सनातन धर्म और चमत्‍कार

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सनातन धर्म और चमत्‍कार

सनातन धर्म का आधार वेद हैं। वेद के अनुसार इस सृष्टि का आधार एकमेव ब्रह्म है । ‘ब्रह्म’ और उसकी शक्ति ‘माया’ के द्वारा सृष्टि का उद्भव होता है। ब्रह्म चेतन है जबकि सृष्टि जड़ है। सृष्टियों का उद्भव और विलीन होनें का खेल चलता रहता है परंतु ब्रह्म का अस्तित्‍त्‍व सदैव रहता है। सभी वैदिक दर्शन इस मूल सिद्धांत को मानते हैं परंतु उनमें इतना ही अंतर है कि वे ब्रह्म, माया, जीव और सृष्टि की व्‍याख्‍या अलग-अलग दृष्टिकोण से करते हैं। कोई दर्शन इसे पुरुष और प्रकृति कहता है, तो कोई आत्‍मा और अनात्‍मा, तो कोई सत् और असत्।

हम सब भी सृष्टि के अंग हैं। इस प्रकार हमारा शरीर तो जड़ पंचमहाभूतों से बना है परंतु इसमें ब्रह्म का अंश ‘आत्‍मा’ के रूप में चेतना प्रदान कर रहा है इसलिए गति है, विचार है, अनुभव हैं। जैसे ही मृत्‍यु होती है, चेतना के अभाव में शरीर भी समाप्‍त होकर पंचतत्‍त्‍वों में मिल जाता है। जड़ सृष्टि से परे चेतनसत्‍ता का अनुभव करना और उसी में एकत्‍व प्राप्‍त कर लेना ही सनातन धर्म का लक्ष्‍य है ।

सनातन धर्म ब्रह्म तक पहुँचने के साधन के रूप में जगत् की अनिवार्यता को स्‍वीकार करता है इसलिए धर्म के दो पहलू हैं भौतिक प्रगति (अभ्‍युदय) और आंतरिक प्रगति (नि:श्रेयश) – यतोsभ्‍युदय नि:श्रेयस सिद्धि:स धर्म: (वैशेषिक दर्शन) । एक के बिना दूसरा संभव नहीं है। सनातनधर्म का उद्देश्‍य संसार में सुखी, वैभवशाली जीवन जीते हुए ईश्‍वर को प्राप्‍त करना है। तुलसीदास जी ने कहा है – सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुपति पुर जाहीं। अभ्‍युदय भौतिक जगत् में होता है इसलिए इसमें प्रकृति के नियम काम करते हैं और नि:श्रेयश आंतरिक जगत् में होता है इसलिए इसमें अध्‍यात्‍म के नियम काम करते हैं। पूरी सृष्टि नियमबद्ध है, इसे वेदों में ऋत् कहा गया है। जैसे सूर्य का उदय और अस्‍त होना, जन्म के बाद मृत्‍यु होना, बीज का वृक्ष बनकर फिर बीज बनना आदि। इनका कोई अपवाद नहीं है। जब हम नियम जानते हैं तो यह परिवर्तन सामान्‍य लगते हैं परंतु जब नियमों से अनभिज्ञ होते हैं तो जो घटना तर्क और बुद्धि से समझ में नहीं आती उसे चमत्‍कार कहते हैं।

प्रकृति जड़ है इसलिए नियमों से चलती है और इनका कोई अपवाद नहीं होता । गुरुत्‍वाकर्षण के कारण वृक्ष से फल नीचे ही गिरेगा। यदि इसे ऊपर जाना है तो विपरीत बल की जरूरत पड़ेगी। इसका अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए भौतिक जगत में कोई चमत्‍कार नहीं होता, सब के पीछे सुनिश्चित कारण होता है। जब तक भौतिक घटना के कारण की खोज नहीं की गई तब तक वह चमत्‍कार लगता है और कारण ज्ञात होते ही विज्ञान बन जाता है। बचपन की कहानी में बुढि़या जादूगरनी जादुई आईने में सारी घटनाएँ देखती थी तब हमें चमत्‍कार लगता था अब वही हम मोबाइल में देख रहे हैं, अब वह सामान्‍य बात है। कभी इंसान का हवा में उड़ना कल्‍पना था अब हवाई जहाज तो चमत्‍कार नहीं लगते। अभी भी भौतिक संसार में कुछ चमत्‍कार लग रहा है तो या तो विज्ञान के उस नियम की खोज नहीं हुई या हम इतने मूढ़ हैं कि कुछ समझना ही नहीं चाहते।

दूसरी ओर, आंतरिक जगत् के भी नियम हैं । कर्म का सिद्धांत उनमें से एक है। जन्‍म-जन्‍मांतरों की यात्रा में किये गये कर्म और उनके फलस्‍वरूप निर्मित प्रारब्‍ध का फल मिलता रहता है। इस पिछली यात्रा को हम नहीं जानते इसलिए कभी-कभी यह भी चमत्‍कार प्रतीत होता है परंतु होता नियमबद्ध ही है। यह नियम ही अध्‍यात्‍म कहलाते हैं। जिस प्रकार गुरुत्‍वाकर्षण को जानकर उससे पार जाने वाले अंतरिक्ष यान बना लिए गए उसी प्रकार अध्‍यात्‍म के नियमों को जानकार उनका पालन करके जगत के पार ब्रह्म तक की यात्रा संभव हो जाती है। आंतरिक चेतन जगत हमारे जड़ शरीर में है इसलिए जड़ शरीर पर प्रकृति के और आंतरिक जगत में अध्‍यात्‍म के नियम लागू होते हैं। इस प्रकार हमारा जीवन इन दोनों नियमों के संयोग से चलता है।

तीसरी स्थिति और है, वह है ब्रह्म की इच्‍छा, जो सर्वोपरि है। वेद कहते हैं कि ब्रह्म ने इच्‍छा की और वह एक से अनेक रूपों में प्रकट हो गया – एकोहम् बहुस्‍याम: (छांदोग्‍य उपनिषद)। यह इच्‍छा क्‍यों की? इसका कोई कारण किसी को पता नहीं है। वेद भी इसमें अपनी अनभिज्ञता स्‍वीकार करते हैं। ब्रह्म की माया शक्ति इशारे मात्र से सृष्टि का निर्माण कर देती है – भृकुटि विलास जासु जग होई – उसके लिए जड़ जगत में चमत्‍कार करना खेल ही तो है। हमारी चेतना ब्रह्म का अंश है। वह जड़ नहीं है, इसलिए नियम तो हैं परंतु कभी-कभी कुछ अपवाद उस चेतनसत्‍ता की इच्‍छा से होते हैं । इसे ही तुलसीदास जी कहते हैं – उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत राम गोसाईं। गीता में कृष्‍ण कहते हैं कि वह माया के द्वारा प्राणियों को यन्‍त्रचलित की तरह घुमाते हैं – भ्रमयन् सर्वभूतानां यन्‍त्रारूढानि मायया (गीता 18.61)। जब ऐसी घटना हमारे अनुकूल होती है तो उसे ईश्‍वर की कृपा कहते हैं और जब प्रतिकूल होती है तो उसे ईश्‍वर का कोप कहते हैं। इसका कोई कारण समझ में नहीं आता परंतु हो सकता है चेतना की ऊँचाइयों पर जाने पर इसका कारण जन्‍म-जन्‍मांतरों की यात्रा से निकल आए। तब तक तो यह ईश्‍वर की इच्‍छा ही है और हमारे लिए चमत्‍कार। परंतु ब्रह्म कोई निरंकुश तानाशाह नहीं है जो कुछ भी इच्‍छा करने लगे। सनातनधर्म, ब्रह्म को ज्ञानस्‍वरूप मानता है। परम सत्‍य के ज्ञान का मार्ग सदैव बुद्धि, विवेक और श्रद्धा से होकर जाता है। इसलिए ज्ञानस्‍वरूप ईश्‍वर की इच्‍छा भी सत्‍य पर आधारित होती है भले ही हम उसे न जानें और चमत्‍कार मान लें।

इस प्रकार सनातनधर्म चमत्‍कारों को तीन दृष्टियों से देखता है – भौतिक जगत में विज्ञान के रूप में, आंतरिक जगत में आध्‍यात्मिक नियमों के रूप में और सर्वोपरि ईश्‍वर की इच्‍छा के रूप में। भौतिक जगत के चमत्‍कार का अस्तित्‍त्‍व हमारी अज्ञानता और मूर्खता के कारण है। सांसारिक लोभ, मोह, स्‍वार्थ में आसक्‍त मनुष्‍य में वैराग्‍य और ईश्‍वर प्राप्ति की आकांक्षा पैदा होना क्‍या चमत्‍कार नहीं है? ऐसा चमत्‍कार आंतरिक जगत में तभी होता है जब पात्रता विकसित होती है और ऐसी पात्रता उपासना, तप, निष्‍काम कर्म आदि के माध्‍यम से चित्‍तशुद्धि होने पर आती है। ईश्‍वरीय चमत्‍कार उस परम चेतना की इच्‍छा से होते हैं और इनके लिए ही हम सदैव ईश्‍वर से प्रार्थना करते हैं। ऐसे चमत्‍कार को तुलसीदास जी ‘ कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ’ और वेद ईश्‍वर की ‘ अहैतुकी कृपा ’ कहते हैं।

जैसे गुरुत्‍वाकर्षण का नियम अंतरिक्ष में जाने वाली वस्‍तु को रोकने का प्रयास करता है इसी तरह प्रकृति भी अपने जाल से छूटकर परम चेतना की ओर यात्रा करने वाले साधक को तरह-तरह के विघ्‍न डालकर रोकती है। तुलसीदास जी कहते हैं कि जब आत्‍मानुभव की यात्रा होती है तो माया, रिद्धि-सिद्धि के माध्‍यम से प्रलोभन देती है – रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई। बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई ।। साधक को कुछ सिद्ध्यिाँ प्राप्‍त हो जाती हैं जिनसे उसे मान-सम्‍मान, प्रसिद्धि और ऐश्‍वर्य प्राप्‍त होता है और वह इनमें उलझकर अपनी साधना से पतित होने के साथ-ही-साथ अन्‍य लोगों को चमत्‍कारों से प्रभावित कर सनातनधर्म के मार्ग से विमुख कर देता है। इसलिए सनातनधर्म में चमत्‍कार और सिद्धियों को निकृष्‍ट मानकर उनसे बचने की सलाह दी गई है।

जो विश्‍वास पर आधारित रिलीजन, मजहब, पंथ हैं वे चमत्‍कारों पर विश्‍वास करते हैं। पर सनातनधर्म तो बोध का धर्म है (बोध, तर्क और विज्ञान के ऊपर की अवस्‍था है, अंधविश्‍वास का तो प्रश्‍न ही नहीं है), चमत्‍कार तो उसके मार्ग के कील-कंटक हैं जिन्‍हें हटाने के बाद ही आगे की यात्रा ही संभव होती है। गीता में भगवान् कहते हैं कि हम स्‍वयं ही अपने उत्‍थान-पतन के लिए जिम्‍मेदार हैं – उद्धरेद् आत्‍मनात्‍मानम् आत्‍मानम् अवसादयेत् (गीता 6.5), ईश्‍वर न पुण्‍य देता है न पाप देता है – नादत्‍ते कस्‍यचित् पापं न चैव सुकृतं विभु: (गीता 5.15) । ऐसे हजारों संदेश सनातनधर्म के ग्रंथों में दिये गये हैं।

जड़ प्रकृति में चमत्‍कार नहीं होते इसलिए जोशीमठ की दरारों को कोई चमत्‍कार से नही भर सकता। वहाँ विज्ञान ही काम आएगा। शरीर स्‍थूल पंचतत्‍त्‍वों से मिलकर बना है जिसके तीन स्‍तर हैं – स्‍थूल शरीर, शूक्ष्‍म शरीर और कारण शरीर। इसीमें चेतना का निवास है। शरीर की बीमारी का कारण स्‍थूल शरीर में हो सकता है और शूक्ष्‍म शरीर में भी। शूक्ष्‍म शरीर के कारण को ही आधुनिक भाषा में बीमारी का मनोवैज्ञानिक कारण कहते हैं। इस कारण को विचारों में परिवर्तन से ठीक किया जा सकता है, जैसा कि गीता में कृष्‍ण ने अर्जुन को उपदेश देकर किया। प्रकृति से बने शरीर की बीमारी को प्रकृति के नियम अर्थात् विज्ञान से ही ठीक किया जा सकता है। इसलिए तथाकथित चमत्‍कारी पुरुष भी चमत्‍कार से सभी बीमारों को ठीक नहीं कर सकते वे भी इलाज के लिए अस्‍पताल बनाने की बात करते हैं।

सनातनधर्म चमत्‍कार पर आधारित नहीं है। यह बोध का धर्म है। इसलिए चमत्‍कार और अंधविश्‍वास का सनातन धर्म में कोई स्‍थान नहीं है। यह तर्क करना कि दूसरे रिलीजन, मजहब, पंथ चमत्‍कार पर विश्‍वास कर रहे हैं तो हम भी करेंगे, वैसा ही है जैसे एक ऑंख वाले पड़ोसी से आगे निकलने के लिए अपनी दोनों आँखें फोड़ लेना। हाँ, ईश्‍वर अवश्‍य चमत्‍कार कर सकता है परंतु उसके लिए किसी माध्‍यम की जरूरत नहीं है। इसके लिए ईश्‍वर के प्रति समर्पण, उपासना, प्रार्थना और प्रभु का निमित्‍त बन जाने की साधना ही पर्याप्‍त है।