यह नहला पे दहला मारने का साल है…

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यह नहला पे दहला मारने का साल है…

यह साल बहुत कमाल का है। इस साल दल-दल के बीच नूरा कुश्ती चलने का खास रिवाज है। वही नेताजी जो बाकी सालों में विधानसभा सत्र के समय सदन में अपनी तेज धार और बाकी समय गले-गले तक एक-दूसरे संग प्रेमभाव में पगे नजर आते हैं, वह चुनावी साल में तो मंचों पर एक दूसरे पर आरोपों की बौछार करते ही दिखाई देते हैं। मंचों पर जब वह शब्द वाण चलाते हैं तो ऐसा लगता है कि नोंक जहर में डूबी है और घाव ऐसा करेगी कि चुनावी संग्राम में विपक्षी दल के खास नेता तो पूरी तरह स्वाहा ही हो जाएंगे। किसी भी राजनैतिक मंच के करीब पहुंच जाओ, दूसरे दल और उनके दिग्गज नेताओं पर निशाना लगाने वाले नेता देखते ही देखते देव की भूमिका में नजर आने लगते हैं और लगता यही है कि जिन पर वह तीर चला रहे हैं वह सभी मानव के वेश में असुर ही हैं। यह निशाना साधने का खेल ऐसा जादुई है कि आरोप लगाने वाले का चेहरा उस समय देव सा नजर आने लगता है और जिन पर आरोप लगते हैं उन्हें वह असुर साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ता।

यूं माना जा सकता है कि जो नेता मंच पर माइक पकड़ चिल्ला रहा हो, समझ लेना कि वह उस समय देव की भूमिका में है। जो नेता उसके मंच से कोसों दूर तक नजर न आएं और मंच पर माइक पकड़े नेताओं के निशाने पर हों, वह सब उस समय‌ के लिए असुर ठहरा दिए जाते हैं और जनता भी ताली बजाने में कोई कंजूसी नहीं बरतती। ताली तो ठीक बस चले तो सीटी भी बजाने लगे।अब इक्कीसवीं सदी में देव-असुर का यह खेल मंचों से कूदकर मोबाइलों तक पहुंच गया है। पहले एक शहर की बात एक शहर तक सीमित रहती थी और आपसी बोलचाल में एक-दूसरे तक पहुंच पाती थी। अब दुनिया सिमट गई है। दुनिया के किसी कोने में कुछ भी हो पर मिनटों में बात हर मोबाइल तक पहुंच जाती है और मोबाइल धारक की उंगलियां सरगम की तरह मोबाइल पर थिरककर आनंद लेने को आतुर हो जाती हैं। पहले मीडिया अपने आप को बहुत तुर्रम खां मानता था, पर अब हर मोबाइल तक मिनटों में सेंध लगाने वाला सोशल मीडिया तो उसका भी आका बन गया है। और मीडिया पर तो लोग उंगली उठाने की हिम्मत भी कर लें, लेकिन सोशल मीडिया पर तो देव को असुर और असुर को देव बनने में पल भर की देर ही नहीं लगती। एक वीडियो वायरल हुआ और कौन सा गोरा चेहरा कब कालिख से पुता नजर आने लगे, सोच से परे है। और ऐसे कारनामों के वायरल वीडियो कि देखने वालों की भी आंखें फटी की फटी रह जाएं।

तास का एक खेल है दहा पकड़। इसमें बेगम बादशाह इक्का तो अपनी जगह हैं,पर सबसे खास दहला होता है। चार लोगों के खेल में दो टीम होती हैं। आमने-सामने वाले खिलाड़ी एक टीम का हिस्सा होते हैं। जिस टीम ने ज्यादा दहला अपने कब्जे में कर लिए, वही विजेता बन जाती है। कई बार ऐसी स्थिति बनती है कि पहले तीन खिलाड़ी सबसे बड़ा पत्ता नहला डालते हैं और चौथा खिलाड़ी दहला डालकर बाजी मार लेता है। शायद इसी खेल से यह कहावत बनी होगी कि नहला पे दहला मारना। यानि कि सेर को सवा सेर मिल जाना। यह नहला पर दहला मारने का खेल चुनावी साल में प्रतिद्वंद्वी दलों के नेताओं का सबसे प्रिय खेल बन जाता है। अब यह 2023 का साल मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव का साल है। मध्यप्रदेश में पंद्रहवीं विधानसभा में दो नेता इन दिनों खासे तवज्जो वाले हैं।

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एक मुख्यमंत्री शिवराज और दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ। पंद्रहवीं विधानसभा (दिसंबर 2018 से दिसंबर 2023) के पहले पंद्रह महीने कांग्रेस की सरकार रही और मुख्यमंत्री कमलनाथ रहे। और उसके बाद नहला पर दहला मारने वाला बदलाव हुआ और कांग्रेस नेताओं के भाजपा में आने पर सरकार भाजपा की बन गई और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान बन गए। अब फाइनली 2023 का साल आ गया है। साल चुनावी है सो देव असुर का खेल तेजी पकड़ रहा है। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का जब जिसको मौका मिलता है, वह पूरी ताकत से उछालता है। बीसवीं सदी में तो भारत के गांवों और कस्बों में लोग कीचड़ की होली खेलकर साल भर का गुबार निकाल लेते थे। पर इक्कीसवीं सदी में कीचड़ की होली खेलना तो पूरी तरह बंद हो गया है। अब तो शब्दों से कीचड़ उछालने का खेल फुल फॉर्म में है।खास तौर से चुनावी साल में नेताओं के लिए कि जब जिस पर मन आए सो चुगली, निंदा और जैसे भी संभव हो सामने वाले का चीर हरण करके कीचड़ उछाल दो। चुनावी वेला में तो दल एक दूसरे पर मंचों से इतने कांफिडेंस से कीचड़ उछालते हैं कि सामने बैठी जनता को शक की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। जब नेता चले जाएं, तब जनता में खुसर पुसर शुरू होती और फिर जब तक दूसरे दल का नेता मंच पर आकर प्रतिद्वंद्वी दल और उनके दिग्गज नेता के कपड़े न फाड़ दे और यहां तक कि खाल ही नुची नजर आने लगे, तब पुरानी खुसर पुसर विराम लेकर नई चालू हो पाती है।

खैर इक्कीसवीं सदी में चुनावी साल का माहौल ऐसा है कि तुम नौ गाली दे रहे तो लो हम दस गाली देकर तुम पर भारी पड़े बिना नहीं मानेंगे। तुम नौ कमियां बता रहे तो लो हम तुम्हारी दस कमियां बताए बिना दम नहीं लेंगे। तुम नौ आरोप लगा रहे तो लो हम दस महा आरोप लगाए बिना दम नहीं लेने वाले। ग्यारह और बारह ही हो जाएं पर आठ पर नहीं रुकने वाले। और यह जो अतिरिक्त गाली, आरोप या कमियां हैं, यह दल को छोड़ व्यक्तिगत जीवन तक छलांग मार जाती हैं। यह सब भी नहला पर दहला मारने के चक्कर में ही हो रहा है। पर कई बार खुद को जनता का बड़ा हितैषी बताकर बड़ा फायदा उठाने के फेर में भी नेता नहला पर दहला मारने से नहीं चूकते।

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जैसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने लाड़ली बहना योजना की शुरुआत की, इसमें पात्र लाड़ली बहनों को साल भर एक हजार रुपए मासिक का उपहार मामा यानि शिवराज की सरकार देगी। अब चुनावी साल में तो हर योजना की चीरफाड़ तेज धार वाली कैंची से होती है। सो कमलनाथ के दल ने पहले तो योजना पर तिरछी नजरें डालकर चीर दिया और सोशल मीडिया पर परोस दिया। फिर कमलनाथ ने यह भी घोषणा कर दी कि मामा 12 हजार रुपए सालाना यानि एक हजार रुपए मासिक लाड़ली बहनों को दे रहे हैं और यदि उनकी सरकार बनी तो वह 15 सौ रुपए मासिक यानि साल भर में हर बहन को 18 हजार रुपए देंगे। तो बड़ा जनहितैषी बनकर जनता को लुभाने में यह भी हो गई नहला पर दहला मारने की बात। अभी दहला खतम नहीं हुए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पास भी बहुत हैं और नाथ यानि कमलनाथ के पास भी कमी नहीं है। और शिवराज के मंत्री, भाजपा संगठन के मुखिया विष्णु दत्त शर्मा और नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविंद सिंह और उनके दिग्गज नेता सबके पास दहला भरे पड़े हैं। जैसे-जैसे चुनाव पास में आएगा, वैसे-वैसे मध्यप्रदेश की गली-गली में नहला पर दहला का यह खेल और दम से खेला जाने वाला है।

मध्यप्रदेश तो बानगी है। वैसे इक्कीसवीं सदी में यही रिवाज बन गया है हर राज्य के विधानसभा और देश के आम चुनाव में नहला पर दहला मारने का, जिसमें पुरानी परंपरा के संग व्यक्तिगत आक्षेप का तड़का भी शामिल हो गया है। यह तड़का कभी फायदेमंद दिखता है तो कभी भारी नुकसान पहुंचाने में कामयाब हो जाता है। तो मतदाता भी नहला पर दहला मारने में पीछे नहीं है। वह सुनता सबकी है, पर अंतिम दहला वही मारता है। जिसमें दलों के मुगालते दसों दिशाओं में बिखरे-बिखरे नजर आते हैं। तो अभी-अभी तीन पूर्वोत्तर राज्यों त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में विधानसभा चुनाव में सबने खूब नहला पर दहला मारे और कमल खिल गया। अब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, कर्नाटक, मिजोरम और तेलंगाना में भी चुनाव इसी साल 2023 में हैं तो 2024 में लोकसभा चुनाव में तो नहला पर दहला मारने का काम पूरे देश में दिखना है। यही उम्मीद कर सकते हैं कि व्यक्तिगत से हटकर नहला पर दहला मारने का खेल जनहितैषी साबित करने पर सिमट जाए।