सत्य नेपथ्य के: जगन्नाथ का वृंदावन,सुंदराचल, मौसी का घर गुंडिचा मंदिर और पुरी के पंडे,पार्ट 4

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सत्य नेपथ्य के: जगन्नाथ का वृंदावन,सुंदराचल, मौसी का घर गुंडिचा मंदिर और पुरी के पंडे,पार्ट 4

 

वरिष्ठ लेखक व पत्रकार चंद्रकांत अग्रवाल का साप्ताहिक कालम   

जगन्नाथपुरी धाम में हर साल भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का आयोजन किया जाता है,यह तो सभी जानते हैं। यात्रा के दौरान अत्यधिक स्नान के कारण भगवान जगन्नाथ और दोनों भाई बहन बीमार हो गए थे। इस कारण से उनको एकांतवास में रखा गया था और आषाढ़ की द्वितीया तिथि में उन्होंने फिर अपने भक्तों को दर्शन दिए । उसके बाद भगवान एक सप्ताह के लिए अपनी मौसी के घर रुकते हैं, जिसे गुंडिचा मंदिर के नाम से जाना जाता है। किंतु बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि रथयात्रा से एक दिन पहले गुंडिचा मंदिर का मार्जन किया जाता है। गुंडिचा मंदिर अर्थात भगवान की मौसी का घर और मार्जन अर्थात साफ-सफाई करना। यह मंदिर जगन्नाथ मंदिर से 2 कि.मी उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित है। गुंडिचा मंदिर जहां स्थित है उस स्थान को “सुंदराचल” कहा जाता है। सुंदराचल, की तुलना वृन्दावन से की गई है और नीलाचल जहां श्री जगन्नाथ रहते हैं वह द्वारका माना जाता है। भक्तजन ब्रजवासिओं के भाव में रथयात्रा के समय प्रभु जगन्नाथ से लौटने की प्रार्थना करते हैं इसलिए प्रभु उन भक्तों के साथ वृन्दावन यानि गुंडिचा आते हैं। मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर को भगवान का जन्म स्थान भी कहा जाता है। क्योंकि यहीं पर महावेदी नामक मंच पर दिव्य शिल्पकार विश्वकर्मा ने राजा इंद्र की इच्छा अनुसार भगवान जगन्नाथ, बलदेव और देवी सुभद्रा के विग्रह को दारुब्रह्म से प्रकट किया था। यह मंदिर राजा इंद्र की पत्नी गुंडिचा रानी के नाम पर है और इसी क्षेत्र में राजा ने एक हजार अश्वमेघ यज्ञ किए थे। 500 वर्ष पूर्व श्री चैतन्य महाप्रभु ने ही गुंडिचा मंदिर मार्जन की प्रथा को शुरू किया था। उनका मानना था कि अगर हमें भगवान को अपने मन में विराजमान करना है तो सबसे पहले अपने मन से हर तरह के मैल का त्याग करना होगा। भक्ति के लिए अपने ह्रदय को साफ और दोष रहित बनाना अनिवार्य माना गया है। दूषित मन में हम भगवान को कभी नहीं बैठा सकते हैं, क्योंकि हमारा मन मैल से भरा हुआ है तो ऐसे में मन को मैल रहित बनाने के लिए उसकी साफ-सफाई यानि दोष रहित होना जरूरी है और यह केवल भगवान की सेवा और भक्ति से ही संभंव हो सकता है। ठीक वैसे ही चैतन्य महाप्रभु ने गुंडिचा मंदिर में जमा हुई धूल इत्यादि को साफ किया और उसके पश्चात झाड़ू व पानी से सारे मंदिर का 2 से 3 बार मार्जन किया। उसके बाद वह अपने अंग वस्त्र यानि अपने कपड़ों से मंदिर को साफ करते हैं ताकि थोड़ी सी धूल-मिट्टी भी वहां दिखने न पाए। इसी तरह महाप्रभु हर भक्त का हाथ पकड़कर सिखाते हैं कि किस तरह मंदिर को साफ करना है।

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इसी तरह अगर आप भी अपने मन में भगवान को विराजमान करना चाहते हैं तो पहले उसे अच्छी तरह से साफ करना होगा। ताकि उसमें काम, क्रोध, लोभ और मोह जैसी कोई भी गंदगी न रह जाए व हमारा मन भगवान के लिए एक कोमल आसन की तरह काम करे। पर मानों भगवान जगन्नाथ तो मुझे व मेरे जैसे भक्तों को मानों भक्ति का पाखंड बताना चाह रहे हैं,आजकल। हम जब गुंडीचा मंदिर पहुंचे तो पता चला कि यह तो 3 साल से बंद है क्योंकि कोवीड काल से अब तक इसका ठेका ही नहीं हो पाया। मात्र रथ यात्रा के लिए खुला था,फिर बंद कर दिया गया। बेचारे भक्त गेट पर बैठे एक व्यक्ति को पैसे देकर छोटे गेट के अंदर झांककर मौसी को अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। आज भगवान ‘जगन्नाथ जी’ की रथ यात्रा जो हर वर्ष निकाली जाती है,पर भी थोड़ी चर्चा करेंगे,जो पहले नहीं हो पाई थी,क्योंकि गुंडीचा मंदिर पर ही पहुंचकर रथ यात्रा विराम लेती है,जिसके संबंध में अभी हमने चर्चा की। रथ यात्रा की परंपरा पिछले लगभग 500 सालों से चली आ रही है। इस रथ यात्रा से कई तरह की मान्यताएं जुड़ी हैं। ये यात्रा विश्व भर में प्रसिद्ध है। इस उत्सव को आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का महोत्सव 10 दिन का होता है, जो शुक्ल पक्ष के ग्यारहवे दिन खत्म होता है। इस दौरान जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में लाखों की संख्या में लोग पहुंचकर इस महा आयोजन का हिस्सा बनते हैं। इस दिन भगवान कृष्ण, उनके भाई बलराम और बहन सुभद्रा को रथों में बैठाकर गुंडीचा मंदिर ले जाया जाता है। तीनों रथों को भव्य रूप से सजाया जाता है। जिसकी तैयारी महीनों पहले से शुरू हो जाती है। भगवान जगन्नाथ विष्णु भगवान के 10 वें अवतार का रूप माने जाते हैं। जो 16 कलाओं से परिपूर्ण हैं। पुराणों में जगन्नाथ पुरी धाम को धरती का बैकुंठ कहा गया है। यह हिन्दू धर्म के चार धाम बद्रीनाथ, द्वारिका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी में से एक है। कहा जाता है कि पहले अन्य तीन धामों बद्रीनाथ, द्वारिका और रामेश्वरम की यात्रा करनी चाहिए उसके बाद ही जगन्नाथ पुरी आना चाहिए। स्कंद पुराण के अनुसार, पुरी में भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था। वह यहां सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने की वजह से यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। जगन्नाथ रथ यात्रा, यानि की भगवान जगन्नाथ को रथ पर बिठाकर पूरे नगर की यात्रा करवाई जाती है। इस शहर का नाम जगन्नाथ पुरी से निकलकर ही पुरी बना है।

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सबसे पहले भगवान जगन्नाथ जी के रथ के सामने सोने की झाड़ू से सफाई की जाती है। सफाई के बाद मंत्रोच्चार और जयघोष होता है। इसी के साथ शुरू होती है ये मशहूर रथयात्रा। इस यात्रा में विशाल रथ होते हैं जिनपर भगवान जगन्नाथ सवार होते हैं। पारंपरिक वाद्ययंत्रों की आवाज के बीच इन रथों को कई हजार लोग मोटे-मोटे रस्सों की मदद से खींचते हैं। सबसे आगे होता है बलभद्र जी का रथ जो सबसे पहले तालध्वज में प्रस्थान करता है। इसके ठीक पीछे खींचा जाता है बहन सुभद्रा जी का रथ। इन दोनों रथों के पीछे होता है जगन्नाथ जी का रथ। तीनों रथों को श्रद्धालु रस्से पकड़ कर खींचते हैं और पूरे नगर में घुमाते हैं। रथ खींचने के लिए पुरी में लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ जमा होती है। इतनी तादाद में लोग इसलिए जमा होते हैं क्योंकि लोगों का मानना है जो लोग रथ खींचने में सहयोग करते हैं उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इस यात्रा का अंतिम स्थान होता है गुंडीचा मंदिर। यहां पहुंचकर यह यात्रा संपन्न हो जाती है। इस मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। कहा जाता है कि इसी मंदिर में विश्वकर्मा ने तीनों देव प्रतिमाओं का निर्माण किया था। साथ ही इस जगह को भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। यदि सूर्यास्त तक रथ गुंडीचा मंदिर नहीं पहुंच पाता तो अगले दिन ये यात्रा पूरी की जाती है। गुंडीचा मंदिर में भगवान एक हफ्ते तक रहते हैं। यहां हर रोज उनकी पूजा अर्चना होती है। उनकी मौसी का घर बताए जाने वाले इस मंदिर में भगवान को कई तरह के स्वादिष्ट पकवानों का भोग लगाते हैं।

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भगवान जगन्नाथ मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं, जिसे लकड़ी की आग से ही पकाया जाता है, इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता, लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि जैसे ही मंदिर के पट रात में बंद होते हैं वैसे ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है। दिन में किसी भी समय भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती। भगवान जगन्नाथ मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदला जाता है, ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 सालों के लिए बंद हो जाएगा। आमतौर पर दिन में चलने वाली हवा समुद्र से धरती की तरफ चलती और शाम को धरती से समुद्र की तरफ, लेकिन भगवान जगन्नाथ मंदिर धाम में यह प्रक्रिया उल्टी है। जगन्नाथ मंदिर के महाप्रसाद को प्रतिदिन लकड़ी से जलने वाले चूल्हे पर मिट्टी के बर्तन में 40 से 50 क्विंटल चावल और 20 क्विंटल दाल व सब्जियों समेत तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद को करीब 500 रसोइए 300 सहयोगियों के द्वारा बनाते है। रोज करीब 25 हज़ार लोगों को और त्योहारों के समय में करीब 50 हज़ार भक्तो को भोजन कराया जाता है। महाप्रसाद में चावल, घी चावल, मिक्स चावल, जीरा, हींग, अदरक मिक्स चावल और नमक के साथ मीठी दाल, प्लेन मिक्स दाल, सब्जी, तरह-तरह की करी, सागा भाज़ा (पालक फ्राई) और दलिया होता है। नारियल, लाई, गजामूंग और मालपुआ का प्रसाद यहां विशेष रूप से मिलता है। महाप्रसाद दो तरह का होता हैं। सूखा और गीला। । जो भी भोजन बनता उस को पहले भगवान जगन्नाथ को भोग लगाया जाता है। इसके बाद देवी बिमला को अर्पण किया जाता है, तब यह महाभोग बनने के बाद यह महाप्रसाद, आनंद बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध होता है। सभी श्रद्धालु, आनंद बाज़ार से इस महाप्रसाद का स्वाद लेना पसंद करते हैं। विशेष बात यह भी है कि हमने कच्ची हरी मिर्च, पीली मिर्च, लाल मिर्च तो देखी थी लेकिन पुरी में भोजन के साथ हर बार सलाद में लगभग काले रंग की मिर्च अवश्य मिलती है। पुरी के जगन्नाथ मंदिर का विशाल रसोईघर विश्व का सबसे बड़ा रसोईघर है। मंदिर में भगवान जगन्नाथ के भोग का प्रसाद इसी रसोई में बनता है। मंदिर के बाहर स्थित रसोई में 25000 से ज्यादा भक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं।

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ओडिशा, हवाई, रेल और सड़क, तीनों मार्ग से जुड़ा है। ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से जगन्नाथपुरी 60 कि.मी. दूर है। भुवनेश्वर, निकटतम हवाई अड्डा है यह भारत के सभी राज्यों से जुड़ा हुआ है। सरकारी और निजी एयरलाइंस की कई फ्लाइट्स हैं जो भुवनेश्वर को कोलकाता, दिल्ली, रायपुर, हैदराबाद, नागपुर,वाराणसी, मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों से जोड़ती हैं। भुवनेश्वर, नजदीकी रेलवे स्टेशन हैं। रेल से ओडिशा की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद उठाया जा सकता है। यात्रा सुविधाजनक भी है और आरामदेह भी।कई ट्रेनें भारत के अन्य कोनों को ओडिशा से जोड़ती हैं। कई महत्वपूर्ण ट्रेनों की सेवाएं ,राजधानी, कोणार्क एक्सप्रेस, कोरोमोंडल एक्सप्रेस आदि ओडिशा के अन्य जिलों गंजम, खुर्दा, कोरापुट, रायगढ़, नौपाड़ा-गुनुपुर में भी रेलवे स्टेशन हैं। सड़क मार्ग से: भुवनेश्वर, राष्ट्रीय राजमार्ग पर आता है, जो चेन्नई और कोलकाता जैसे महानगरों को जोड़ता है। इस वजह से जिन्हें सड़क पर लंबी यात्राएं करने का शौक है, उनके लिए ओडिशा पहुंचना ज्यादा आरामदेह और आसान है। ओडिशा में सड़कों का व्यापक नेटवर्क है। इससे ओडिशा के कोने-कोने तक सड़क मार्ग से पहुंचा जा सकता है। राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 5, 6, 23, 42 और 43 राज्य से होकर गुजरते हैं। इससे सड़क से यात्रा आसान हो जाती है। इन मार्गों पर नियमित बस सेवा चलती है।

भुवनेश्वर से पुरी लिए यातायात

भुवनेश्वर से पुरी के लिए नियमित बसें आराम से मिल जाती हैं। यहां स्थानीय यातायात व्यवस्था में बस और टैक्सियों की अच्छी सुविधा है। सैलानियों की सुविधा के लिए उड़ीसा पर्यटन विकास निगम कोच बसें भी चलाता है। कटक से 47 किलोमीटर की दूरी पर खुर्दारोड रेलवे स्टेशन स्थित है जो पूर्वी रेलवे के हावड़ा -वालटर ब्रांच लाइन पर स्थित है। यहां से पुरी के लिए एक रेलवे लाइन जाती है। खुर्दा रॉड से पुरी 45 किलोमीटर की दूरी पर है। सीधी ट्रेन हावड़ा ,मद्रास ,आसनसोल ,तलचर से मिलती है। कटक ,भुवनेश्वर एवं खुर्दारोड से यहां तक बस सेवा उपलब्ध है। हिन्दुओं की आस्था का एक बहुत बड़ा केंद्र है केन्द्र भगवान जगन्नाथ की जगन्नाथ पुरी। 10 वीं शताब्दी में निर्मित यह प्राचीन मन्दिर चार धामों में से एक धाम है। इस मंदिर में आने वाले लोगों के अंदर भगवान जगन्‍नाथ के प्रति अटूट श्रद्धा,प्रेम व आस्था आसानी से देखी जा सकती है, लेकिन मंदिर के अंदर व आस-पास रहने वाले लोग इस आस्‍था के साथ सिर्फ गाढ़ी कमाई का खेल खेलते ही दिखे। हालांकि अपवाद भी थे। पर सच पूछिये तो जगन्नाथ मन्दिर आज पंडों के व्यवसाय का एक माध्यम भी बन गया है। देश के विभिन्न हिस्सों से भक्त भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने आते हैं,लेकिन यहां आकर वह खुद को तब ठगा सा महसूस करते हैं,जब ये पंडे भक्तों के भक्ति भाव को महत्व न देकर,भक्त की आर्थिक स्थिति को भी नजरंदाज कर सिर्फ उनके धन को ही महत्व देते हैं। कदम-कदम पर पण्डों द्वारा पैसों की मांग, बल्कि मांग नहीं वसूली अधिक लगती है जो भक्तों की भावनाओं को ठेस पहुंचा रही है। जिसकी परवाह जानकारों के अनुसार आज तक न तो कभी प्रदेश सरकार ने की, न प्रशासन ने की, न ही मंदिर प्रबंधन ने की। भक्त अपनी हैसियत व भावना के अनुसार स्वेच्छा से कुछ न कुछ देने का भाव रखता ही है। हजारों का यात्रा खर्च करके वह पुरी पहुंचता है। पर आमतौर पर पंडडों को मानो इस सबसे कोई लेना देना नहीं होता। मंदिर प्रबंधन सिर्फ एक सूचना बोर्ड लगाकर कि कोई भी बिना रसीद के आपसे कुछ भी राशि ले तो उसकी शिकायत कीजिए,गहरी नींद में कुंभकर्णी नींद में दिखा। अपने गरीब भक्तों का ध्यान रखना तो लगता है कि सिर्फ भगवान जगन्नाथ का ही दायित्व मानकर सभी जिम्मेदार अपनी अपनी मस्ती में मस्त दिखे। सबकी आजीविका खूब अच्छी तरह चले इससे मुझे या मेरे जैसे करोड़ों भक्तों को कोई ऐतराज कभी नहीं हो सकता पर जबदस्ती तो वो भी भगवान से भी बिना डरे उनके सामने करना भक्तों को सहज ही दुखी कर देता है। मुझे एक स्थानीय आटो चालक ने बताया कि साहब इन पंडडों में से कुछ को निजी तौर पर मैं जानता हूं। इनमें से कई की समृद्धि व वैभव बीते कुछ सालों में बहुत तेज़ी से बढ़ा है। एक एक के पास 10 से 15 किलो सोना होगा,बहुमंजिला मकान आदि हैं इनके पास आज,ऐसी स्थानीय स्तर पर कई लोगों की मान्यता है।आश्चर्य तो इस बात का है कि भगवान जगन्नाथ पर चढ़ाया जाने वाला महाप्रसाद भी बाजार में बिक रहा है। इस भव्य विशाल व पौराणिक मन्दिर के निर्माण में भी शिल्पकारों की कुंठा के दर्शन होते हैं। मन्दिरों की दीवारों पर काम कला की विभिन्न मुद्राएं दर्शाती हैं कि उस वक्त के लोग मन्दिर जैसे पूजा स्थलों को भी काम कला से अलग कर नहीं देखते थे। काम कला की ऐसी मुद्राएं भी हैं जो किसी उत्पीडऩ से कम नहीं लगती। दीवारों पर कुछ स्थानों पर देवियों की आकृति उकेरी गयी हैं परन्तु ऊपर की पंक्ति में काम कला का चित्रण किया जाना बताता है कि शिल्पकारों की मानसिकता किस प्रकार की थी। कई स्थानों पर काम कला की ऐसी मुद्राएं दिखायी देती हैं जो खजुराहों के मन्दिरों की याद दिलाती है। वैसे तो हिन्दुओं के सभी प्राचीन मन्दिरों में पण्डों का वर्चस्व हैं लेकिन जगन्नाथ पुरी में यह वर्चस्व भक्तों की भावनाओं को प्रताड़ित करने का रूप ले चुका है। मन्दिर परिसर में प्रवेश करते ही पंडे भक्तों को घेर लेते हैं। तन पर सफेद धोती और मुंह में पान। यही पण्डों की पहचान है, जो भक्त को भक्त नहीं मानो कोई धन पशु समझते हैं। पूजा के नाम पर कदम-कदम पर पंडे भक्तों से पैसे लेते रहते हैं। मुख्य मन्दिर के चारों ओर छोटे-छोटे मानव निर्मित मन्दिर बने हैं और सभी जगहों पर भक्तों से जबरन पैसा चढ़वाया जाता है।

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भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के सम्मुख मिलने वाली तुलसी से लेकर द्वार पर वितरित हो रहे चरणामृत तक सभी जगहों पर पंडे भक्तों से उनका हाथ पकड़कर पैसा मांग रहे हैं। न देने पर भक्तों को जो उनके मन में आए उलाहना देते हैं,अपमानित तक करते हैं। बहस करो तो शिकायत करने को खुद ही कहकर हंसते हैं,जानते जो हैं कि कोई भक्त उनकी शिकायत करने का साहस ही नहीं करेगा। यदि करेगा भी तो उसकी सुनवाई कौन करेगा? मुख्य मन्दिर में प्रवेश करने पर पंडे भक्तों को भगवान जगन्नाथ की कहलाने वाली छड़ी छुआते नहीं बल्कि मार भी देते हैं और इसके बदले भी उन्हें पैसा चाहिए। पैसा न मिलता देख भक्त को बाहर का रास्ता बता दिया जाता है।आम तौर पर हिन्दू धर्म के अनुयायी जानते हैं कि भगवान के मन्दिर जाने पर उन्हें प्रसाद मिलेगा लेकिन जगन्नाथ मन्दिर में ऐसा नहीं है। यहां तो प्रसाद खरीदना पड़ रहा है। प्रत्येक दिन अलग कीमत का प्रसाद। भगवान जगन्नाथ को प्रतिदिन छप्पन भोग का प्रसाद लगता है और उसके बाद वही प्रसाद बाजार में बिक्री के लिए रख दिया जाता है। गौरतलब है कि मन्दिर की प्राचीर पर ध्वज लगाए जाते हैं जिन्हें प्रतिदिन शाम को बदल दिया जाता है। उतारे हुए ध्वजों की भी बाजार सज जाती है और प्रत्येक ध्वज 100 में बिक्री के लिए रख दिया जाता है। ध्वजों को बदलने व बिक्री करने का अधिकार एक ही परिवार के पास है और उसके परिवार के सदस्य मन्दिर की प्राचीर पर चढ़ते हैं ध्वज बदलते हैं और उन्हें बेचते हैं। देखने और सुनने में यह सब कुछ अजीब लगता है लेकिन हकीकत में यह सब कुछ हो रहा है जो हमारी आस्था पर एक बड़ी चोट है। हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों की एक बड़ी समस्या गंदगी हो गयी है। यदि दक्षिण भारत के कुछ मन्दिरों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो सभी जगह गंदगी का साम्राज्य है। हिन्दुओं की आस्था के चार प्रमुख केन्द्रों में से एक जगन्नाथ धाम यहां भी गंदगी का ही बोलबाला है। गंदगी को छिपाने के लिए प्रशासन ने चूने का प्रयोग तो किया है लेकिन मन्दिर परिसर का प्रत्येक कोना यह बताता है गंदगी करने वालों को लाखों भक्तों की आस्था, भक्ति व स्तुति से कोई सरोकार नहीं। पुरी रेलवे स्टेशन से मात्र छह किलोमीटर की दूरी पर स्थित भगवान जगन्नाथ के इस मन्दिर में सिर्फ और सिर्फ हिन्दू ही प्रवेश कर सकते हैं। ऐसा क्यों है? अन्य धर्म का जगन्नाथ जी के प्रति श्रद्धा व आस्था रखने वाला कोई भक्त जगन्नाथ जी के दर्शन क्यों नहीं कर सकता? इसका जवाब जगन्नाथ जी मंदिर सूचना केन्द्र के पास भी नहीं है। मुस्लिम भक्त सालबेग की कथा तो दूसरे पार्ट में प्रमुखता से उल्लेखित की ही थी मैने,जिसकी मजार पर आज भी हर साल रथ यात्रा के दौरान जगन्नाथ जी का रथ अपने आप ही रुक जाता है। पंडे जरूर अपने-अपने तरीके से इस प्रश्न का उत्तर दे देते हैं। सैंकड़ों विदेशी पर्यटक भी बिना दर्शन किए भी भगवान विष्णु के ही एक रूप जगन्नाथ के रूप में उनकी भक्ति में डूबे दिखे।

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कुछ विदेशी पर्यटक भागवत गीता से जुड़े साहित्य का विक्रय करते भी मिले। अगले पार्ट 5 में आप पढ़ सकेंगे मेरी 8 दिवसीय सम्पूर्ण जगन्नाथ यात्रा के कुछ विशेष संस्मरण,अनुभव। जिनमें चंद्रभागा समुद्र संगम स्थल,लिंगाराजा मंदिर के भी अदभुत संस्मरण भी होंगे। तो विराट नंदन कानन की कई एक्सक्लूसिव बातें भी। पुरी का समुंदर क्यों अपनी तरफ खींचता है सबको? उसकी लहरें हमसे क्या कहना चाहती हैं ? आदि बहुत कुछ। आज इतना ही। जय श्री कृष्ण।