीति की बात करें तो उसने दूसरी पार्टी से आए 18 नेताओं को उम्मीदवार बनाया। इनमें से आधे से अधिक 10 विजयी रहे। आंध्र प्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने दूसरी पार्टी के दो नेताओं को टिकट दिए, ये दोनों ही जीते। कांग्रेस छोड़कर 44 नेता दूसरी पार्टियों के टिकट पर चुनाव लड़े। इनमें से 12 ही जीत सके। वहीं भाजपा से आए 24 नेताओं को दूसरी पार्टियों ने टिकट दिया। इनमें से छह ही जीते। उप्र में भाजपा से सपा में गए देवेश शाक्य ने एटा से, कृष्ण शिवशंकर पटेल ने बांदा से और रमेश बिंद ने मिर्जापुर से जीत दर्ज की।
मुंबई कांग्रेस के कद्दावार नेता कृपाशंकर सिंह महाराष्ट्र के गृहमंत्री रहे। उन्होंने भाजपा के टिकट पर यूपी के जौनपुर से चुनाव लड़ा पर सपा के बाबूसिंह कुशवाहा से हार गए। राजमपेट से हारे अविभाजित आंध्र के सीएम रहे किरण कुमार रेड्डी राजमपेट से भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे। लेकिन वे वाईएसआरपी के पीवी मिधुन रेड्डी से चुनाव हार गए।
विस्तार से दल बदलुओं का गणित जानना चाहें तो वह इस तरह रहा। भाजपा ने 56 दलबदलू प्रत्याशी उतारे पर सिर्फ 22 ही जीत सके। कांग्रेस ने 29 दलबदलू उतारे पर मात्र 6 ही सफल रहे। सपा ने 18 दलबलुओं पर दांव लगाया पर उनमें से 10 ही तुरुप के इक्के निकले। आप ने 7 दलबदलू प्रत्याशी बनाए पर मात्र 2 ही सफल रहे। तृणमूल कांग्रेस ने भी 6 दलबदलू उतारे पर मात्र 2 ही जीत सके। बीजेडी आरजेडी अकाली दल ने क्रमशः 4,3 और 2 दलबदलू जनता की अदालत में खड़े किए पर सभी जनमत का केस हार गए। अलबत्ता सिर्फ टीडीपी एकमात्र ऐसी पार्टी साबित हुई जिसने 2 दलबदलू मैदान में खड़े किए और दोनों जीत गए।
सभी पार्टियों से कुल 127 दलबदलू उम्मीदवार चुनावी समर में उतरे थे। पर मात्र 43 को ही सफलता मिल सकी। उनकी इस सफलता में भी उनके पार्टी सिंबल का अर्थात उनकी पार्टी के वोट बैंक का ही अधिक योगदान रहा। इस तरह कुल 84 दलबदलू हार गए,जनता ने उनको उनकी अवसरवादिता,सिद्धांत विहीनता,विचार शून्यता का उनका चेहरा अपने मतदान के आईने में दिखा दिया।