अपनी भाषा अपना विज्ञान : वायु का विज्ञान – हवा हवाई? नहीं, ठोस

मारुतं धारयेत स्तुत मुक्तो मात्र संशयः । वायु का संयम करने से मनुष्य मुक्त हो जाता है, इसमें सन्देह नहीं | - ‘उपनिषद्’

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अपनी भाषा अपना विज्ञान : वायु का विज्ञान – हवा हवाई? नहीं, ठोस

वायु पंचमहाभूतों में से एक है । न केवल जीवन, वरन पदार्थ मात्र के अस्तित्व के मूलाधारों में से एक है ।
इस धरती पर जीवन इसीलिये सम्भव हुआ कि यहाँ काफी शुरू से वायुमण्डल का आविर्भाव हुआ । बहुत से ग्रहों पर वायुमण्डल नहीं है । जिन पर है, उसकी संरचना जीवन के अनुरूप नहीं । सही मात्रा में विभिन्न गैसों के अनुपात वाला वायुमण्डल हमें ही नसीब है । यह जीवन को रचता है, उसे पोसता है और उसकी रक्षा करता है । वायुमण्डल की संरचना में होने वाला किसी भी प्रकार का असामान्य परिवर्तन निःसन्देह समस्त चेतन व यहां तक कि अचेतन जगत पर अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता ।
मनुष्य जाति के कार्यकलापों के बगैर या उसके पहले भी कुछ कारक ऐसे हैं जो वायुमण्डल को प्रदूषित करते रहे हैं

प्रदूषण के प्राकृतिक स्त्रोत कारक

  1. ज्वालामुखी : उदाहरण पाम्बई इटली भूकम्प
  2. जंगलों की आगः उदाहरण पिछले वर्ष दक्षिण पूर्व एशिया
  3. आँधियाँ: धूलकण, रेत कण, लवण कण
  4. वनस्पति : सड़ती हुई, पराग कण, बूंद के कण, भूसे में फंगस,दलदल व धान के खेतो की मीथेन गैस
  5. जीव जन्तुओं से निकलती गैसें – मरने से पहले व बाद ।
  6. पहाड़ों की ओट में निचले स्थल
  7. शीत काल में ठंडी हवा का नीचे निथरना ।
  8. गर्म पानी के स्त्रोतों/गीजर आदि से निकलती गैसें ।
    प्राकृतिक कारणों की तुलना में मानव विभिन्न कारण कई गुना अधिक भयावह व विकराल हैं। उनके स्वास्थ्य सम्बन्धी दुष्प्रभावों की चर्चा के पूर्व हम प्रदूषण के कारणों, प्रकारों आदि की संक्षिप्त समीक्षा करेंगे ।

प्राथमिक प्रदूषक :- उन पदार्थों को कहते हैं जो स्वतंत्र रूप से पहली बार उत्पन्न होकर प्रदूषण का कारण बनते हैं । उनका किसी अन्य पदार्थ से सम्मिलित नहीं होता ।

द्वितीयक प्रदूषक :- ये उस अवस्था में बनते है जब प्राथमिक प्रदूषक का किसी अन्य तत्व या यौगिक से सम्मिलत या रासायनिक प्रक्रिया होती है व नया पदार्थ बनता है, जिसके गुण अवगुण भिन्न होते हैं।
इन कणों का निष्पतन(प्रेसीपिटेशन) या तो सूखे (शुष्क रूप) में हो सकता है या आर्द्र (गीले) कण में ।
उदाहरण:- सल्फर डायआक्साइड गैस + पानी : सल्क्यूरिक अम्ल (अम्ल वर्षा)

प्रदूषण के स्त्रोतों को वर्गीकृत करने का एक और तरीका है :-

  • चल स्त्रोत :- कार, मोटर आदि
  • अचल स्त्रोत :- ताप ऊर्जा संयंत्र, अन्य कारखाने आदि ।

प्रदूषण के प्रमुख स्त्रोतों का योगदान :-

  • वाहन आवागमन 55%
  • ताप ऊर्जा संयत्र 17%
  • अन्य उद्योग 15%
  • कृषि जनित 7%
  • अन्य कूड़ा/विष्ठा का जलाया जाना 4%

प्रमुख प्रदूषक तत्वों योगिकों का परिचय :-

  1. कार्बन मोनो आक्साइड :- रंगहीन, गन्धहीन गैस । वाहनों के ईधन के अल्प ज्वलन से पैदा होती है । अधिक मात्रा में बेहोशी व मृत्यु का कारण बन सकती है । कम मात्रा में प्राय: पता ही नहीं चलता है कि क्या असर कर रही है परन्तु अब माना जाता है कि मन की सजगता, स्मृति, चिंतन, नेत्र ज्योति का पैना पन आदि प्रभावित होते हैं । सरदर्द, चक्कर आना, जी मिचलाना, श्वांस लेने में तकलीफ होना ।
  2. सल्फर डाय आक्साइड गैस :- कोयला व तेल के जलने से उत्पन्न । अन्य उद्योगों से भी निकलती है । अम्ल वर्षा के लिये प्रमुख रूप से जिम्मेदार । यह गैस पानी में बहुत घुलनशील है । इसलिये ऊपरी श्वांस मार्ग में ही अवशोषित हो जाती है । फेफड़ों में नीचे गहराई तक नहीं पहुँचती । मुख्य श्वांस नली (ट्रेकीया व ब्रोकाई) की अन्दरूनी सतह पर स्थित तंत्रिका धागों (न्यूरल फाइबिल्स) को उत्तेजित करती है । खाँसी व कफ पैदा होते हैं । दम घुटता है । वनस्पतियों को नष्ट करती है । धातुओं में क्षरण होता है ।
  3. नाइट्रोजन के आक्साइड :- वाहनों व अन्य मशीनों में होने वाले अति उच्च पात पर ज्वलन से ये गैसे व कण निकलते हैं । शहर के क्षितिज व आकाश पर टँगे धुंए + कोहरे में व्याप्त हल्का पीला भूरा रंग इन्हीं आक्साइड के कारण होता है । पानी में कम घुलनशील होने से ये पदार्य फेफड़ों की श्वास नलिकाओं के दूरस्थ , महीन जाल तक पहुँचते हैं । हरे पत्तों को क्षति पहुँचाते हैं व धातुओं पर विपरीत प्रभाव डालते हैं । अम्ल वर्षा होती है ।
  4. उड़नशील कार्बनिक यौगिक :- मुख्यतया हाइड्रोकार्बन गैसोलीन( पेट्रोल आदि) व अन्य घोलक (साल्वेंन्ट) के जलने व वाष्पीकृत होने से पैदा होते है । कार्बन डाइआक्साइड के साथ मिलकर ग्रीन हाउस प्रभाव पैदा करते हैं । धरती पर आने वाली सूर्य की ताप ऊर्जा जब परावर्तित होकर अंतरिक्ष में लौटती है तो वायुमण्डल में इन पदार्थो का आधिक्य उसे रोकता है धरती का तापमान बढ़ता है । ये केंसर जनक हो सकते हैं ।
  5. ओजोन गैस की अधिकता – सूर्य की किरणों की मौजूदगी में कार्बनिक यौगिक व नाइट्रोजन के आक्साइड, ओजोन पैदा करते हैं । यह नुकसान दायक है आँखो में जलन पैदा करती है, श्वांस सम्बन्धी रोगों को बढ़ावा देती है, फसलों को नुकतान पहुचाती है ।
  6. निलम्बित कण या पदार्थ :-
    दस या 15 माइक्रान से बड़े आकार के कणों में निथरने की प्रवृत्ति होती है । ये कण नाक, गला व मुख्य श्वांस नली में ही रोक लिये जाते हैं । इन्हें FUGITIVE DUST कहते हैं ।
    उदाहरण पराग कण, धूल भरी आँधी, उद्योग धंधों में उड़ने वाली विशिष्ट प्रकार की धूलें| दाल मिल । दीर्घअवधि (क्रानिक) के श्वांस रोगों में इन कणों की कोई भूमिका नहीं । शायद केंसर की उत्पत्ति में कुछ योगदान हो सकता हो ।
    b. दस मिली माईक्रोन से छोटे इनके स्त्रोत हैं वाहन/उच्च ताप पर ज्वलन वाले उद्योग । गैस, धुएँ व भाप के घनीकरण से पैदा होने वाले । ईधन जलाने वाले उद्योग । कुछ स्वतः वातावरण में पैदा होते हैं । श्वसन तंत्र को उद्दीप्त करते हैं। छेड़ते हैं । प्रकाश संश्लेषण में बाधा । स्पष्ट दृश्यता में बाधा । चिड़चिड़ाहट । धातुओं में क्षरण | ये कण अपने साथ अन्य धातुएं व् उनके साल्वेंट नेट्रेट आदि लवण भी धारित किये रहते हैं।
    c २ .५ से 10 .० माइक्रॉन आकार वाले कण बड़े व खुरदुरे कहे जाते हैं। ये प्रायः रवे दार पदार्थो से निकलते हैं। जैसे – सिलिका, एल्युमीनियम, लोहा, आदि। २ .५ से छोटे कण महीन कहलाते हैं। गहराई में बैठते हैं। उदाहरण – सल्फेट, नाइट्रेट, कार्बनिक यौगिक
    d. सबसे छोटे कण – 1 माइक्रोन – वायु प्रवाह में बने रहते हैं | श्वांस के साथ अन्दर जाते हैं | बाहर आ जाते हैं | सिर्फ संयोग वश कभी चिपक जाते हैं, ठहर जाते हैं|

कुछ अन्य कारक जो विशिष्ट उदाहरणों के रूप में सीमित स्थानों पर पाए जाते हैं

  • एस्बेस्टस – अभ्रक
  • सिलिका – मंदसौर का स्लेट, पेन्सिल उद्योग|
  • सीमेंट |
  • कोयला खनन व उद्योग
  • कपास व कपडा उद्योग में उड़ने वाले कण
  • अनाज के धूल कण
  • सदा गला भूसा में फफूँद
  • इमारतों में लगाने वाली आग के धूएँ के प्रभाव
    मिथाइल आइसो सैनाईट भोपाल (१९८४)
  • सुगन्धित अमिन व अल्दीहाइड
  • धातुएं – लोहा, मैगनीज, पारा, कैडमियम, सीसा
    (पेट्रोल में से हटाने की प्रक्रिया अपने देश में अब शुरू हुई हैं), बेत्रिज़ अलौह धातु संयंत्र| अनेक अंगों पर प्रभाव| नपुंसकता| मन्दबुद्धिता | चिड़चिड़ापन |
  • हाइड्रोजन क्लोराइड
  • हाइड्रोजन सल्फाईट(बदबू)
  • क्लोरिन
    (आँख में जलन)
  • एजेंट ओर्रंन्ज
  • युद्ध में रासायनिक गैसें
    (मस्टर्ड गैस आदि |प्रथम विश्व युद्ध)

अम्ल वर्षा :-
अम्ल वर्षा, प्रदूषण के मूल उदगम स्थल से सैकड़ों मील दूर हो सकती है । वायु/बादलों के बहने की गति व दिशा पर निर्भर करता है ।
सामान्य वर्षा में अत्यन्त कम मृदु अम्लता होती है (पी. एच. 5.71)
औद्योगिक व वाहन प्रदूषण के कारण होने वाली वर्षा में अम्ल अधिक सान्द्र व तीव्र बनता है । खट्टे पानी की बरसात । पी. एच. 2.0 – 3.0 । मुख्यतया सल्फर डाय आक्साईड व नाइट्रोजन के आक्साईड के कारण । शुष्क अवस्था में ये कण विभिन्न सतहों पर जमा हो सकते हैं । बाद में पानी मिलने पर उसे अम्लीय बना सकते है । शुष्क अम्लीय वर्षा । उदाहरण नार्वे के पहाड़ों व् झीलों में ठंड में जमी बर्फ पर अम्ल इकट्ठा होता । ग्रीष्म ऋतु में बर्फ पिघलने से बने पानी में अम्ल का घुलना व् मछलियों का मरना । अम्लीय पानी मृदा व खानों से धातु तत्वों को खींच निकालता है तथा जल प्रदूषण की विकारलता बढ़ाता है ।
फसलों व जंगलो को नुकसान पहुँचती है । पत्थर व धातुओं में क्षरण करती है उदाहरण आगरा में ताजमहल, न्यूयार्क में स्टेच्यू आफ लिबर्टी, पेरिस में नोत्रेदाम का गिरजा । इमारतों का रंग बिगड़ता है । कपड़ो, रबर ब कागज को खराब करता है ।
कार्बनफ्लोराकार्बंन्स :- के कारण वायुमण्डल की ऊपरी ओजोन परत का क्षय होता । प्रशीतक (रेफ्रीजरेटर, एयर कण्डीशनर) अन्य उड़नशील एयरोसोल वस्तुओं इत्र, शेविग क्रीम मे से कार्बनफ्लोरो कार्बन योगिक रिसते हैं । ऊपरी वायुमण्डल में जमा होते हैं । बाह्य ओजोन परत को नष्ट करते हैं ।
दक्षिणी ध्रुव एण्टार्टिका के ऊपर यह हानि अधिक हुई है । ओजोन परत उपयोगी है ब्रहमाण्ड से आने वाली नुकसानदायक पराबैंगनी व अन्य किरणों को रोकती है । वरना चमड़ी का केन्सर व दूसरे रोग बढ़ जाते हैं | नई अन्तरराष्ट्रीय सन्धि के अनुसार कुछ ही वर्षों में इन योगिकों का उत्पादन व उपयोग बंद किया जाना है ।
भूरे शहर :- पुराने, अति औद्योगिक शहर जैसे न्यूयार्क, किला देल्फिया, डेट्रायर आदि । ठण्डा व आर्द्र मौसम । कोयले के ताप संयंत्र । सल्फर डाय ऑक्साईड के धुएँ (स्मोक) का कोहरे के साथ घातक सम्मिश्रण
कत्थई शहर :-
नयी बसाहट के, कम औद्योगीकृतशहर, गर्म मौसम । धूप की अधिकता । आसपास भौगोलिक रुकावटे जैसे पहाड़, घाटी । वाहनों की अधिकता । कार्बन मोनो आक्साइड व नाइट्रोजन के आक्साईड की फोटो रासायनिक क्रिया से ओजोन पैदा होती है ।
रोगों के उदाहरण
भारतीय व अन्य प्राचीन पारम्परिक चिकित्सा पद्दतियों में कफ, पित्त वात नामक त्रिदोषों को महत्व दिया जाता है । वायु या हवा के लगने से पक्षाघात जैसे रोग होने की कल्पना की जाती रही है । मलेरिया शब्द की उत्पत्ति खराब हवा से हुई । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिये उपरोक्त तथ्यों का अब सिर्फ ऐतिहासिक महत्व है ।

स्वास्थ्य पर वायु का प्रभाव अनेक प्रकारों से पड़ता है :-

  1. वायु की मात्रा/दवाब का कम या अधिक होना ।
    ऊँचे पहाड़ों पर वायुदाब कम होता है । आक्सीजन कम मिलती है । मैदानी लोग यकायक पहाड़ों पर हाँफने लगते हैं । गोताखोरों को अधिक वायुदाब का सामना करना पड़ता है ।
  2. वायु के माध्यम से विभिन्न प्रकार के संक्रामक रोगों का फैलना ।
    अनेक बेक्टीरिया, वायरस, फंगस आदि जीवाणु वायुमण्डल में व्याप्त होते हैं । एक मनुष्य से दूसरे तक फैलते हैं । कुछ नजदीकी स्तर पर कुछ दूर-दूर तक पहुँचते है ।
    बंद स्थान में बहुत से लोग । इमारतें|
  3. विशिष्ट सीमित स्थानों पर वायु में किन्ही ख़ास तत्वों का मिल जाना । उदाहरण पिछले भाग में दिये गये ।
  4. सर्वव्यापी प्रदूषण – जिसके प्रमुख तत्वों की चर्चा पिछले भाग में की गई । इन प्रभाव बृहद रूप में बड़ी जनसंख्याओं या पूरे विश्व पर पड़ता है और उनकी तुलना मुख्यत: धुम्रपान के प्रभावों से की जा सकती है, केवल केन्सर छोड़कर ।

स्वास्थ्य पर वायुप्रदूषण का प्रभाव निम्न कारणों पर निर्भर करता है

  • वायु में निलम्बित कणों का आकार ।
  • उक्तकणों की अन्य भौतिक विशिष्टता जैसे घुलनशीलता ।
  • कणों की रासायनिक संरचना ।
  • जैविक व अजैविक कणों व्दारा व्यक्ति के शरीर में इम्यून प्रतिरोधी क्रिया उत्पन्न होना । सब लोग समान रूप से एलर्जिक नहीं होते ।
  • जीवाणुरूपी कणों की संक्रमण जन्यता ।
  • वायु में प्रदूषक तत्वों का घनत्व
  • प्रदूषक तत्वो से सामाना करते रहने की अवधि
  • प्रदूषण की निरन्तरता या रुक-रुक कर होता ।
  • व्यक्ति की उम्र, उसका सामान्य स्वास्थ्य तथा सबसे महत्वपूर्ण उसके फेफड़ों व ह्रदय का स्वस्थ होना ।शरीर के अंग तंत्र जो वायुप्रदूषण से प्रभावित होते हैं
    1- सबसे प्रमुख श्वसन तंत्र – फेफड़े
    2- हृदय तंत्र
    3- तंत्रिका तंत्र
    4- रक्त तंत्र
    5- त्वचा

श्वसन तंत्र के रोग
अधिकांश मामलों में ऊपरी श्वसन तंत्र प्रभावित होता है । अर्थात नाक, गला, स्वर यंत्र, ट्रेकिया ।
अकेले अमेरिका में सिलिका व अभ्रक की धूल से 23 लाख कर्मचारी प्रभावित होंगे । खनन व अनेक उद्योगों में इनका सामना करना पड़ता है । लगभग एक लाख से अधिक को फेफड़े सम्बन्धी रोग होते हैं ।
मिनरल कणों द्वारा फेफड़ों में तंतु ऊतक(फाइब्रस टिशु) की अधिकता हो जाती है । फेफड़े सिकुड़ जाते हैं । फैल नहीं पाते । प्रति एक श्वांस में अन्दर बाहर होने वाली वायु का आयतन घट जाता है ।
जैविक आर्गनिक व अन्य रासायनिक कणो द्वारा फेफड़ों में श्वात नलिकाओं के सिकोड़ने की विकृति बढ जाती है । श्वास बाहर निकालने में अधिक तकलीफ होती है । अस्थमा व कोनिक ब्रोइकाइटिस जैसी अवस्था पैदा होती है ।
फैकड़ो की कार्यक्षमता के परीक्षा करने से ये खराबियां मापी जा सकती है । काम की पाली पर जाने से पहले व बाद के परीक्षण में ख़ासा परिवर्तन देखा जा सकता है।
फेफड़ों में रोग बढ़ने से रक्त में आक्सीजन कम घुलती है । फेफड़ों से बहने वाले रक्त का दबाव बढ़ जाता है । हृदय के दाहिने भाग में को अधिक जोर लगाकर पम्पिंग करना पड़ती है अन्ततः हृदय थकने लगता है, फेल होने लगता है ।
अत्यन्त छोटे व वृद्ध लोग अधिक प्रभावित होते हैं। लन्दन (1952 में हुई 4000 से अधिक मौतें इसी विधि हुई थी।
छाती के X- रे और अब सी.टी. स्केन में अनेक विकृतियाँ देखी जाती है हालाँकि श्वसन क्षमता से उनका सीधा सम्बन्ध नहीं होता।
वायुप्रदूषण रोग के आपसी सम्बन्ध की पुष्टि सदैव आसान नहीं होती।
वायु प्रदूषण व रोग के आपसी संबंध की पुष्टि सदैव आसान नहीं होती। मरीजों से विस्तृत हिस्ट्री इतिवृत्त पूछना पड़ता है। काम का प्रकार, काम के घंटे, उपयोग में आने वाले पदार्थों के रासायनिक नाम, उन्हें उपयोग में लाने की विधियाँ, कार्यस्थल के कमरों का आकार, वायु का आदान-प्रदान वेंटिलेशन। नौकरी धंधे के अलावा अन्य अवसरों का लेखा-जोखा। पुराने नौकरी धंधों की जानकारी।
वायु प्रदूषण को नापने का नैदानिक महत्व भी विभिन्न मामलों में कम ज्यादा हो सकता है। भूतकाल में भोगे गए प्रदूषण को आज नहीं आँका जा सकता।

यकायक तीव्र प्रदुषण काफी नुक्सान कर जाता हैं| पर समय रहते नापा नहीं जा सकता| बाहर का प्रदूषण किस हद तक घरों में प्रवेश करता है तथा कितना समय अंदर बाहर गुजारा जाता है, यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है।

अन्य नैदानिक जाँचें
मूत्र में भारी धातुओं की मात्रा मापना|
उदाहरण धातु संयंत्र कर्मियों में आर्सेनिक
सेल बैटरी या बनाने वाले कर्मचारियों में कैडमियम
चिकित्सा कर्मियों में टीबी की जाँचें|
ऊन, छटाई कर्मियों में एंथ्रेक्स।
पोल्ट्री, कबूतर कर्मियों में हिस्टोप्लास्मोसिस
पालतू पशु पक्षी (पेट) दुकानदारों में सिटकोसिस।
बूचड़खाना कर्मचारियों में फ्लू फीवर।
फेफड़ों की बायोप्सी।
वायु प्रदूषण और कैंसर
सर्वव्यापी प्राइस वायु प्रदूषण से शायद कैंसर का प्रत्यक्ष संबंध नहीं है। लेकिन सीमित विशिष्ट स्थानीय किस्म के वायु प्रदूषण का कैंसर से संबंध हो सकता है| तीक्ष्ण पैनी नजर वाले क्लीनिकल चिकित्सक की भूमिका महत्वपूर्ण है। अत्यंत दुर्लभ से या कम पाए जाने वाले कैंसर यदि इन्हीं लोगों में अधिकता में देखे जाने लगे तो संदेह बढ़ता है।
उदाहरण –

  • निकल धातु का काम करने वालों में नाक के साइनस व फेफड़ों का कैंसर।
  • विनाइल क्लोराइड से यकृत में (लीवर) एनजीओ सार्कोमा।
  • लकड़ी के काम से नाक का एडिनोकार्सिनोमा।
  • रेडियम व मूत्राशय का कैंसर(अब समाप्त)।
  • अन्य संभावित कारण – आरसैनिक/बेरिलियम/क्रोमियम/कोक/कोयला/ मस्टर्ड गैस|

इमारतों के अंदर की वायु स्वास्थ्य
विकसित देशों में अधिकाधिक लोग अपना कार्य का समय दफ्तरों की बड़ी इमारतों में गुजारते हैं वहाँ का वातावरण कृत्रिम रूप से नियंत्रित किया जाता है। वायु का प्रवाह, परिवर्तन की दर, तापमान, आर्द्रता आदि गुणों पर नजर रखी जाती है। परंतु बहुत कुछ छूट जाता है उन्हें भ्रांतिमान इमारतों के अंदर के वायु का भी स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। नया विज्ञान है।
प्रमुख उदाहरण

संक्रामक रोगलेगो नर्स रोग, पांती एक ज्वर, सर्दी जुकाम, ट्यूबरक्लोसिस

इम्यूनिटी (प्रतिरोधक क्षमता) संबंधी रोग -आर्द्रता बुखार
अतिसंवेदनशील निमोनिया
चर्म रोग, खाज, खुजली
नाक बहना
अस्थमा, दमा ।

प्रत्यक्ष उद्दीपन:-
संपर्क से पित्ती
चूल्हे का धुँआ व फेफड़ों के रोग
निष्क्रिय धूम्रपान
चूल्हे का धुँआ
भारत में प्रतिवर्ष 5 से 6 लाख महिलाओं के अतिरिक्त मृत्यु चूल्हे के धुएँ के कारण होती है। जैविक पदार्थों को जलाने से निकला धुँआ अधिक नुकसानदायक होता है। वेंटिलेशन के अभाव से अनेक घंटों तक धुआँ बना रहता है।
निष्क्रिय धूम्रपान
घर व दफ्तरों को बंद कमरों में धूम्रपान से, अन्य लोगों को भी उसके बुरे असरों का सामना करना पड़ता है। बच्चों के लिए बेहद नुकसानदायक है।
एयर कंडीशनर:- एयर कंडीशनर, ह्युमिडिफायर आदि की नालियों में पुरानी धूल, बेक्टेरिया, फंगस आदि जमा होते जाते हैं
इमारत में लगने वाला सामान: पेंट्स, रंग, फाइबर ग्लास, आदि अनेक नए प्रकार के सामानों का उपयोग बढ़ता जा रहा है। फोम, गद्दे में फार्मेल्डीहाइड का उपयोग होता हैं इन्ही पदार्थों के कारण इमारतों में आग लगने पर उनसे निकलते धुएँ में अनेक जहरीली गैस होती हैं। अग्निशामक कर्मचारियों को इनका सामना करना पड़ता है।

रोकथाम के उपाय और भविष्य की संभावनाएँ
भविष्य के गर्भ में आशाएँ और आशंकाएँ दोनों निहित है। मानव जाति की मेधा और सद् बुद्धि पर बहुत कुछ निर्भर करता है। घड़ी के काँटों को पीछे नहीं मोड़ा जा सकता। जन संख्या बढ़ेगी। उपयोग बढ़ेगा। इसका अंत कहां होगा? शायद असंतुलन का कोई बिंदु आएगा।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक वैज्ञानिक उपाय किए जा रहे हैं। निम्न प्रदूषकों के नियंत्रण का प्रावधान है –

सल्फर डाइऑक्साइड

निलंबित करणी पदार्थ( 10 माइक्रोन से छोटे)

ओजोन

सीसा

कार्बन मोनोऑक्साइड

नाइट्रोजन के ऑक्साइड

उड़नशील कार्बनिक यौगिक

कार्बन फ्लोरोकार्बन्स

यह सूची देश और काल के अनुसार बदलेगी। प्रदूषकों की सुरक्षित सीमा के मानक स्तर भी समय-समय पर संशोधित हो सकते हैं। कानूनों की सफलता उनके परिपालन पर निर्भर करती है। हमारा भारत प्रगतिशील कानून बनाने में आगे परंतु उन्हें लागू करने में पीछे रहता है।
लोगों में इस समस्या के प्रति जागरुकता होना चाहिए। ज्ञान बढ़े। जानकारी बढ़े। राजनीतिक व प्रशासनिक जवाबदेही बने। आम जनता को शिक्षित किया जाए। खास स्थानों पर खास प्रकार के प्रदूषण के संबंध में मजदूरों को आगाह रखा जाए। पोस्टर, पुस्तिकाएं, चेतावनी आदि लगी हों। बचाव के मानक उपकरण हों। नियत समय पर बार-बार स्वास्थ्य परीक्षण किए जाएं। शीघ्र उपचार की व्यवस्था हो। काम के बाद कपड़े बदले। स्नान करें।

मानव जाति के इतिहास में पाषाण युग से लेकर मध्यकाल तक, अर्थात औद्योगिक क्रांति के पहले तक धरती का वायुमंडल साफ़ सुथरा था। प्रदुषण नहीं था । अब उस युग में लौटना संभव नहीं है। जहा है वहां रुकना भी संभव नहीं है । फिर क्या होगा? सर्वनाश! नहीं, डरिये मत। ऐसा कुछ नहीं होगा। 1950-60 के दशक में अर्थशास्त्री सायमन कुजनेत ने एक मौलिक सिद्धांत प्रस्तुत किया था जो आज भी सत्य है। आरम्भ में उसे आर्थिक विकास और आर्थिक असमानता के रिश्तों परलागू किया गया था। बाद में उसे वातावरणीय प्रदुषण पर भी प्रतिपादित किया गया।

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चित्र – वातावरणीय कुजनेत कर्व

औद्योगिकीकरण और विकास के आरंभिक दशकों में कम आय वाले देशों में वायु तथा वातावरण के अन्य घटकों की गुणवत्ता बिगड़ती है। आय बढ़ते बढ़ते एक स्तर ऐसा आता है कि समृद्धि के साथ साथ प्रदुषण कम होने लगता है। विकसित देश आज उस स्थिति में पहुँच चुके है। वहां के शहरों की हवा, हमारे यहाँ से बेहतर है। चीन और फिर भारत भी कुछ वर्षों में शायद प्रति व्यक्ति आय की वह दर प्राप्त कर लेंगे जब प्रदुषण-विरोधी नीतियाँ व नियम आदि लागू कर पाना आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से संभव होगा।

विज्ञान द्वारा समस्या का हल होना, नई समस्या पैदा होना, पुनः उसे हल करना यह प्रक्रिया सतत चलने वाली है। उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। अपनी मानसिक प्रवृत्ति के अनुरूप निराशावादी लोग सदैव कहर के अंदेशे से दुखी रहते हैं|
मैं आशावादी हूँ| एक कदम पीछे हटकर, तीन कदम आगे बढ़ने की चाल जारी रहेगी। अधिक जागरूक कानून बनेंगे| नए वाहनों से प्रदूषण कम होगा। ऊर्जा के नए साफ-सुथरे स्त्रोत विकसित होंगे। उद्योगों में प्रदूषण नियंत्रण की नई कारगर, पर कम महँगी तकनीकें विकसित होगी। शिक्षा का प्रसार बढ़ेगा। प्रदूषणजनित बीमारियों के शीघ्र निदान व उपचार की नई विधियाँ विकसित होगी।
यह सब आसानी से नहीं होगा हिचकोले लेकर होगा। चमत्कार से नहीं होगा। सतत धीमे प्रयासों से होगा| यह लेख ऐसे ही प्रयासों में से एक है…..