Jhuth bole Kaua Kaate: फिर जागा जिन्ना का जिन्न

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अखिलेश यादव की जुबान फिसली या उन्होंने जान-बूझ कर जिन्ना के जिन्न को जगा दिया, यह तो वही बेहतर बता सकते हैं। अखिलेश के बयान पर उप्र की राजनीति में सियासी धूम-धड़ाका जारी है। विधानसभा चुनाव तक जिन्न चिराग से बाहर निकला तो बड़े सियासी नफे-नुकसान देखने को मिल सकते हैं।

हरदोई में समाजवादी विजय रथ लेकर पहुंचे उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने भारत-रत्न सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा का अनावरण करने के बाद मोहम्मद अली जिन्ना को आजादी का नायक बता दिया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना एक ही संस्था से पढ़कर निकले। बैरिस्टर बने और उन्होंने आजादी दिलाई। आजादी के लिए हर तरह का संघर्ष किया। अखिलेश यादव की जुबान फिसली या उन्होंने जान-बूझ कर जिन्ना के जिन्न को जगा दिया, यह तो वही बेहतर बता सकते हैं। अखिलेश के बयान पर उप्र की राजनीति में सियासी धूम-धड़ाका जारी है। विधानसभा चुनाव तक जिन्न चिराग से बाहर निकला तो बड़े सियासी नफे-नुकसान देखने को मिल सकते हैं।                                                                    Jhuth bole Kaua Kaate
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश यादव की सोच को तालिबानी बताया। योगी ने कहा, “मैंने अखिलेश का भाषण सुना। वे राष्ट्र को जोड़ने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल की तुलना देश तोड़ने वाले जिन्ना से कर रहे थे। यह बेहद शर्मनाक है। अखिलेश यादव को देश से माफी मांगनी चाहिए।” योगी ने अखिलेश पर पर निशाना साधते हुए कहा कि “पहले इन्होंने समाज को जाति के नाम पर तोड़ने की साजिशें रचीं, मंसूबे पूरे नहीं हुए तो अब महापुरुषों पर लांछन लगाकर पूरे समाज को अपमानित करने का प्रयास किया जा रहा है। सरदार पटेल का अपमान देश स्वीकार नहीं करेगा। प्रदेश और देश की जनता अखिलेश को हरगिज स्वीकार नहीं करेगी। अखिलेश को अपने इस बयान के लिए देश के लोगों से माफी मांगनी चाहिए।”
बसपा सुप्रीमो मायावती ने अखिलेश के बयान को सपा-भाजपा की मिलीभगत बताया। उन्होंने कहा, सपा मुखिया द्वारा जिन्ना को लेकर दिया गया बयान व उसे लपक कर भाजपा की प्रतिक्रिया यह इन दोनों पार्टियों की अन्दरुनी मिलीभगत व इनकी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है ताकि यहां यूपी विधानसभा आमचुनाव में माहौल को किसी भी प्रकार से हिन्दू-मुस्लिम करके खराब किया जाए।                                        Jhuth bole Kaua Kaate
अखिलेश यादव के बयान पर एआईआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने भी निशाना साधा। उन्होंने कहा, “भारत के मुसलमान ने 1947 में फैसला कर लिया था कि वो पाकिस्तान नहीं जाएंगे। जिन्ना से हमारा कोई ताल्लुक़ नहीं है। अखिलेश यादव को ये समझना चाहिए कि वो ये बात करके सोच रहे हैं, कोई एक तबका इससे ख़ुश होगा तो वो ग़लत हैं।” दूसरी ओर, कुछ देवबंदी उलेमाओं ने अखिलेश यादव के बयान को सही और दुरुस्त बताया।
वैसे, जिन्ना को लेकर बहस पहली बार नहीं छिड़ी है। भारतीय राजनीति में इससे पहले भी जिन्ना का जिन्न चिराग से बाहर आता रहा है। जिन्ना की तस्वीर को लेकर 2018 में जबरदस्त विवाद हो चुका है। इस तस्वीर को लगाए जाने का मामला अलीगढ़ भाजपा सांसद सतीश कुमार गौतम ने उठाया था। यह तस्वीर 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में लगाई गई थी।
तब बरेलवी मसलक की सबसे बड़ी दरगाह आला हजरत से मोहम्मद अली जिन्ना के खिलाफ फतवा जारी किया गया था। फतवे में कहा गया कि जिन्ना दुश्मन मुल्क का हिस्सा है और उसी ने मुल्क का बंटवारा करवाया है। इसलिए ऐसे व्यक्ति की तस्वीर हर जगह से उतार लेनी चाहिए। जमीयत उलेमा ए हिंद के राष्ट्रीय महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने भी कहा कि हमारे बुजुर्गों ने जिन्ना को अपना आदर्श नहीं माना और न ही उनके द्विराष्ट्र सिद्धांत का समर्थन किया। जबकि, संभल के पूर्व सपा सांसद और मुलायम सिंह यादव के करीबी डॉ. शफीकुर्रहमान बर्क ने चेतावनी दी कि एएमयू से जिन्ना की तस्वीर हटाई गई तो देश का माहौल बिगड़ जाएगा।
गोरखपुर से तत्कालीन सपा सांसद (अब संत कबीर नगर से भाजपा सांसद) प्रवीन निषाद का कहना था कि भारत को आजादी दिलाने में गांधी का जितना योगदान था उससे कम योगदान जिन्ना का नहीं था। इस मुद्दे पर जानबूझकर राजनीति की जा रही है। जबकि, मणिशंकर अय्यर ने जिन्ना की तारीफ करते हुए “कायद-ए-आजम” कहकर विवाद को हवा दी थी। वहीं, शिवसेना के मुखपत्र सामना में अपने एक कॉलम में संजय राउत ने लिखा था कि अगर गोड्से ने महात्मा गांधी की जगह जिन्ना की हत्या की होती तो शायद देश का विभाजन रोका जा सकता था।
झूठ बोले कौआ काटे
बोले तो, भारत की राजनीति में 2005 में जिन्ना को लेकर जबरदस्त घमासान तब हुआ था, जब भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी अपने पाकिस्तान दौरे पर मुहम्मद अली जिन्ना की मज़ार पर गए थे। उन्होंने जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष शख़्स बताया था। केंद्र सरकार में वित्त और विदेश मंत्री रह चुके जसवंत सिंह ने भी जिन्ना की जमकर तारीफ की थी। उन्होंने तो जिन्ना पर किताब लिखी थी जिसका नाम ‘जिन्ना- भारत, विभाजन और स्वतंत्रता’ था। 2009 में आरएसएस के पूर्व प्रमुख के. एस. सुदर्शन ने भी जिन्ना की तारीफ़ की थी। सुदर्शन ने कहा था कि जिन्ना राष्ट्र के प्रति समर्पित थे। उन्होंने कहा था, “जिन्ना पहले राष्ट्रवादी थे, लेकिन बाद में नाराज़ हो गए और अंग्रेज़ों ने उनके मन में विभाजित राष्ट्र के बीज बो दिए।”
सच तो ये है कि जिन्ना ने केवल 1920 तक भारत के स्वतंत्रता संग्राम में रचनात्मक भूमिका निभाई, जब तक उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा नहीं दे दिया। कांग्रेस से इस्तीफे के बाद, उनके विचार उत्तरोत्तर संकीर्ण और मुस्लिम केंद्रित होते गए और 1940 के दशक तक, उनका दृढ़ मत था कि मुसलमानों का एक अलग देश होना चाहिए। जिन्ना वास्तव में स्वतंत्रता सेनानी तो थे, जैसा कि समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश ने अपने भाषण में कहा, लेकिन उन्हें गांधी, नेहरू और पटेल के साथ जोड़ने को तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता, न ही यह कोई अवसर था। जिन्ना का तो एक स्वतंत्र मुस्लिम-केंद्रित एजेंडा था और वह मुस्लिम स्व-शासन या द्वि-राष्ट्र सिद्धांत में दृढ़ता से विश्वास करते थे।                                                                                                                                                                Jhuth bole Kaua Kaate, 30 जुलाई, 1945 को मुस्लिम लीग के नेता अब्दुल रब नस्तर ने ‘लेट पाकिस्तान स्पीक फार हर सेल्फ’ में लिखा था, ‘पाकिस्तान खून बहाकर ही प्राप्त किया जा सकता है। जरूरी हुआ तो गैर-मुस्लिमों का रक्त भी बहाया जाएगा।’ कोलकाता मुस्लिम लीग के तत्कालीन सचिव ने ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ पर कहा था, ‘हम हलफ लेते हैं या अल्लाह हमें काफिरों पर फतेह दीजिए, जिससे हम हिंदुस्तान में इस्लाम का राज स्थापित कर सकें।’ मोहम्मद बिन कासिम से लेकर ओसामा और अफजल गुरु तक ऐसी ही कट्टरपंथी आतंकी सोच का एक लंबा इतिहास है। इस्लामी मामलों के अंतरराष्ट्रीय विद्वान प्रोफेसर डेनियल पाइप लिखते हैं, ‘पिछली सदी के आठवें दशक के उत्तरार्ध में भारत के कट्टरपंथी आक्रामक हो गए। उनके दंगे पहले स्थानीय थे, फिर वह एक शहर से दूसरे शहर में फैलने लगे।’.
बोले तो, इस्लामी विद्वान एफके दुर्रानी ने ‘मीनिंग आफ पाकिस्तान’ में लिखा, ‘पाकिस्तान का निर्माण इसलिए अहम था कि उसे आधार बनाकर शेष भारत का इस्लामीकरण किया जाए।’ पाकिस्तान की स्थापना भारत विरोधी मकसद में कामयाब रही। पाकिस्तान देश नहीं, सैनिक छावनी है। पाकिस्तानी सेना में मिसाइलों के नाम भी गजनी, गौरी पर रखे गए हैं। जम्मू-कश्मीर की ताजा घटनाएं भी पाकिस्तानी षड्यंत्र का हिस्सा हैं। अमेरिकी सरकार की तरफ से 2011 में किये गए एक अध्ययन के अनुसार, पाकिस्तान के स्कूलों की पाठ्य पुस्तकें हिंदुओं और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए पूर्वाग्रह और घृणा को बढ़ाती हैं।                                          download 3
यह घृणा ही थी कि लाहौर में लाला लाजपत राय की मूर्ति को 1947 में नष्ट कर दिया गया। श्री गंगा राम हॉस्पिटल जिनके नाम पर पड़ा, जिस परोपकारी इंजीनियर ने लाहौर की कई खूबसूरत इमारतों का निर्माण किया था। लाहौर के मॉल पर लगी इनकी भी प्रतिमा को कट्टरपंथियो द्वारा नष्ट कर दिया गया। पेशे से बैंकर दयाल सिंह जिनके नाम पर लाहौर में एक कॉलेज का निर्माण किया गया उनकी भी मूर्ति इसी तरह तोड़ दी गई। गांधी जी की मूर्ति को कराची स्थित सिंध हाईकोर्ट में लगाया गया था। इसे भी दंगाइयों ने नष्ट कर दिया और नष्ट मूर्ति को इंडियन हाईकमीशन के हवाले कर दिया गया, जिसने मूर्ति का पुनर्निर्माण कराया। वर्तमान में ये मूर्ति इस्लामाबाद स्थित इंडियन हाई कमीशन में लगी हुई है।
यही नहीं, ऑल पाकिस्तान हिंदू राइट्स मूवमेंट ने एक सर्वे कर बताया था कि बंटवारा के समय पाकिस्तान में 428 मंदिर मौजूद थे, लेकिन 1990 आते-आते इन सभी मंदिरों को धीरे-धीरे कब्जे में लेकर यहां दुकानें, रेस्टोरेंट, होटल्स, दफ्तर, सरकारी स्कूल या फिर मदरसे खोल दिए गए। सर्वे में आरोप लगाया गया कि पाकिस्तान सरकार ने इवैक्यूई प्रॉपर्टी ट्रस्ट बोर्ड को अल्पसंख्यकों की पूजा वाले स्थलों की 1.35 लाख एकड़ जमीन लीज पर दे दी थी। इस ट्रस्ट ने ही इन सारे मंदिरों कि ज़मीन हड़प ली।
ऐसे में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत विभाजन की घटना को याद रखने की अपील करते हैं, तो क्या गलत? भारत को बंटवारे की इसी विचारधारा ने तोड़ा था। पाकिस्तानी मुल्क की मांग के पीछे भी यही विचारधारा थी। जिन्ना का नाम बंटवारे, घृणा की इसी विचारधारा से जुड़ा है। उसे आप इतिहास से भले न मिटा पाएं, म्यूजियम के हवाले तो कर सकते हैं। किसी दफ्तर में महिमामंडित करने की क्या आवश्यकता? इसी तरह अनावश्यक जिक्र करने की भी जरूरत नहीं। लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन्ना की मज़ार पर जाकर सेक्युलर कह देने भर से भारतीय राजनीति के हिन्दू-हृदय सम्राट लालकृष्ण आडवाणी का करियर भी चौपट हो गया। बोले तो, शत्रुघ्न सिन्हा, जसवंत सिंह भी जिन्ना की प्रेत छाया से नहीं बचे।
झूठ बोले कौआ काटे, सपा-बसपा आसन्न विधानसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी की एंट्री से घबराए हुए हैं। 2017 के पहले मुस्लिम विधायकों की खासी संख्या इन्हीं दोनो दलों से जीतती आई थी। 2012 के विधानसभा चुनावों में कुल 64 मुस्लिम विधायक चुनकर आये थे, जो कि अभी तक का रिकॉर्ड था। इनमें से 41 सपा, 15 बसपा, 2 कांग्रेस और 6 अन्य थे। इससे पहले 2007 में 56 मुस्लिम विधायक थे, जिनमें से 29 बसपा, 21 सपा व 6 अन्य दलों के थे। जबकि, 2017 में मोदी-योगी की आंधी में केवल 24 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। सपा के टिकट पर 16, बसपा के पांच और कांग्रेस के दो मुस्लिम प्रत्याशी जीत सके थे। इसीलिए, अखिलेश को आशंका है कि कुछ फीसदी मुस्लिम वोट ओेवैसी के साथ जुड़ गए तो सपा मुश्किल में पड़ सकती है। तभी, अखिलेश ने जिन्ना के बहाने अपना एम-कार्ड चला है। यह कोई जुबान फिसलना नहीं है। जिन्ना के जिन्न को जगाना या उसे चुनाव तक चिराग से निकालना कितना नफा-नुकसान देगा यह तो नतीजे ही बताएंगे।