Analysis Before Election:Part 10- हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण से मोदी-भाजपा की जीत-हार तय होगी
अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनाव किसी भी लिहाज से सहज,सरल,आसान नहीं हैं। ये भाजपा और विपक्ष के भविष्य का निर्धारण तो करेंगे ही, साथ ही यह भी सुनिश्चित करेंगे कि कांग्रेस की इस देश की राजनीति में क्या भूमिका रहेगी? वह फिर से इस देश का नेतृत्व करने का माद्दा रखती है,विपक्ष का नेतृत्व कर सकती है या जनता व गैर भाजपा विपक्ष द्वारा भी खारिज कर दी जाती है। यह एक और बात प्रमुखता से तय करेंगे कि नरेंद्र मोदी अभी-भी स्वीकार्य है या नहीं? खुद नरेंद्र मोदी के लिये भी ये चुनाव बेहद मायने रखते हैं। दस वर्ष तक लगातार प्रधानमंत्री रहने वाले देश के पहले गैर कांग्रेसी और पहले भाजपाई प्रधानमंत्री मोदीजी भाजपा को लगातार तीसरी बार केंद्र में पदस्थ करा पायेंगे? मोदी के लिये भी ये चुनाव इसलिये भी अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण रहेंगे कि वे अपने तिलस्म को बरकरार रखते हुए भाजपा की सीटें 303 से अधिक कर पायेंगे? मोदीजी का तिलस्म कायम रहे या टूटे,इतिहास तो लिखा जायेगा।
याने वर्ष 2024 के आम चुनाव ऐतिहासिक,अविस्मरणीय और भविष्य की दिशा निर्धारण करने वाले भी होंगे। यह सब तो होगा ही, यह खास तौर से देखा जायेगा कि हिंदू-मुस्लिम मतदाता किस तरह से ध्रुवीकृत हुआ है और इस ध्रुवीकरण ने देश की राजनीति पर क्या असर डाला है। बतौर मतदाता हमारी अपनी भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं रहने वाली।
यूं कहने को 2014 से पहले भी भारत के मुस्लिम मतदाता का झुकाव कभी-भी जनसंघ या भाजपा के पक्ष में नहीं रहा। उसने राज्य या केंद्र की जरूरत के हिसाब से मतदान किया, जो किसी के भी पक्ष में रहा हो, किंतु जनसंघ-भाजपा के पक्ष में नहीं रहा। याने मुस्लिम मतदाता ने कांग्रेस,समाजवादी पार्टी,बहुजन समाज पार्टी,वामपंथी,तृणमुल कांग्रेस,राष्ट्रवादी कांग्रेस,आम आदमी पार्टी आदि,इत्यादि से परहेज नहीं किया। मुस्लिम वर्ग भारत का एकमात्र समुदाय है, जिसे मतदान के लिये कोई भ्रम नहीं रहा। जबकि हिंदू बहुल देश भारत का बहुसंख्यक वर्ग मतदान के मामले में कभी संगनमत नहीं रहा। भारतीय बहुसंख्यक मतदाता ने केंद्र और राज्यों में यदि जनसंघ और भाजपा का साथ दिया भी तो वह कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के खिलाफ था।धार्मिक आधार नहीं रहा।जबकि मुस्लिम मतदाता ने धर्म के आधार पर मतदान किया,जबकि शेष भारतीय मतदाताओं ने टुकड़ों-टुकड़ों में बंटकर मतदान किया। 2024 के चुनाव इस बात को एक बार फिर से रेखांकित करेंगे।
इस चुनाव में एक गड़बड़झाला होने की आशंका है। अनेक राज्यों में कुछ क्षेत्रीय दल का प्रभुत्व बढ़ रहा है। जैसे तेलंगाना में बीआरएस,बंगाल में तृणमुल कांग्रेस,तमिलनाडु में डीएमके,पंजाब-दिल्ली में आप,केरल में वामपंथी,आंध्र में वायएसआर(युवजन श्रमिक रिथउ पार्टी) । इनके बढ़ते वर्चस्व के मद्देनजर लोकसभा चुनाव के समय विपक्षी एकता में इनका अहंकार आड़े आ सकता है। खासकर,संयुक्त विपक्ष के नेतृत्व के लिये और सीटों के बंटवारे पर। इस मुद्दे पर यदि रायता फैला तो कांग्रेस समेत विपक्ष को इसे समेटना भारी पड़ सकता है। तब भाजपा की राह अपेक्षाकृत आसान हो जायेगी।
वैसे भाजपा इस बात का इंतजार नहीं करेगी कि विपक्ष का एका होता है या नहीं और वे सीटों का बंटवारा केसे करेंगे। उन्होंने मैदान अभी से संभाल लिया है और संगठन की मजबूती पर काम शुरू हो चुका है। उनके नेताओं के अलग-अलग मसलों पर देश के दौरे भी प्रारंभ हो चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सक्रियता बढ़ चुकी है। उनके लिये ये चुनाव पिछले दो चुनावों से ज्यादा महत्व के हैं। एक तो इसलिये कि वे तीसरी लगातार जीत के साथ इतिहास बनाना चाहेंगे। दूसरा, कांग्रेस के साठ साला कार्यकाल में बहुसंख्यक वर्ग की उपेक्षा, सनातन परंपराओं की अनदेखी,गलत इतिहास की प्रतिस्थापना,आर्थिक मोर्चे पर पिछड़ापन, रक्षा क्षेत्र में विकसित देशों पर अवलंबन और दुनिया में भारत की कमतर प्रतिष्ठा की खाई को भरने का जो युद्ध स्तर पर अभियान प्रारंभ किया गया है,उसे अंजाम तक पहुंचाना बाकी है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि मोदीजी के नेतृत्व में भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो प्रतिष्ठा मिली है और मोदीजो को विश्व नेता की मान्यता मिली है, उसे कायम रखना जरूरी है। इससे तरक्की की राह आसान होगी।इसलिये मोदीजी राई-रत्ती भर कसर नहीं छोड़ेंगे। ऐसे में भाजपा और शेष विपक्ष में भारी रस्साकशी होना ही है।
अंतत: बागडोर तो जनता के हाथ में रहेगी। उसे तय यह करना है कि देश को आगे कैसे ले जाना है, किसके नेतृत्व में ले जाना है,सनातनी परंपराओं की निरंतरता कायम रखनी है,आत्म निर्भर और उन्नत राष्ट्र बनाना है,बहुसंख्यकों के हितों के पोषण के साथ सबका सा्थ-सबका विकास के मंत्र पर चलना है या फिर से तुष्टिकरण,अल्पसंख्यक हितों को प्राथमिकता,अपनी ढपली,अपना राग आलापने वालों को देश सौंप देना है।चाहे देश के विकास की गाड़ी पटरी छोड़ दे या देश एक ही परिवार की जागीर की तरह चलाया जाये, जहां योग्यता और सरकार संचालन की समझ की बजाय चापलूसी और भाई-भतीजावाद को तवज्जो दी जाये।
इस खेल में अंतिम समय में फेंके गये पांसे तो मायने रखेंगे ही, साथ ही जनता को कौन मुफ्त में कितना परोस सकता है, वह भी देखा जायेगा। यह भी तय होगा कि मुफ्तखोरी का असर देश के आम चुनाव को प्रभावित कर पाते हैं या नहीं ?
(समाप्त)