प्रकृति के प्रति आभार – नवाई की पूजा

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प्रकृति के प्रति आभार – नवाई की पूजा

आदिवासी समाज में सबसे ज्यादा महत्त्व और आस्था प्रकृति के प्रति होती है. प्रकृति द्वारा ही उनका जीवन यापन संभव है अत: हर समय वे अपनी श्रद्धा को पूजन के माध्यम से व्यक्त करते है. ऐसा ही पूजन नवाई या नवई के समय भी किया जाता है.

आदिवासी संस्कृति के जानकार सुरेश भयडिया, ग्राम राक्सला के बताते है कि — नई फसल आने पर सुविधानुसार नवाई हर गांव में अलग अलग दिन मनाया जाता हैं. प्राय: यह पर्व गुरूवार को मनाया जाता है. इनका दिवासा पर्व भी गुरूवार के दिन ही मनाते है क्योंकि आदिवासी समाज गुरूवार के दिन को देव का दिन मानते है. इस दिन गाँव के सभी लोग मदमस्त होकर सुप्टा की धुन पर नाचते गाते है. सुप्टा मोटे बाँस से बना बांसुरीनुमा वाद्ययंत्र होता है तथा इसे अप्रेल माह से दशहरा तक बजाते है और फिर उसके बाद पतले बाँस की बांसुरी बजाते है जो मार्च माह तक प्रयोग की जाती है.

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जब बारिश के सीजन में फसलों के निकलने पर जिले के आदिवासी अंचलों में नवाई त्योहार मनाना शुरू हो जाता है. जब खाने योग्य सब्जी, ककड़ी, भुट्टों की फसल तैयार हो जाती है तब सबसे पहले वे धरती माता और प्रकृति की पूजा कर उनसे प्रतीकात्मक उपयोग में लेने की अनुमति प्राप्त करते है.

आदिवासी समाज के गांव पटेल, पुजारा व वारती के लिए निर्णय अनुसार अलग-अलग गांवों में अलग अलग दिनों में नवाई पर्व मनाया जाता है.

नवाई सारे गांव के लोग बुजुर्ग, तड़वी, बड़वा, कोटवाल और पुजारा मिलकर विचार करते हैं,और फिर नवाई पर्व का दिन तय कर दिया जाता है नवाई त्योहार दो दिन का होता है. पहले दिन घर गाय के गोबर से लीप कर साफ–सफाई की जाती है और रात्रि में गायणा गाया जाता है जिसमें गायण (लोक गीत) द्बारा प्रकृति, अपने गांव के पारंपरिक देवता, कुलदेवता, बाबा गणेह, बाबीमाता, बाबादेव, जहमा माता, कसुमर देव, भोला ईश्वर, देवी माता तथा धरती के सभी देवताओं एवं पूर्वजों, खतरीस देवता आदि को इस पर्व में निमंत्रित करने का आह्वान किया जाता है.

उस दिन गांव के सभी बड़े बुजुर्ग उपवास करते हैं,और फसल का एक एक हिस्सा भुट्टे, ककड़ी, भिंडी, चोला (चवला फली), दालें आदि नए धान को अपने गांव के पारंपरिक देवता, कुलदेवता बाबीमाता, बाबादेव, जहमा माता, कसुमर देव, भोला ईश्वर के तय स्थानों पर चढ़ाया जाता है.

यहाँ पर पूजा अर्चना भी की जाती है. इसके बाद घर के सभी वयोवृद्ध पुरुष असमी (महुआ के रस की धार) डालते हैं एवं नेवज (प्रसाद) दी जाती है, पूजा की जाती है इसके बाद सभी नए अन्न को ग्रहण करते हैं.

यह पर्व सम्पूर्ण भारत भर के आदिवासी मनाते है हालाँकि क्षेत्र के अनुसार इस पर्व के नाम में भिन्नता होती है.

आदिवासी समुदाय में इस दिन खेतों में खड़ी नई खरीफ की फसल (धान) जैसे- ककड़ी, भुट्टा, भिंडी, चवला, मूंग, ज्वार आदि घर लाकर मिश्रित व्यंजन बना कर #पूर्वज (खत्रीज) व #देवी_देवता को भोग लगाया जाता है व #पूजा_पाठ की जाती हैं..!

जब तक नवाई नहीं होता हैं तब तक घर के बड़े बुज़ुर्ग नए धान का उपयोग भोजन के रूप में भी नहीं करते हैं और न ही घर के अंदर लाने की अनुमति होती हैं हाँ बच्चे इसे घर के बाहर खा सकते है.

आदिवासी समाज में नवाई त्यौहार होने के बाद ही नए खरीफ फसल (धान) का उपयोग किया जाता है.

 

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ग्राम में नवाई के निश्चित दिन सुबह से घर का एक व्यक्ति खेत में जाकर ककड़ी, चवले, भुट्टे आदि लेकर इन्हें कुलदेवी के स्थल पर रख देता है. घर के मुखिया महिला व पुरुष द्वारा उपवास रखा जाता है. दिन ढलने पर खाना (चावल, छांछ में चवले की दाल) बनाई जाती है. जिस परिवार में कोई भी गमी नही हुई या किसी का दाहड़ा (बारवां) नहीं रुका हुआ है उन घरों में गोबर का चीरा चुल्हे से दरवाजे तक निकालकर “वास” डाली जाती एवं जिनके घरों में दीपक नहीं जल रहा है या किसी का मृत्यु के बाद दाहड़ा (बारहवां) होना बाकी है वहां पर पान पर खाना रखकर कुलदेवी की पूजा अर्चना की जाती है. परिवार संचालन व खेती में उपयोग आने वाली सभी स्थानों व औजारों पर नई ककड़ी काटकर रखी जाती है. जिसमें मोहली, दरवाजे, ओखली, घट्टी, चूल्हा, हल, बख्खर आदि जगह पर चढा़ने व प्रकृति की पूजा अर्चना के पश्चात घर में आए हुए मेहमानों खाना खिलाया जाता एवं अंत में घर के मुखियाओं के द्वारा भोजन ग्रहण किया जाता है.

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बस्तर के रामप्रसाद मौर्य बताते है कि – बस्तर क्षेत्र में सावन में हरियाली अमावस्या के आसपास फसलों की सुरक्षा के निमित्त अमूस तिहार मनाया जाता है वहीं भादो में नई फसल के भोग का नुआखाई पर्व मनाया जाता है.

नुआ का अर्थ ‘नया’ और खाई का अर्थ ‘खाना’ होता है. आज के दिन घर में नए धान के चावल की पूजा-अर्चना कर देवी-देवताओं को भोग लगाया जाता है. बस्तर में कुछ धान की किस्में जल्द तैयार हो जाती हैं. उस धान की बालियों को अपने ईस्ट देवी देवताओं को अर्पित कर सामूहिक रूप से ग्रहण करने की परंपरा नुआखाई हैं.

“नुआखानी पर्व चो गपा-गपा बधाई, शुभकामनाएं आउर सबके खुबे खुबे मया।“

“चिवड़ा, कुड़ई पान और होने वाली नई बहु शादी से पहले ससुराल में नवाखाई आमंत्रण के विशेष महत्व।।“

कुटुंब के सदस्यों की गड़ना और आशीर्वाद प्राप्त करने की यह अनूठी परंपरा है.

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नुआखाई/नवाखानी/नवाखाई शब्दों में विभिन्नता हैं परंतु अर्थ एक हैं, यह मूलत: ओडिशा राज्य का त्यौहार है. यह पर्व छत्तीसगढ़-ओडिशा सीमा से लगे जिलों बस्तर, कोंडागांव, सुकमा, दंतेवाड़ा, बीजापुर व कांकेर के कुछ हिस्से में विशेष उत्साह व धूमधाम से मनाया जाता है. नुआ का अर्थ ‘नया’ और खाई का अर्थ ‘वर्ष का पहली फसल को ईष्ट देवों की अनुमति से भोग लगाकर खाना’ होता है. आज के दिन घर में नए धान के चावल की पूजा-अर्चना कर देवी-देवताओं को भोग लगाया जाता है.

नुआखाई के अवसर पर देवी-देवताओं की पूजा की जाती है. साथ ही पूर्वजों का भी स्मरण किया जाता है और कुटुंब की गड़ना की जाती है और पैर छूकर आशीर्वाद लिया जाता है. उसके बाद अच्छी फसल की कामना और खुशी में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है. नवखाई तिहार में शादी से पहले होनी वाली बहु को आमंत्रित कर पितर में मिलाया जाता हैं, गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि शादी से पहले पारिवारिक सदस्यों की जान पहचान के लिए होने वाली बहू को आमंत्रित किया जाता है.

आदिवासियों की यह लोक पर्व सबके जीवन में खुशियां, सुख-समृद्धि लाए, यही कामना होती है.