रविवारीय गपशप: अफसरी की इज्जत और दांव पर नौकरी!
यूँ तो प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होने का मतलब ही होता है कि आप प्रदेश में कहीं भी पदस्थ किए जा सकते हैं, पर अपवाद स्वरूप कुछ ऐसे अधिकारी भी होते हैं जिनकी नौकरी प्रदेश के किसी एक विशिष्ट भाग में ही सेवा करते निकल जाती है। संयोग से मैंने प्रदेश के सभी हिस्सों में अपनी नौकरी का सेवाकाल गुजारा है। चाहे वह अविभाजित मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ का हिस्सा हो या महाकौशल, भोपाल स्टेट, बुन्देलखण्ड, मालवा या मध्यभारत का भाग हो, सो इस बहाने प्रदेश के सभी हिस्सों से मैंने अलग अलग अनुभव इकट्ठे किए हैं। प्रदेश इतना बड़ा है कि हर हिस्से की अपनी विशेषताएँ हैं।
जब मैं उज्जैन में पदस्थ था, तो मेरे मित्र श्री विनोद शर्मा के कुछ मित्रों ने जो ग्वालियर के निवासी थे, मेरे नाम की सिफ़ारिश ग्वालियर नगर निगम कमिश्नर के लिए कर दी। मुझे जब ये खबर लगी तो मैं असमंजस में पड़ गया, क्योंकि मालवा के उज्जैन जैसे ज़िले से ग्वालियर जाने के नाम पर कुछ बैचेनी होना लाज़मी था। संयोग से प्रस्ताव पर अंतिम मुहर नहीं लगी, लेकिन ग्वालियर का अन्न-पानी लिखा था तो दो वर्ष बाद मेरी पदस्थापना ग्वालियर विकास प्राधिकरण के मुख्य कार्यपालन अधिकारी के पद पर हो गई। ग्वालियर आते ही मौसम के अतिरेक प्रभाव का अनुभव हो गया। जुलाई के महीने में गए थे, सो उमस और गर्मी से बच्चे इतने परेशान हुए कि पहली बार परिवार के लिए एसी ख़रीदना पड़ा। ग्वालियर में ठण्ड और गर्मी दोनों ही चरम पर होते हैं। ठण्ड के दिनों में तो दसियों दिन सूरज के दर्शन नहीं होते और गर्मियों में रात के दो बजे भी लू चलती रहती है। अलबत्ता बाक़ी जिन बातों के लिए मन में शंकाएँ थीं वे सब ग्वालियर जाकर दूर हो गयीं। ग़ज़ब के मिलनसार लोग, बढ़िया बाज़ार, बेहतरीन भोजन, यानी मौसम की बेरहम मार को सहन कर लो तो सब कुछ बढ़िया। सरकारी अफ़सर की कुछ अतिरिक्त इज्जत भी मैंने महसूस की और नमूना तब मिला जब मैं परिवहन में उपायुक्त हुआ।
इंदरगंज चौराहे पर पहले हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच थी और चौक में महाराज सिंधिया की मूर्ति है। इसलिए इसे कभी कोई इंदरगंज चौक कहता है, कभी हाईकोर्ट चौराहा, पर आम लोग बोलचाल में इसे घोड़ा चौक कहते थे, क्योंकि मूर्ति घोड़े पर सवार है। चौक के आसपास उनदिनों नई-नई दुकानें खुल रही थीं और उनमें से एक थी स्पोर्ट्स शूज़ की दुकान, जिसमें रिबॉक और एडीदास जैसी कंपनियों के जूते मिला करते थे। एक किसी छुट्टी के दिन मैं बच्चों को साथ ले कर उस दुकान में जूते लेने गया। छुट्टी का दिन था तो ड्राइवर आया नहीं था, इसलिए जीप मैं ही ड्राइव कर रहा था। दुकान के सामने जीप खड़ी कर पहले मैंने बच्चों को उतारा और फिर जीप को घुमाकर किनारे लगाने लगा तो बाहर खड़ा सिक्योरिटी का जवान मुझसे कहने लगा, ”अरे साहब यहीं लगे रहने दो, क्यों परेशान हो रहे हो?” मैंने भी सोचा कि थोड़ी देर की ही तो बात है और जब इसे परेशानी नहीं तो अपने को क्या? मैं गाड़ी वहीं खड़ी कर दुकान के अंदर चला गया और थोड़ी देर में अपनी ख़रीदी पूरी कर जब वापस लौटा तो देखता क्या हूँ कि उस सिक्योरिटी गार्ड से कोई बहस कर रहा है। मैं अपना सामान लिए जब पास आया तो वार्तालाप से समझ गया कि दूसरा बन्दा दुकान का मलिक था और वो गार्ड से कह रहा था कि दुकान के गेट के ठीक सामने वाहन क्यों खड़ा होने दिया।
मुझे देख सिक्योरिटी गार्ड कुछ अतिरिक्त उत्साह से भर उठा और बोला “तू देख रहो है जे गाड़ी कौन की है? गाड़ी में लगी पीली बत्ती की और इशारा करते हुए उसने आगे कहा, तोरे कई जनम निकल जाएँगे जे बत्ती वाली गाड़ी लेने में और तू इनें रोक रओ है कि गाड़ी यहाँ काय लगाय दई? “मुझे लगा ये तो मुझे जानता भी नहीं है और मेरी वजह से डाँट खा रहा है तो मैंने दुकान के मालिक से कहा “भाईसाहब मेरी गलती है, आप इसको कुछ ना कहो, बस मैं जीप हटा ही रहा हूँ। दुकान का मालिक तो मेरी माफ़ी से संतुष्ट लगा पर वो सिक्योरिटी गार्ड वैसा ही तना रहा और जीप में बैठने के बाद जब मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई तो हुमक कर उसने मुझे सेल्यूट किया। उस दिन अफ़सरी की इज्जत करते करते उसने नौकरी दांव पे लगा दी।